फ़ेसबुक में यह प्रवृत्ति देखता हूं। लोगों के पास आपका कहा, लिखा और प्रस्तुत किया पढ़ने की तलब नहीं है। आप उनका फ़्रेण्डशिप अनुरोध स्वीकार करें तो दन्न से मैसेंजर में उनका अनुरोध आता है फोन नम्बर मांगता हुआ।
वे नेट पर उपलब्ध मूल भूत जानकारी भी नहीं पढ़ते। मसलन वे मेरे बारे में जानना चाहें तो मेरे ब्लॉग-फेसबुक-ट्विटर पर मेरे विषय में तो मैने इतना प्रस्तुत कर दिया है कि कभी कभी मुझे लगता है कि मैने अपने घर की दीवारें ही शीशे की बना दी हैं। यही नहीं, मन में जो भी चलता है, वह भी नेट पर है। कच्चा और अधपका विचार भी प्रस्तुत है। कुछ लोग कहते हैं यह खतरनाक है। इसका मिसयूज हो सकता है। पर जो है, सो है। मैं अपने को बदल नहीं पाता प्रस्तुति में।
But this request of phone number in nanoseconds of “friendship” puts me off! लाहे लाहे नेटवर्किंग करो भाई! इतना भला/बढ़िया नेटवर्किंग माध्यम उपलब्ध कराया है भगवान ने अपने नेटावतार में, उसका धन्यवाद दो, इज्जत करो और इण्टरनेट पर हो रहे सम्प्रेषण यज्ञ में अपनी आहुति दे कर जो परिपक्व मैत्री का फल प्राप्त हो, उसे प्रसाद की तरह ग्रहण करो।
मैत्री परिपक्व होने के लिये समय दो भाई। सीजनल सब्जी भी फलीभूत होने में महीना-डेढ महीना लेती है। यह मानवीय रिलेशनशिप का मामला है प्यारे, मैगी का टू-मिनट इन्स्टेण्ट नूडल बनाने का विकृत पाकशास्त्रीय प्रयोग नहीं!
जीवन में जितने अच्छे लोग मिले हैं, उसमें से बहुत से नेट की नेटवर्किंग के माध्यम से मिले हैं। उनकी विचारधारा, तहज़ीब, शब्दों में ताकत और दूसरे के कहे को सुनने समझने का माद्दा, विशाल हृदयता… बहुत से गुणों के धनी पाये हैं। पर नेट पर उपलब्ध सामग्री को बहुत बारीकी से ऑब्जर्व करते हैं। सर्च इंजन के सही उपयोग करते हैं। वे ऐसी सामग्री उपलब्ध कराते हैं जो आपके जीवन में वैल्यू एड करती है। आपस में बात करना तो तब होता है जब एक समझ डेवलप हो जाती है व्यक्तित्व के विषय में।
फेसबुक का अकाउण्ट बना लेना भर आपको नेटवर्किंग में सिद्धहस्त नहीं बनाता। कत्तई नहीं।
लाहे लाहे नेटवर्किंग करो भाई!!!

सर! इसी प्रवृत्ति पर मैंने अभी-अभी एक पोस्ट लिखी है अपने ब्लॉग पर, जिसके पूर्वार्द्ध में मैंने ऐसा करने के पीछे की मानसिकता (अपनी मानसिकता, जब मैं बिल्कुल अपरिचित था इस दुनिया से) बताई है और अंत में उसकी दुर्दशा की बात कही है. पहली जनवरी को फेसबुक से छुटकारा पाकर (जो केवल दो महीने चला) ब्लॉग की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहा, अपनी ओर से सफल रहा, लेकिन पुराने मित्रों को पुनरागमन के लिये प्रेरित नहीं कर पाया. आपका सातत्य बना है, यही मेरे लिये प्रसन्नता का विषय है.
फेसबुक छोड़ते समय मैंने कहा था कि वहाँ आपके सीरियस स्टेटमेण्ट का भी लोग मज़ाक बना देते हैं और मज़ाक की बातें भी सीरियस हो जाती हैं. आपका सिर्फ एक कमेण्ट पसन्द आया और मित्रता अनुरोध की बाढ. मेरे करीब 104 रिक्वेस्ट पेण्डिंग हैओं, जिनमें कई को तो मैं अच्छी तरह जानता भी हूँ. उनका उद्देश्य यह है कि वे शाहरुख़, सचिन या अमिताभ का आँकड़ा पार कर जाएँ या ऐसे ही कमेण्ट आप उनके स्टेटस पर भी डालें.
आरम्भिक दौर के बाद जब परिपक्वता (उस घटना का भी ज़िक्र है मेरी पोस्ट में) आई तो फ़ोन नम्बर माँगना छोड़ दिया मैंने. लेकिन कभी किसी शहर के दौरे पर जाएँ तो मिलने की इच्छा होती है. अब गोरखपुर से आपका नाम जुड़ा है तो इच्छा तो होगी ही.
लेकिन लाहे-लाहे का सन्यम बहुत आवश्यक है. नेटवर्किंग मुझे बड़ा टेकनिकल और आत्माविहीन शब्द लगता है, मैं इसे रिश्तों का नाम देता हूँ, ये रिश्ते भी बीरबल की खिचड़ी की तरह पकें तभी स्वाद आता है!
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बहुत बढ़िया लगता है आपका लेखन और आपकी टिप्पणियां। कभी मिला जायेगा, सलिल!
किसी जमाने में ऐसे जानदार शानदार टिप्पणियां ( दूसरे फ्लेवर में) इस ब्लॉग पर आलोक पुराणिक की हुआ करती थीं। उनका मैं एक जगह संग्रह करने की सोचा करता था। वही विचार आपकी टिप्पणियों को ले कर आते हैं!
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प्रणाम!!
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नेटवर्किंग के भी कुछ कायदे हैं, कानून यदि न भी हों तो । नेटवर्किंग भी सहज-सुंदर हो तो ठीक । नेटवर्किंग वैसे तो मित्रता से बहुत अलग और काफी हद तक हल्की शै है। पर नेटवर्किंग से बहुत-से अच्छे मित्र भी मिल जाते हैं और मिले हैं। यह इसकी सिल्वर लाइनिंग है । कई ऐसे मित्र जिनसे समान सोच के स्तर पर जुड़ते हैं तो कई ऐसे जिनसे किंचित मतभिन्नता के बावजूद जिनकी भावनात्मक और बौद्धिक ईमानदारी गहरे प्रभावित करती है और अपने को जाँचने का मौका मिलता है । मित्र हैं तो गाहे-बजाहे काम भी आ जाते होंगे । पर मित्रता काम निकालने की अत्यंत व्यावहारिक और तुरंता सोच से संचालित नहीं हो सकती । नेटवर्किंग हो सकती है और होती है । इसलिए चट मैत्री-संदेश स्वीकार्य और पट फोन नम्बर दरकार्य ।
ऐसे भोले (?) मित्रों (या संभावित कामनिकालू नेटवर्करों) के सम्मान में रहीम का यह दोहा जो आपको कहीं मिल जाए तो 101 रु. पुरस्कार :) :
धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होना
बिन मांगे मोती मिलें मांगे मिले न चूना
पुनश्च :
आपका यह प्रेक्षण डायरी में नोट कर लिया है :
” जीवन में जितने अच्छे लोग मिले हैं, उसमें से बहुत से नेट की नेटवर्किंग के माध्यम से मिले हैं। उनकी विचारधारा, तहज़ीब, शब्दों में ताकत और दूसरे के कहे को सुनने समझने का माद्दा, विशाल हृदयता… बहुत से गुणों के धनी पाये हैं। पर नेट पर उपलब्ध सामग्री को बहुत बारीकी से ऑब्जर्व करते हैं। सर्च इंजन के सही उपयोग करते हैं। वे ऐसी सामग्री उपलब्ध कराते हैं जो आपके जीवन में वैल्यू एड करती है। आपस में बात करना तो तब होता है जब एक समझ डेवलप हो जाती है व्यक्तित्व के विषय में।”
कभी-कभी सोचता हूँ कि नेट और ब्लॉग न होता तो कितने शिक्षित और प्रतिभावान तथा कितने ही सहज बुद्धिमान किन्तु आकुल-व्याकुल अंतर्मुखी अपने अंदर के प्रसुप्त लेखक को किस तरह खोज पाते और कैसे जगाते ? जीवन-जगत में अपनी भाषा से दूर पटके जाकर भी उस भाषा की सहज-सुन्दर अभिव्यक्ति का पुनराविष्कार कैसे कर पाते ? सहज एवं अबाध संचार और अपने अंदर के लेखक का पुनर्जीवन, यह नेट और ब्लॉग की कुल प्राप्ति है । बाकी यह तुरत-फुरत नंबरियाने-फंबरियाने की नेटवर्किंग….. सब उपोत्पाद !
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बिल्कुल, नेट न होता, नेटवर्किंग न होती तो कहीं प्रियंकर और कहीं ज्ञानदत्त अपनी अपनी खैनी अलग अलग मल रहे होते! एक दूसरे के बारे में पता ही न होता! :-)
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भूल सुधार : परिपक्व को परिपक्वता पढ़ा जावे
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परिपक्व भी लाहे लाहे ही तो आएगी
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सात साल से आपको जानता हूं, सही कहूं तो दो साल से आपको पकड़ पाया हूं, पहले बस आपकी पोस्ट पढ़ता था और निकल जाता था, अब सोचता भी हूं।
लेकिन कभी ख्याल नहीं आया कि आपके नम्बर मांगे जाएं। जरूरत ही नहीं है। बहुत से लोगों के नम्बर की जरूरत ही नहीं है। जब संप्रेषण हो रहा है तो क्या जरूरत है।
वार्ता तो हो ही रही है ना…
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लोगों की प्राथमिकता और कुछ होगी!
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मेरा फेसबुक के साथ हनीमून केवल एक सप्ताह तक चला।
तंग आकर account बन्द दिया।
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Correction in second line:
तंग आकर account बन्द किया।
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आप ब्लाग बनायें, विश्वनाथ जी!
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अभी तक तो बचे हुए हैं.. न किसी ने नंबर माँगा न हमने किसी से माँगा,.
अब तो एसएमएस से जल्दी जवाब फेसबुक मैसेज का आता है ;)
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धीरे सबकुछ होय, गहरापन धीरे ही आता है।
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सोंचूमय पोस्ट :P :P …I mean really a thought-provoking post…इस तरह की प्रवृत्ति से मै अक्सर रुबरु होता रहता हूँ. लेकिन अब इस पर लगाम लगाना सम्भव नहीं प्रतीत होता क्योकि इसका दायरा जंगली बेल की तरह बढ़ रहा है …..
– Arvind K.Pandey
http://indowaves.wordpress.com/
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Lahe-Lahe Kahin Ap ‘Lahai-Lahai’ Kahen Hain Kya Apane Blog Mein ? Ya Purvanchal Ki Isee Sabdawali Se Mel Khata Koi Aur Sabd Hai ? Please Batayen.
Kaaphi Achchha Suggestion Laga.
Regards
A K Mishra
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धीरे धीरे!
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