सही मौसम है शॉल की फेरीवालों का। गोरखपुर में तिब्बत बाजार और कलकत्ता बाजार में सामान मिलता है सर्दियों के लिये। स्वेटर, जैकेट, गाउन, शॉल आदि। नेपाली या तिब्बती अपने मोन्गोलॉइड चेहरों का ट्रेडमार्क लिये फ़ेरी लगा कर भी बेचते हैं गर्म कपड़े। आज मैने रिक्शा पर कश्मीरी जवान लोगों को भी शॉल बेचते देखा।
रविवार के दिन एक पुस्तक ले कर बैठा था बाहर धूप में। बीच बीच में साइकल भी चला ले रहा था। सड़क पर ये दो दिखे। एक रिक्शा चला रहा था और ’पश्मिन् शॉल वाले’ की आवाज भी लगा रहा था। रिक्शे में शॉल के गठ्ठर लदे थे। दूसरा रिक्शे के पीछे चल रहा था। फ़ेरी लगाने का एक उत्कृष्ट मॉडल। रिक्शा उन्होने किराये पर लिया था। खुद चला रहे थे। पीछे चलता फ़ेरीवाला यह निगाह भी रख रहा था कि कोई गठ्ठर खिसका न ले। उनमें से एक रेलवे के बंगलों में गेट खोल कर जा कर लोगों को आकर्षित कर रहा था और दूसरा बाहर रिक्शे पर लदे सामान के साथ रहता था।
सामान दिखाने और दाम बताने में आपसी छद्म लड़ाई का प्रहसन भी वे बखूबी कर रहे थे। उन्होने आर्ट आफ नेगोशियेशन्स की किताब नहीं पढ़ी होगी हर्ब कोहन की। पर उन्हें पढ़ने की जरूरत भी नहीं लगती थी।
साइकल चलाते हुये मैने कहा कि हमें खरीदना नहीं है। पर ’मेम सा’ब को पांच मिनट दिखाने के नाम पर उनमे से एक अन्दर आया और मेरी पत्नीजी ने अनमने पन से कहा कि चलो, दिखाओ। वे गेट खोल कर रिक्शा अन्दर ले आये। रिक्शे पर गठ्ठर देख मुझे लगा कि मोल भाव तो मैं नहीं कर सकता, पर चित्र अवश्य खींच सकता हूं। मैने साइकल चलाना छोड़ मोबाइल फोन का कैमरा संभाल लिया।
बहुत से शॉल दिखाये। देखनें में बहुत मंहगे नहीं थे। पर दाम बताये 3-4 हजार। पश्मीना बताया। मेरी पत्नीजी ने कहा कि ये सब लुधियाना के हैं। उन्होने बताया कि लद्दाखी उन लोगों को ऊन बेचते हैं और वे (अपना निवास बताया अनन्तनाग) ये शॉल बुनते थे। … उसी तर्ज पर बात जैसे भदोहिया फेरी वाले हमें रतलाम में सुनाया करते थे। … फलां ऊन, फलां डाई, फलाना टपटेल…
अनन्तनाग के नाम पर मैने कहा कि तुमारे यहां चुनाव चल रहे हैं और तुम यहां घूम रहे हो। उनको यह जानकारी थी कि वहां चुनाव हो रहे हैं। पर उस बारें में बहुत ज्यादा बात करनेकी बजाय शॉल बेचना उन्हे ज्यादा रुचिकर लग रहा था। वे कुछ ही दिन पहले गोरखपुर आये हैं। उनमें से बड़े वाले ने बताया कि वह यहीं आ रहा है सर्दियों में। पिछले छ साल से। तीन साढ़े तीन महीने यहां रह कर अपना सामान बेचते हैं वे लोग।
सौदा पटा नहीं। उन्होने भी प्रहसन किया और मेरी पत्नीजी-घर में काम करने वाली बुढ़िया की युगल टीम ने भी। एक सस्ता शॉल जो वे आठ सौ का कह रहे थे, तीन सौ में दे कर गये। पर दोनो पक्ष असंतुष्ट दिखे। पार्टिंग शॉट्स थे –
“बहुत टाइम खोटी हुआ।”
“मैने तो तुम लोगों को बुलाया नहीं था।”
“हम तो कस्टमर बनाना चाहते थे। इस साल आपने एक लिया तो अगले साल हमसे दस खरीदेंगे। यहीं, इसी जगह पर।”
“आप समझते हो, हम परदेसी हैं तो जो भाव बोलोगे उसी पर दे कर जायेंगे। पर इससे कम में तो कीमत ही नहीं निकलेगी।”
खैर, चुंकि फेरीवाले खुश नहीं थे; मैं उनके बारे में उनसे बहुत नहीं पूछ पाया। अगली बार इसी जगह वे हमें दस शॉल बेचने की बात कह कर गये। पर उन्हे क्या मालुम कि साल भर बाद हम कहीं और होंगे! शायद गंगा किनारे एक “कुटिया” बना कर वहां रहते होंगे।
अनन्तनाग के ये कश्मीरी शॉलवाले याद रहेंगे।
