
किसी स्थान के बारे में मैं अगर सोचूं कि अनूठे कोण से लिख सकता हूं, तो वह गंगा के कछार के अलावा सम्भव नहीं। वहां मेरे साथ कोई सरकारी अमला नहीं होता था। ज्यादातर मैं कुरता पायजामा में होता था। या फ़िर जींस का पैण्ट। वहां के केवट, सब्जी उगाने वाले, मछेरे, ऊंट वाले या नित्य के स्नानार्थी मुझे निरीह जीव मानते थे। कुछ सिरफिरा जो अटपटे सवाल करता या कुछ फोटो खींचता था। कुछ को मैने यह बताया भी था कि उनसे बातचीत कर मैं क्या और कैसे उसे नेट पर प्रस्तुत करता हूं। कुल मिला कर गंगाजी के कछार में मैं घुल मिल सा गया था। अवैध शराब बनाने वालों की गतिविधियों पर ताक झांक करने का अपना एक खतरा था। पर उन लोगों से कोई सीधा टकराव नहीं हुआ। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व!
लेकिन वैसा यहां गोरखपुर में नहीं है। यहां ऑस्टियो अर्थराइटिस पता चलने के कारण बहुत लम्बा पैदल नहीं चल पाता। वाहन से जाने पर कम से कम सरकारी एम्बेसडर कार और उसका सरकाई ड्राइवर मुझे रेलवे के लोगों से अलग थलग तो करता ही है, आम जनता में भी घुलने मिलने में सहायक नहीं है। यह मुख्य कारण है कि मेरी ब्लॉग पर गतिविधि कम हो गयी है। निकलना हो नहीं रहा है और निकलना जो हो भी रहा है वह रेलवे का प्रोटेक्टिव आवरण साथ होने के कारण इन्स्युलर है।
फिर भी जब कल डोमिनगढ़ (गोरखपुर से पश्चिम की ओर पहला स्टेशन) गया तो यह भाव ले कर गया कि पटरियों और सिगनल/स्टेशन के अलावा भी कुछ देखने का यत्न करूंगा। उस भाव की रक्षा हुयी – कुछ सीमा तक।

मेरे साथ मेरे यातायात नियोजन के सहकर्मी मनीश, लखनऊ मण्डल के गोरखपुर में पदस्थ यातायात निरीक्षक श्री डीके श्रीवास्तव और मेरे वाहन चालक देवीप्रसाद साथ थे। गोरखपुर की संकरी सड़कों के बाजार से गुजरते हुये हम डोमिनगढ़ स्टेशन के लेवल क्रॉसिंग पर पंहुचे। यह लेवल क्रॉसिंग उत्तर की ओर संकरा हो गया है। इस समपार फ़ाटक के स्थान पर रोड ओवर ब्रिज बनाने का काम कई साल पहले प्रारम्भ हुआ होगा। उसके लिये सड़क के बीचोबीच खम्भे बन गये। फिर काम रुक गया। अब न रोड ओवर ब्रिज बन रहा है, न लेवल क्रॉसिंग गेट ठीक से काम कर पा रहा है। काम न करने की कीमत लोग नित्य असुविधा के रूप में भुगत रहे हैं। स्टेशन से पहले सूर्यकुण्ड पड़ा। मिथक है कि राम अयोध्या वापस लौटते समय यहां रुके थे। यह तो जनकपुर के रास्ते में पड़ता होगा; लंका के रास्ते में नहीं। अत: शायद राम ससुराल से लौटते यहां आये हों। कोई बहुत आकर्षक नहीं था कि मैं वहां रुकता। किसी बड़े गांव के पोखरा जैसा था।

स्टेशन देखने के बाद मैने नदी देखने की इच्छा जताई। श्रीवास्तव जी ने मुझे बताया कि पास में ही है नदी। पर बहुत गन्दगी है। रास्ता भी संकरा है। मैने फिर भी वहां जाना चाहा। गया भी।
तीन नदियां हैं – ककरा, रोहिणी और राप्ती – ऐसा श्रीवास्तव जी ने बताया। यह पास वाली नदी ककरा है। दोनो नदियां आगे जा कर राप्ती में मिल जाती है।
डोमिनगढ़ स्टेशन ऊंचाई पर बना है पर उसके साथ की जमीन कछारी है। रिहायशी इलाकों को बचाने के लिये बन्ध बना है। अन्यथा नीचे के इलाकों में हर साल बाढ़ आ जाये। निचले इलाकों में अभी भी हर साल पानी भर जाता है।
इस क्षेत्र में प्रॉजेक्ट निर्माण की दशा –
टिपिकल यूपोरियन कंस्ट्रक्शन सिण्ड्रॉम। आधा तीहा काम होता है। तब तक पैसा चरित्रहीनता का असुर लील जाता है। उसके बाद वर्षॉं इंतजार होता है प्रॉजेक्ट के पूरा होने का। तब तक जो बना है, वह भी उपेक्षा में क्षरित होने लगता है।
योजनायें पूरा होने में अधिक समय। खर्चों की अधिकता। व्यापक इंफ्रास्ट्रक्चर की अभावग्रस्तता। अराजक दशा का भाव। छुटभैयों-माफिया की रंगदारी का माहौल… यह सब दीखता है।
ककरा नदी तक जाने वाली सड़क पर गिट्टी बिछी थी। डामरीकरण नहीं था। सो बहुत धूल थी। आते जाते ट्रक कूड़े से लदे थे। वे सड़क के किनारे कछारी इलाके में कूड़ा डम्प कर रहे थे। यह क्षेत्र गोरखपुर के कूड़े का लैण्डफिल था। आते जाते 5-6 ट्रक/ट्रॉली देखे मैने। कचरा/लैण्डफिल और गन्दगी – बीमारियों का उत्तमोत्तम स्थान। पास में जो घर थे, वे भी बहुत सम्पन्न लोगों के नहीं थे। कौन धनी ऐसी जगह रहेगा भला?!


नदी से पहले कई उथले जगहों में पानी के तालाब थे। ऐसे ही एक तालाब के किनारे, सड़क से सटा धोबी घाट था। पक्की इमारत। करीब पन्द्रह बीस रजक वहां कपड़े धोते दिखे। कपड़ों में वस्त्र तो नहीं थे – ज्यादा तर होटलों, टेण्ट हाउस वालों के कपड़े दिखे। रुका हुआ, लैण्डफिल के पास का दूषित जल। उसमें धुलते यह कपड़े। भगवान ही बता सकते हैं कि उनका प्रयोग करने वाले कितना रिस्क लेते होंगे चर्म और अन्य रोगों का। घरों में अब वाशिंग मशीने हैं सो इस प्रकार के सार्वजनिक वस्त्र-प्रक्षालन से मुक्ति मिल गयी है।
नदी में जल अधिक नहीं था (मैं मन ही मन गंगा नदी से तुलना कर रहा हूं); पर जल में बहाव अच्छा था। सड़क एक पाण्टून पुल से गुजरती है उस पार जाने के लिये। उस पार एकाध मन्दिर, उनकी ध्वजायें और झोंपड़ियां/ पक्के मकान थे करार पर। बायीं ओर रेल पुल था – दोहरी लाइन का। उनकी बगल में एक संकरा पुल था – शायद पैदल के लिये।
एक बड़ा पुल दायीं ओर निर्माणग्रस्त था – वैसे ही जैसे स्टेशन पर रोड-ओवर-ब्रिज था। पुल के पिलर बन चुके थे पर पुल बनने का काम वर्षों से रुका पड़ा था।

अधबना रुका पुल। टिपिकल यूपोरियन कंस्ट्रक्शन सिण्ड्रॉम। आधा तीहा काम होता है। तब तक पैसा चरित्रहीनता का असुर लील जाता है। उसके बाद वर्षॉं इंतजार होता है प्रॉजेक्ट के पूरा होने का। तब तक जो बना है, वह भी उपेक्षा में क्षरित होने लगता है। ऐसा ही मुझे डोमिनगढ़ रेलवे स्टेशन पर भी दिखा था। वहां एक वेटिंग हाल जाने कब से बन रहा था और नीव पूरी होने पर काम छोड़ दिया गया था। पिलर के सरिया भर दिख रहे थे – स्टील का एकाबेना बनाते। … मुझे मायूसी होने लगी।

दूर चिता जल रही थी। श्मशान भी है यहां। तभी तो शायद नाम है – डोमिनगढ़।
मैं अपना ध्यान बंटा रेल पुल के नीचे मछली पकड़ने वालों को निहारने लगा। एक लम्बी कंटिया/लग्गी लिये जवान आता दिखा। पूछा तो नाम बताया बाबू। यहीं घण्टाघर में काम करते हैं। काम से छूट कर ककरा नदी में मछली पकड़ते हैं। “काम भर को मिल जाती है – एकाध किलो। भाग्य अच्छा हुआ तो किसी दिन बड़ी मछली भी हाथ लग जाती है।” बाबू के पास समय की कमी हो, ऐसा नहीं लगता था। पर वह अपने को बहुत व्यस्त दिखा रहा था। खैर फोटो तो खिंचा ही लिया!
हम ककरा नदी किनारे से वापस हो लिये। कभी मौका मिला तो रोहिणी और राप्ती किनारे भी चक्कर लगेगा। … ये सभी नदियाँ अंतत: मिलती तो गंगा में ही हैं।
नदियाँ चरित्र का प्रवाह हैं। नदियां स्वस्थ हैं तो चरित्र स्वस्थ है।
जैसे मकबूल फ़िदा हुसैन की चित्रकारी में घोड़े सहज ही आहूत हैं आपके संस्मरण में मछलियाँ
और गंध मुझे खीच लाती है – बढियां है इतने लम्बे समय बाद -ब्लॉग लेखन का वह ज्ञान-समीर -अनूप
युग बीत गया सभी के लिए !
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वह सक्रियता अब नहीं है। वह समय बहुत सनसनी वाला था!
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