
अचिन्त्य लाहिड़ी ने मुझे बताया था बंगाली लोगों के विगत शताब्दियों में गोरखपुर आने के बारे में। उन्होने यह भी कहा था कि इस विषय में बेहतर जानकारी उनके पिताजी श्री प्रतुल कुमार लाहिड़ी दे सकते हैं। श्री लाहिड़ी से मुलाकात मेरे आलस्य के कारण टलती रही। पर अन्तत: मैने तय किया कि सन् 2014 में यह सम्पन्न कर ही ली जाये। सो मैं उनसे मिलने गया 29 दिसम्बर की शाम उनके आवास पर।
श्री लाहिड़ी को ज्यादा प्रश्नों से कुरेदना नहीं पड़ा मुझे। डेढ़ घण्टे के समय में मुझे बहुत त्वरित गति से – गति, जो बातचीत करने का अन्दाज भी अनुसरण कर रही थी और कम से कम समय में अधिकाधिक जानकारी देने का प्रयास भी कर रही थी – उन्होने मुझे (1) गोरखपुर में बंगालियों के योगदान, (2) इस सरयूपार के क्षेत्र का पुरातत्व महत्व और (3) उनके अनेक प्रकार के सामाजिक कार्यों के बारे में अवगत कराया।
एक ब्लॉगर एक कुशल पत्रकार नहीं होता। अपनी छोटी पोस्टों के लिये वह श्रवण के आधार पर नोट्स लेने पर कम देखने पर अधिक निर्भर रहता है। यहां उसके उलट रहा। अपनी पतली कॉपी में नोट्स लेने की मेरी प्रवृत्ति बहुत अटपटी/खुरदरी है। लिहाजा जो नोट कर पाया, कर पाया। बहुत कुछ छूट गया। बहुत कुछ इतना उथला नोट किया कि उसके आधार पर आधा-अधूरा लिखना विषय के साथ अन्याय होगा। अत: अगली बार श्री लाहिड़ी जैसे अध्ययन-जानकारी और व्यक्तित्व में ठोस विभूतियों से मिलने में पर्याप्त सावधानी और तैयारी रखूंगा। अन्यथा ब्लॉगरी में भी रैगपिकर कहलाऊंगा! 🙂
श्री लाहिरी का दफ्तर (या अध्ययन कक्ष) मंझोले आकार का और सुरुचिपूर्ण था। मेज, कुर्सी, फाइलें, कागज, दीवार पर पुरात्त्व विषयक सामग्री के चित्र और अलमारियों में सरयूपार क्षेत्र के इकठ्ठे किये हुये कुछ टेरा-कोटा के नमूने थे। शाम के साढ़े छ बजे थे। कमरे में उनके चित्र लेने के लिये मेरे पास मोबाइल भर था, जो ट्यूबलाइट की रोशनी में बहुत अच्छे परिणाम नहीं देता। मुझे उनसे मिलने के बाद अहसास हुआ कि समय का ध्यान कर कैमरा भी उपयुक्त होना चाहिये।
खैर, मुलाकात पर आयें।
मुलाकात मुख्यत: ऊपर लिखे तीन विषयों पर थी। इस पहली पोस्ट में मैं गोरखपुर में बंगाली लोगों के आने और उनके बसने के बारे में उनसे मिली जानकारी रखूंगा।
श्री लाहिड़ी ने बताया कि बंगाली लोग सबसे पहले 1802 में गोरखपुर आये। वे लोग मुस्लिम थे। चन्दसी दवाखाना वाली वैदकी करते थे। चान्दसी दवाखाने के बारे में इण्टरनेट पर मैने जो टटोला, उसमें निकला – शीघ्रपतन, फिश्तुला (भगन्दर), बवासीर, क्षार-सूत्र चिकित्सा आदि। सम्भवत: ये मुस्लिम वैद्य उन रोगों के इलाज में दक्ष थे, जिनके बारे में सामान्यत: व्यक्ति खुल कर नहीं बात करता। वैसे आज भी अनेक शहरों में अनेक चान्दसी दवाखाने हैं और गोरखपुर में भी है; अत: उनकी वैद्यकी विधा पर बिना जाने अधिक नहीं कहूंगा मैं। … पर भारत के विभिन्न भागों से लोगों का एक स्थान से दूसरे में गमन और वहां बसना बहुत रोचक विषय है जानने के लिये। संचार और यातायात (मुख्यत: रेल) के अच्छा न होने के समय भी यह गमन होता रहा है। कुछ समय पहले मैने महाराष्ट्र के पंत ब्राह्मणों के उत्तराखण्ड में बसने पर लिखा था। ऐसे अनेक गमन-विस्थापन जिज्ञासा जगाते हैं।
श्री प्रतुल कुमार लाहिड़ी

श्री प्रतुल कुमार लाहिड़ी जीव विज्ञान की सनद रखते हैं। पहले ये दवा व्यवसायी थे। सन 1976 में इन्होने होटल व्यवसाय में पदार्पण किया।
इनकी रुचि पुरातत्व अध्ययन में है। सन 1997 से ये सरयूपार के क्षेत्र में विस्तृत भ्रमण कर पुरातत्व सामग्री पर शोध करते रहे है।
श्री लाहिड़ी ने कचरा प्रबन्धन, जेल के कैदियों और चिन्दियाँ बीनने वाले बच्चों की शिक्षा आदि के विविध कार्यों में लगन और प्रतिबद्धता से अद्वितीय कार्य किये हैं।
श्री लाहिड़ी ने बताया कि 1886 में डा. जोगेश्वर रॉय गोरखपुर आये। अन्य भी अनेक बंगाली परिवार आये। डा. रॉय मिलिटरी में डाक्टर थे। उसके बाद 1880 के दशक में ही अनेक बंगाली आये जो रेलवे लाइन बिछाने में काम कर रहे थे। उस समय की (सम्भवत:) बी.एन.डब्ल्यू.आर. (बंगाल एण्ड नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे); जो अवध-तिरहुत रेलवे की पूर्ववर्ती थी; के इंजीनियर और बाबू लोग। पहले जो डाक्टर लोग आये, उनका, उनके पेशे के अनुसार,स्थानीय जनता से पर्याप्त मेलजोल रहा और उनके लिये स्वास्थ्य, सांस्कृतिक, सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में उनका योगदान भी रहा। रेलवे के इंजीनियर और बाबू लोग अपेक्षतया (शुरू में) अलग थलग रहे, पर रेलवे के माध्यम से उनका योगदान कमतर नहीं कहा जा सकता। सन 1947 के बाद तो बहुत बंगाली परिवार रेलवे की नौकरी के कारण गोरखपुर आ कर बसे।
डा. जोगेश्वर रॉय ने सन 1896 में सिविल सोसाइटी के माध्यम से दुर्गापूजा गोरखपुर में प्ररम्भ की। यह प्रतिवर्ष होती रही, पर 1903 में प्लेग की महामारी के कारण इसमें व्यवधान आ गया। सन 1907 में विनोद बिहारी रॉय, रमानाथ लाहिड़ी और अघोर नाथ चटर्जी के सामुहिक प्रयासों से यह क्रम पुन: प्रारम्भ हुआ। यह सुहृद समिति और आर्य नाट्य मंच के विलय से बंगाली एसोशियेशन की स्थापना के साथ हुआ। [ उल्लेखनीय है कि सांस्कृतिक समारोह के रूप में शारदीय दुर्गापूजा का प्रारम्भ बंगाल में सन 1868 में श्री व्योमेश चन्द्र बैनर्जी ने किया था – ‘श्री श्री दुर्गापूजा एवम शारदीय महोत्सव’ के रूप में। इसका ढ़ाई दशकों में बंगाल से गोरखपुर जैसे स्थान पर फैल जाना बंगाली सांस्कृतिक उत्कर्ष का प्रमाण है। ]
श्री प्रतुल कुमार लाहिड़ी के दादा जी ( श्री रमानाथ लाहिड़ी) दुर्गापूजा के सांस्कृतिक समारोहों के प्रमुखों में से रहे। वे बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे गोरखपुर के सांस्कृतिक परिदृष्य में।
कालांतर में सन 1947 से रेलवे की दुर्गा पूजा भी प्रारम्भ हुई गोरखपुर में। उसके बाद दुर्गापूजा और रामलीला का समागम राघो-शक्ति मिलन के रूप में होने लगा। उस कार्यक्रम में रामलीला के राघव (राम) माँ दुर्गा की शक्ति (जिसके बल पर उन्होने रावण वध किया) माँ को विजय के बाद लौटाते हैं।

लाहिड़ी जी ने दुर्गापूजा के माध्यम से गोरखपुर में बंगाली प्रभाव को विस्तार से बताया मुझे। मैने सांस्कृतिक क्षेत्र से इतर भी बंगाली प्रभाव की बात पूछी तो उन्होने बताया कि शिक्षा के क्षेत्र में भी बंगाली लोगों का बहुत योगदान रहा गोरखपुर में। गोरखपुर हाई स्कूल, महाराणाप्रताप कॉलेज आदि के बहुत से अध्यापक और प्राचार्य बंगाली रहे। एक समय तो रेलवे और सिविल प्रशासन के अनेकानेक अधिकारी – महाप्रबन्धक, कमिश्नर और मुख्य चिकित्साधिकारी आदि बंगाली थे। श्री लाहिड़ी को विभिन्न कालों के, विभिन्न पदों पर स्थापित अनेक सज्जनों के नाम याद थे। उन्होने बताये और मैने लिखे भी अपनी स्कैप-बुक में। पर उनका ब्लॉग पोस्ट में जिक्र इस लिये नहीं कर रहा हूं कि नोट करने में शायद त्रुटियां हुई हों।
विगत के बंगाली समाज के कार्य और रुचियों में उत्कृष्टता की बात करते हुये वे आजकल आये गिराव की भी बात करने लगे श्री लाहिड़ी। संगीत की जानकारी और रुचि दोनो का ह्रास होता जा रहा है। अपने समारोहों में कानफोड़ू डीजे बजाने का प्रचलन धीरे धीरे करते जा रहे हैं लोग। वाद्य यंत्रों की बजाय सीडी और पेन ड्राइव का प्रयोग करने लगे हैं संगीत के लिये। ….
प्रतुल लाहिड़ी जी से मैं मूलत: बंगाली लोगों के गोरखपुर में बसने के विषय में जिज्ञासा ले कर गया था। पर जैसा लगा कि उनका रुंझान (या जुनून या पैशन) उनके पुरातात्विक और सामाजिक क्षेत्र के कार्यों में है। उनके बारे में जिस बारीकी और विस्तार से उन्होने बताया, उससे इस 72 वर्षीय भद्र पुरुष का न केवल मैं प्रशंसक बन गया वरन एक सार्थक जीवन जीने के लिये मुझे रोल मॉडल भी नजर आया। उस बातचीत का विवरण अगली ब्लॉग पोस्ट/पोस्टों में करूंगा।
सुंदर प्रस्तुति।
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