गांव में अजिज्ञासु (?) प्रवृत्ति

गांव में बहुत से लोग बहुत प्रकार की नेम ड्रॉपिंग करते हैं। अमूमन सुनने में आता है – “तीन देई तेरह गोहरावई, तब कलजुग में लेखा पावई” (तीन का तेरह न बताये तो कलयुग में उस व्यक्ति की अहमियत ही नहीं)। हांकने की आदत बहुत दिखी। लोगों की आर्थिक दशा का सही अनुमान ही नहीं लगता था। यही हाल उनकी बौद्धिक दशा का भी था। हर दूसरा आदमी यहां फर्स्ट क्लास फर्स्ट था, पर दस मिनट भी नहीं लगते थे यह जानने में कि वह कितना उथला है। बहुत से लोगों को अपने परिवेश के बारे में न सही जानकारी थी, न जिज्ञासा। कई नहीं जानते थे कि फलानी चिड़िया या फलाना पेड़ क्या है? और वे अधेड़ हो चले थे।

पर निन्दा मनोविलास का प्रमुख तरीका दिखा। लोगों के पास समय बहुत था। और चूंकि उसका उपयोग अध्ययन या स्वाध्याय में करने की परम्परा कई पीढ़ियों से उत्तरोत्तर क्षीण होती गयी थी, लोगों के पास सार्थक चर्चा के न तो विषय थे, न स्तर।

मैने देखा कि बहुत गरीब के साथ बातचीत में स्तर बेहतर था। वे अपनी गरीबी के बारे में दार्शनिक थे। उनमें हांकने की प्रवृत्ति नहीं थी। अगर वे बूढ़े थे, तो वे जवानों की बजाय ज्यादा सजग थे अपने परिवेश के बारे में। उम्र ज्यादा होने के कारण वे ज्यादातर अतीत की बात करते थे और अतीत पर उनके विचारों में दम हुआ करता था। कई बार मुझे अपनी नोटबुक निकालनी पडती थी उनका कहा नोट करने के लिये।

ज्यादातर 25-50 की उम्र की पीढी मुझे बेकार होती दिखी। वे ज्यादा असंतुष्ट, ज्यादा अज्ञानी और ज्यादा लापरवाह नजर आये। बूढे कहीं बेहतर थे। यद्यपि इस सामान्य अनुभव के अपवाद भी दिखे, पर मोटे तौर पर यह सही पाया मैने।

मैं यह इस लिये नहीं कह रहा कि मेरी खुद की उम्र 60 से अधिक है। मैने बच्चे से लेकर बहुत वृद्ध तक – सभी से बिना पूर्वाग्रहों के सम्प्रेषण करने का किया है और जहां (भाषा की दुरुहता के कारण) सम्प्रेषण सहज नहीं हुआ, वहां ध्यान से निरीक्षण करने का प्रयास किया है। सम्प्रेषण और निरीक्षण में मेरी अपनी क्षमता की कमियां हो सकती हैं; नीयत की नहीं।

मेरे बारे में गांव के लोगों में जिज्ञासा यह जानने में अधिक थी कि सरकारी नौकरी में कितनी ऊपरी कमाई होती थी। मुझे नौकरी कितनी घूस दे कर मिली। मैं किसी को नौकरी दिलवा सकता हूं कि नहीं। रेलवे की भर्ती के लिये फ़ार्म भरा है, कैसे कुछ ले दे कर काम हो सकता है। किसी में यह जिज्ञासा नहीं थी कि एक सरकारी अफसर (मेरे अफ़सरी के बारे में वे जानते थे, इस क्षेत्र में कई बार रेलवे के सैलून में यात्रा की थी मैने, उसका ऑरा उन्होने देखा है) गांव में रह कर साइकिल से भ्रमण करने और छोटी छोटी चीजें देखने समझने की कोशिश क्यों कर रहा है? अगर वह “ऊपरी कमाई” से संतृप्त होता या उसकी प्रवृत्ति धन के विषय में उस प्रकार की होती तो क्या वह यहां आता और रहता?

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उनकी जो अजिज्ञासा (या क्या शब्द होगा इसके समकक्ष – इनडिफ़रेंस – का तर्जुमा) उनकी अपनी दशा, अपने परिवेश के बारे में थी, वही मेरे बारे में भी दिखी। मूलत: ये लोग पर्यवेक्षण और मनन की वह परम्परा कुन्द कर जुके हैं, जिसके बारे में प्राचीन भारत जाना जाता था और जिसकी अपेक्षा मैं कर यहां आया था।

उनका दूसरे के बारे में जानना या सम्बन्ध परनिन्दा की वृत्ति से ज्यादा उत्प्रेरित था। वे शायद बहुत अर्से से घटिया नेता, नौकरशाह, लेखक, शिक्षक आदि ही देखते आये हैं।

जब मैने श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी पढ़ी थी (और बार बार पढ़ी थी) तो यही समझा था कि यह मात्र सटायर है, जीवन का मात्र एक पक्ष या एक कोण है। पर (दुखद रहा यह जानना) कि गांव समाज “रागदरबारी” मय ही है – नब्बे प्रतिशत। गांव को किसी और तरीके से समझना, लोगों को बेनिफ़िट ऑफ़ डाउट देकर क्लीन स्लेट से समझना – यह तकनीक भी बहुत दूर तक नहीं ले गयी मुझे।…

अगर गांव-देहात की कोई आत्मा होती है, तो वह मुझे अभी तक देखने में नहीं मिली। पर अभी मात्र तीन साल ही हुये हैं यहां। फिर से कोशिश, स्लेट पुन: साफ़ कर (बिना पूर्वाग्रहों के) की जा सकती है। मैं वह करूंगा भी। उसके सिवाय चारा नहीं है। अगर वह नहीं करूंगा तो मेरे अन्दर यहां आकर रहने की निरर्थकता उत्तरोत्तर और गहरायेगी।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “गांव में अजिज्ञासु (?) प्रवृत्ति

  1. आप मुझे गांव में बसने के लिये उकसा रहे हैं ! बहुत कुछ करने को है गांव में भी !

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  2. yah sahi likha hai apane, mujhe ao bahut pasand hai bhaiyo ke batavare me ao ki jamin jayadat sab bat kar bade bahi ke hisse chali ayi aur unhone sab becha dala/ mai pane dosto ke ao me jata hu aur mujhe ramin parivesh bahut achcha laata hai /

    agar apako bharatiya parampara aur bharatiy darshan aur bharatiyata ko dekhana smajhana hai vah apako abhi bhi aon me milegi

    mai kanpur shahar me hu aur yaha to ajkal ke naujavan aur naye logo ko pata hi nahi ki samanya shishtachar kya hota hai jabaki isake ulat gao me abhi bahut kuchch baki hai aur surakshit hai

    mai apane dosto ke gaon me jata hu aur gramin parivesh ka jamakar lutf uthata hu

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