वे दो लोग मिलने आये आज (अप्रेल 22’14)। जय गुरुदेव के भण्डारे का निमंत्रण देने। भण्डारा मथुरा में है। सो गोरखपुर से वहां जाने का सवाल ही नहीं। वैसे भी जय गुरुदेव के नाम से कोई रेवरेंस नहीं बनती मन में। कौतूहल अवश्य होता है कि कैसे इतनी जबरदस्त फॉलोइंग है।
उन दोनो व्यक्तियों को देख कौतूहल का कदाचित शमन हुआ हो, ऐसा नहीं। दोनो ही विचित्र लग रहे थे। उनमें से बड़े – श्री आनन्द बहादुर सक्सेना, टाट का कुरता पहने थे। जूट के बोरे की तरह खुरदरा और झीना नहीं था। पर था टाट ही। सक्सेना को लगा कि मैं टाट के बारे में नहीं जानता हूंगा। पर जब समझ आ गया कि मैं इतना बड़ा साहब नहीं हूं कि यह न जानूं, उन्होने मुझे समझाना बन्द कर दिया।

मेरे पूछने पर यह जरूर बताया कि टाट का वस्त्र महीन नहीं है। टाट खरीद कर अपने नाप का सिलवाया है। बना बनाया नहीं आता। चुभता है शरीर पर। और गरमी में टाट गरम; सरदी में ठण्डा रहता है। बारिश के मौसम में नमी सोखता है और जल्दी सूखता नहीं। “औरत जैसे नथुनी, झुमका, कंगन आदि पहनती है जो शरीर पर बोझ भले लगते हैं, पर उसे हमेशा उसके सुन्दर होने का अहसास कराते रहते हैं, उसी तरह यह चुभने वाले कपड़े हमेशा अहसास कराते रहते हैं उस भगवान का…।” मुझे टाट के प्रयोग का एक दार्शनिक कोण बांटने का प्रयास किया सक्सेना जी ने। फिर जोड़ा – “हम तो फौजी हैं, रिटायर्ड। जैसा गुरू का हुकम, वैसा करते हैं। कोई सवाल पूछने की गुंजाइश नहीं छोड़ते।” मुझे लगा कि सक्सेना टाट पहनने को कहीं किसी स्तर पर अतार्किक मानते हैं , पर उसे अनुशासन के नाम से जस्टीफ़ाई कर रहे हैं।
जय गुरुदेव के बारे में जितना ज्ञात है, उससे ज्यादा मिथक बुना गया है उनके व्यक्तित्व पर। विकीपेडिया के पेज के अनुसार वे राधास्वामी सम्प्रदाय की एक शाखा के व्यक्ति हैं। करीब (?) 116 वर्ष की उम्र में 18मई, 2012 में उनका निधान हुआ। उनका नाम तुलसीदास था। इमरजेंसी के दौरान सरकार का विरोध करने और दूरदर्शी नामक राजनैतिक पार्टी बनाने के कारण उन्हें जेल में डाल दिया गया था बीस महीने के लिये। छूटने पर इन्दिरा गांधी उनसे मिलने आयी थीं। मथुरा में उनके आश्रम में। बाबा ने उन्हे आशीर्वाद दिया था पर यह कहा था कि उनके परिवार में से अगर कोई प्रधानमन्त्री बनने का प्रयास करेगा तो परिणाम घातक होंगे।
बाबा की याद में मथुरा में भण्डारा होता है और मेला लगता है।

बाबा के चेला लोग टाट पहनते हैं। पर मुझे संजय अग्रवाल ने फेसबुक में यह बताया कि जयगुरुदेव खुद टाट नहीं पहनते थे। उनके चित्र से भी ऐसा नहीं लगता कि वे टाट पहने हों। चित्र के अनुसार उनके वर्तमान शिष्य श्री भी टाट पहने नहीं नजर आते।
फेसबुक पर श्री तेजनारायण राय का कमेण्ट है – चेले का टाट बनाम गुरु का ठाट!

उनके साथ, एक जवान आदमी थे, धर्मवीर पांडेय। दोनो बरेली से आये थे। धर्मवीर ने भी अजीबोगरीब वेश बना रखा था। सिर पर आम आदमी पार्टी छाप टोपी। एक सफेद जैकेट, जिसपर शाकाहार और पर्यावरण के बारे में कुछ नारे लिखे थे। टोपी पर भी शाकाहार के प्रचार में कुछ लिखा था। जयगुरुदेव के शाकाहार मुहिम का प्रचार करने वाले व्यक्ति थे धर्मवीर। उनसे बातचीत में लगा कि वे समर्पित कार्यकर्ता हैं। पर इस स्तर का समर्पण कैसे है – वह स्पष्ट नहीं हो पाया। इस्लाम के विषय में भी इस प्रकार का समर्पण हिन्दू समझ नहीं पाते और नासमझी में उसे “बर्बर” धर्म की संज्ञा देने लगते हैं!
जैसे लोगों के बीच में ये लोग मिलते जुलते और प्रचार करते होंगे, उनके बीच इनका अजीबोगरीब वेश उन्हे कौतूहल का विषय जरूर बनाता होगा और उस कौतूहल के कारण लोग उन्हे सुनने को तैयार होते होंगे। … यह वेश एक प्रकार से विज्ञापन का जरीया है – बहुत कुछ पेटा वाली निर्वस्त्र सन्नारियों की तरह का!
भण्डारे का निमन्त्रण पत्र देना गौण बात थी। असल मकसद अनुरोध करना था कि जयगुरुदेव मेने के अवसर पर मथुरा में बहुत से लोग इकठ्ठा होंगे। उनके आने-जाने के लिये विशेष गाड़ियों की व्यवस्था के लिये वे चीफ ऑपरेशंस मैनेजर साहब से अनुरोध करना चाहते थे। और मैं संयोग से वह चीफ ऑपरेशंस मैनेजर के पद पर आसीन था। बरेली में किसी ने उन्हे सलाह दी थी कि आप लोग गोरखपुर जाइये, वहीं से स्पेशल गाड़ियां चलाने का निर्णय होगा। अत: उन दोनो ने बरेली से गोरखपुर की 500 किलोमीटर की यात्रा की। उनका यह काम इज्जतनगर मण्डल स्तर पर ही हो जाना चाहिये था…
खैर, मुझको यह नहीं लगा कि सक्सेना और पांण्डेय को यात्रा करने में कोई झिझक/असुविधा/समस्या थी। उनके लिये यह निर्धारित/आदेशित कार्य था; जो उन्हे करना था। वे मेरे चेम्बर में बैठने और अपनी बात कहने का अवसर पा गये, यह अनुभव कर वे प्रसन्न ही लग रहे थे। कहें तो गदगद।

आगरा की पदस्थापना के समय यह मेला देखा है, बहुत अधिक संख्या में लोग आते हैं। एक नगर बस जाता है और सभी के सभी अनुशासित भी रहते हैं। टाट पहनना, पर समझ न आया।
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जिसमे भी भेजा आप तक सही भेजा. यहाँ आमान परिवर्तन की वजह से बरेली से कासगंज रूट बंद पड़ा है. कासगंज से मथुरा बहुत पहले ही ब्रॉडगेज़ हो चुका है. यदि भंडारे/मेले से पहले बरेली से मथुरा रूट पर ट्रेन चला दी जाए तो श्रद्धालुओं को बहुत सुविधा होगी. लाखों की संख्या में जाते हैं. शायद यही कहने के लिए वो बरेली से गोरखपुर गए होंगे. जहाँ तक मुझे जानकारी है (अखबार द्वारा) मार्च में ट्रेन चालू कर देने की खबर थी. लेकिन अप्रैल (२८) बीत गया अभी तक बंद हैं. यदि संभव हो और आपको उचित लगे तो आप उनके अनुरोध पर अवश्य गौर करें.
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सुंदर 🙂
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और शबरी के बेर मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
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इस पोस्ट के शीर्षक ने एक पूरी रेल-यात्रा याद दिला दी. अमरोहा का हाशमी दवाख़ाना हो, मर्दाना कमज़ोरी का इलाज बिजली किया जाना हो या रिश्ते ही रिश्तों की गुहार हो… पटना से दिल्ली तक की रेल यात्रा में शायद ही कोई नंगी दीवार हो जिनको इन नारों की टाट न पहनाई गई हो. इनमें एक नारा जिसने सदा ध्यान खींचा है वो है – जय गुरुदेव- नाम परमात्मा का, सतयुग आएगा, हम बदलेंगे – युग बदलेगा, शाकाहारी बनो और ऐसे ही कई नारे जिनसे किसी धार्मिक भावना या पंथ या सम्प्रदाय की बू नहीं आती.
एक व्यक्ति मेरे ऑफिस में भी आया था कुछ समय पहले. उसी वेश-भूषा में जो आपने बताया – टाट की कमीज़ और पाजामा पहने. मेरे स्टाफ हँस रहे थे उसपर. मुझे भी लगा कि वो किसान है और ह्मारे ऑफिस के पास ही कृषि उत्पादन विपणन समिति में दुकान चलाता है, तो वहीं से उसने बोरी का ये रिसाइक्लिंग इस्तेमाल निकाला है. फिर भी जिज्ञासावश पूछ लिया तो उसने बताया कि वह “जय गुरुदेव” का अनुयायी है.
यहाँ सौराष्ट्र में तो इतने संत (जलाराम बापा, बापा सीताराम, संत प्रभाराम, संत कँवरराम आदि) और इतनी देवियाँ हैं (मेडली माँ, खोडल माँ, चामुण्डा माँ, रान्दल माँ) हैं कि अगर सबके महात्म्य पर चर्चा शुरू की जाए तो हरि अनंत हरिकथा अनंता वाली स्थिति हो जाएगी!
आस्थाओं का पालन करना अगर मन के भीतर से आता न कि बाहर से थोपा हुआ तो कितना अच्छा होता!!
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Bahut Achchha Laga.
Pata Chala Tha……Mathura Ashram Mein
Kayee Videshee Cars Prayog Mein Late The Jeevit Rahane Tak.
Unke Santai Ka Ek Pramad Hai……..116 Saal Tak Jeevit Rahana !
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