
रेलवे कालोनी, गोरखपुर में पेड़ बहुत हैं। हरा भरा क्षेत्र। सो पत्ते भी बहुत झरते हैं। सींक वाली बेंट लगी बड़ी झाड़ुओं से बुहारते देखता हूं सवेरे कर्मियों को।
बुहार कर पत्तों की ढेरियां बनाते पाया है। पर उसके बाद प्रश्न था कि क्या किया जाता है इन सूखी पत्तियों का? कहीं कहीं जलाया हुआ देखा – पर वैसा बहुत कम ही दिखा। जलाने पर वृक्षों तक लपट जाने और उनकी हरी पत्तियां झुलसने का खतरा रहता है।
देहात होता तो लगता कि भुंजवा अपनी भरसाईं जलाने के लिये प्रयोग करता होगा पत्तियां। यहां तो इन पत्तियों से कम्पोस्ट खाद बनाई जा सकती है या फिर कहीं और ले जाई जा सकती हैं डिस्पोजल के लिये।
उस दिन सवेरे वह ठेला गाड़ी वाला दम्पति दिखा जो पत्तियों के बड़े गठ्ठर बना कर लाद रहा था ठेले पर। आदमी को जल्दी थी लाद कर जाने की और मेरे सवालों का जवाब देने में रुचि नहीं थी उसे। पर इतना बताया कि पत्तियां भट्टे पर जाती हैं। आंवा बनाने के लिये। भट्टे पर पत्तियां, उपले और कोयला इस्तेमाल होता है खपरैल या मिट्टी के बरतन पकाने में।

पर यह व्यक्ति पत्तियां सीधे भट्टे पर ले जाता है या ले जा कर किसी मिडिलमैन को बेचता है यह नहीं पूछ पाया उससे। यह भी नहीं पता कर पाया कि रेलवे के साथ कैसा सम्बन्ध है उसका। कुछ प्रश्न अनुत्तरित भी रहने चाहियें भविष्य के लिये।
हमारे हॉर्टीकल्चर इंस्पेक्टर श्री रणवीर सिंह ने बताया कि मैन-पॉवर की कमी से पत्तियों का उपयोग खाद बनाने में नहीं हो पा रहा। पत्तियां सफाई वाले ही साफ कर डिस्पोज करते हैं। स्वास्थ्य निरीक्षक महोदय ने बताया कि पत्तियां वे ट्रॉली-ट्रेक्टर ट्रॉली में भर कर फिंकवाते हैं। शायद दोनों में तालमेल हो तो खाद बनायी जा सकती है!
मेरे सहकर्मी श्री कृष्ण मुरारी का विचार है कि पत्तियां स्थानीय कुम्हार ही प्रयोग में लाते हैं। वैसे कुम्हारों को पत्तियों, ईन्धन, पुआल और मिट्टी की उपलब्धता में दिक्कत आने लगी है और बहुत से अपना पेशा भी छोड़ रहे हैं।
वहां से आगे बढ़ते है मैने देखा कि अपनी पत्नी पर वह गिजर रहा था, कि जल्दी काम करे, नहीं तो देर हो जायेगी। दोनो कर्मी थे, पर वह अपनी पत्नी का सुपरवाइजर भी था पति होने के नाते! 😆
पत्तों की खाद बड़ी उपयोगी होती है। यदि प्रकृति चक्र को समझा जाये और उसकी स्थानीयता पर आधारित व्यवस्थायें रची जाये तो व्यर्थ की भागदौड़ कम की जा सकती है।
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आपकी इस प्रस्तुति को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन जन्म दिवस – बाबू जगजीवन राम जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
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बड़ी बात यह कि महिला की प्रोडक्टिविटी भी इसमें है और खूब है…
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जय हो। नियमित रहें ब्लॉग जगत में। यही शाश्वत है बाकी सब नश्वर!
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जरूर।
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सूखे पत्तों सा जीवन… एक दिन झर जाता है और बटोर कर ले जाता है कोई.. अग्नि संसकार के लिये या ज़मीन में दफ़न कर देने के लिये… नवजीवन…
पत्नी का बाई डिफ़ॉल्ट सुपरवाइज़र – अच्छा लगा यह मुहावरा. यहाँ भी मेहनत का सारा काम औरतें करती हैं और कन्धे से कन्धा मिलाकर. खेतों में, कंस्ट्रक्शन साइट पर, घरों में… लेकिन यहाँ सुपरवाइज़र वाला भाव कम ही दिखता है पति के व्यवहार में!!
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यहां माने कहां?
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गुजरात में.. आप भूल गये.. आप ही ने तो कहा था कि आप गंगा किनारे से कहाँ खम्बात की खाड़ी में पहुँच गये!!
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ओह। अछम्य भूल। याददाश्त की समस्या। 😦
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‘ वह अपनी पत्नी का सुपरवाइजर भी था पति होने के नाते.’
– ‘पति’ का अर्थ ही है ,स्वामी,मालिक ,अधिकारी !
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अगर बढ़ता हुआ भारतीय समाज अपने प्राचीन मूल्यों को पुनः अपनाने लगे तो ” सुखमय ‘ ” हो जाये सब कुछ !
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हा हा.. लेकिन दार्शनिक पहलू पर रौशनी डाले बगैर किस्सा कुछ कुछ अधूरा रह जाएगा।
पत्ते बहुत कुछ हमारे जीवन को प्रतिबिंबित करते हैं। नई फूटती कौम्पल नए जन्मे शिशु की तरह तो, हरा भरा पूर्ण पर्ण तरुणाई का आगाज़ सा करता प्रतीत होता है। उसमे आता हल्का सा पीला रंग अधेड़ावस्था को दर्शा देता है। …और जब पत्ता सूखने लगता है तो हौले से किसी दिन शाख उसका साथ छोड़ देती है और वो अलग होकर हवाओं के हवाले होकर नैपत्थ्य में खो जाता है , गुम हो जाता है मिट कर सृस्ठी में मिल जाने के लिए।
सर ने जिक्र किया जलाने और कम्पोस्ट खाद में तब्दील कर देने का, तो यूँ लगा जीवन के अंतिम संस्कार पर मंथन चल रहा हो कि ‘जलाना’ श्रेष्ठ है या फिर ‘देहदान’ !
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ब्लॉग एक खुरदरा लेखन है। जैसा देखा, वैसा लिखा। इसमें जन्म से पहले यज्ञोपवीत संस्कार सम्भव है या मरण से पहले तेरही भी! 🙂
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बिल्कुल सही फ़रमाया सर आपने।
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