हम लोग पिताजी को लेकर पुनः अस्पताल (Surya Trauma Center and Hospital) में हैं. छ दिन हुए जब वे यहां से डिस्चार्ज हुए थे. कल उन्हें रूटीन चेक अप के लिए लाए. हालत अच्छी तो नहीं थी. लगभग सेमी – कोमा (यह शायद नॉन तकनीकी शब्द है) की दशा.
चेक अप में उन्हें पुनः संक्रमण ग्रस्त पाया गया. डाक्टर साहब ने कहा कि उम्र और संभावना के चलते दो विकल्प हैं. ओरल दवायें घर पर देते हुए चलाना या पुनः अस्पताल में रखना. दोनों दशा में मिरेकल (miracle) की अपेक्षा करना निहित है. हम ने अस्पताल की शरण बेहतर समझी.
एमरजेंसी वार्ड में दो-तीन रेजिडेंट डाक्टर हैं. पिछले बार से उनके चेहरे पहचान में हैं. उनसे बातचीत बहुत ज्यादा नहीं हुई थी. पर उनकी दक्षता और कार्य के प्रति प्रतिबद्धता (commitment) प्रभावित करती थी.
कल उनमें से एक, आलोक जी से मैंने यूं ही पूछ लिया – आप लोग इस जगह इतनी लंबी ड्यूटी करते हैं. तरह-तरह के मरीज और उनके तरह-तरह की व्याधियों और तकलीफ़ों से पाला पड़ता है. इस दशा में अपना सेंस ऑफ ह्यूमर कायम रख पाते हैं?
आलोक जी ने बहुत सोच कर उत्तर दिया – “लोगों की दशा असर तो करती है (कम से कम मेरी) सोच पर. कई बार लगता है कि (इतने कष्टों के साथ) जिंदगी है किस लिए? अपने को मरीजों की दशा में रख कर भी विचार आते हैं…”
फिर जो आलोक जी ने कहा, वह मोटे तौर पर जिंदगी के बड़े ध्येय, और अपनी लीगेसी (legacy, अपनी थाती) की बात लगती है. बोले – “लगता है, कुछ ऐसा करें जो लोगों की खुशी में बढ़ोतरी करे.”
वे अपने को लोगों की खुशी के लिए लगाने की बात कहते हैं. यह बड़ी नोबल और पवित्र सोच है. सामन्यतः लोग इस स्तर पर नहीं सोचते, बोलते, बतियाते.
कुछ समय बाद अपने-आप वे मेरे पास आ कर बोले -” आप शायद जानना चाहें शिव ब्रत लाल बर्मन जी (1860-1939) के बारे में. यहां से 22 किलोमीटर दूर उनका स्थान है. उन्होंने भी इसी प्रकार के विषयों पर लिखा, कहा है.”
वहीं एमरजेंसी वार्ड में खड़े खड़े मैंने शिव व्रत लाल जी को सर्च किया. पाया कि राधा स्वामी सम्प्रदाय के संत थे वे. महर्षि जी के नाम से विख्यात. उनकी अनेक पुस्तकों की लिस्ट है विकीपीडिया पर.
नेट पर उपलब्ध सामग्री के अनुसार शिव व्रत लाल वर्मन जी ने ऐसे विषयों पर लगभग 3000 किताबें/पुस्तिकायें लिखी हैं. राधा स्वामी मत के वे वेदव्यास के रूप में विख्यात हैं. इसी इलाके (भदोही) के व्यक्ति थे वे.
डा. आलोक जी से बात होने पर लगा कि जैसा श्मशान वैराग्य होता है, उसी तरह एक वैराग्य एमरजेंसी वार्ड का भी होता है. सेंसिटिव लोग (और डाक्टर भी) उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते.
अस्पताल का गहन चिकित्सा कक्ष – कभी आप वहाँ जाएं किसी मरीज की तीमारदारी में – तो कुछ समय के लिए उस वैराग्य को देखने, सूंघने और महसूस करने का प्रयास कीजिएगा. व्यक्तित्व को कुछ बेहतर ही बनाएगा वह. आलोक जी से यह छोटी सी बातचीत आश्चर्य जनक भी लगी और अच्छी भी!
डा. आलोक, इमर्जेंसी वार्ड में मेरे पिताजी को पुनः भर्ती करते समय