यहां बे मौसम आंधी, तूफ़ान, बारिश से किसान के हालत बेहाल हैं। इस बार अतिवृष्टि से उड़द, मूंग जैसी दलहन की फ़सल बेकार हुई और खेतों में पानी लगा होने से धान की कटाई भी नहीं हो पायी। गेंहूं की बुआई भी पिछड़ गयी।
अब रबी की फ़सल में जो भी अनाज तैयार है उसे जल्द से जल्द स्टोर करने में सब व्यस्त रहे हैं। गेंहू तो लोगों ने बचा लिया है, पर भूसा, जो गाय-गोरू के लिये अत्यन्त आवश्यक है, आंधी-पानी से बरबाद हो रहा है।
जया बिना किसी पूर्व तैयारी के, दस पन्द्रह लोगों का भोजन प्रबन्ध करने में काफ़ी कुशल हैं। और गुणवत्ता में वह किसी पांचसितारा प्रबन्ध से कम नहीं होता।
मेरे भाई शैलेन्द्र दुबे के घर के सामने भी लगभग महीने भर उसका खलिहान लगा था। मेरी भाभी – जया दुबे, अनाज सहेजने के लिये हर साल दो महीना यहां बिताती हैं। उनकी व्यस्तता इस साल देखते ही बनती थी। दो दिन पहले ही वे खलिहान सफरने पर काम से फ़ुर्सत पा सकीं। उन्होने मेरे बेटे से सलाह करने के अन्दाज में कहा – अब दम मारने की फ़ुर्सत मिली है। मौसम भी अच्छा है। गर्मी ज्यादा नहीं है। ऐसे में दाल-बाटी का इन्तजाम होना चाहिये। नहीं?
जया -शैलेंद्र के खलिहान में रखी सरसों की फसल। घर केेसामने ही लगता है उनका खलिहान ।
जया बिना किसी पूर्व तैयारी के, दस पन्द्रह लोगों का भोजन प्रबन्ध करने में काफ़ी कुशल हैं। और गुणवत्ता में वह किसी पांचसितारा प्रबन्ध से कम नहीं होता।
आजकल लॉकडाउन है तो गांव के इस परिसर में हम दो ही परिवार हैं। बनारस से मेरे दो अन्य भाई और उनके परिवार नहीं आ सकते। अकेले अकेले, बन्द बन्द जीवन में कुछ भी नया करने से व्यक्ति आराम और सुकून महसूस करता है। इस सुकून के गहन अहसास के लिये जया ने बाटी-चोखा की उत्तम व्यवस्था की।

बाटी एक ऐसा भोजन है जो आपको आपकी जड़ों से जोड़ता है। अमृत लाल वेगड जी अपनी अनूठी पुस्तक “सौंदर्य की नदी नर्मदा” में नर्मदा परिक्रमा के दौरान बाटी बनाते कहते हैं – बाटी प्रकृति है, रोटी संस्कृति है, और पूड़ी विकृति है।
जया का बाटी आयोजन, वह भी गांव के प्राकृतिक वातावरण में, प्रकृति से जुड़ाव को पुख्ता करने का प्रयास था। बरबस मुझे वेगड़ जी की नर्मदा परिकम्मा की याद हो आयी। अमृतलाल वेगड़ जी के पास नर्मदा यात्रा के दौरान सहयात्रियों (और बाटी बनाने वालों) की एक टीम हुआ करती थी। यहां भी अर्पित और कट्टू ने उपले सुलगा कर, खुले आसमान तले बाटी बनाई।
वेगड़ जी की पुस्तक से - अंगार पर गाकड़ सिकते देख मुझे लगा कि प्रकृति के बीच रहने वाला आदि मानव अपने खाद्य पदार्थ इसी प्रकार भून कर खाता होगा। थोड़ी अतिशयोक्ति करके हम कह सकते हैं कि गाकड़ प्रकृति है, रोटी संस्कृति है और पूड़ी-परांठे विकृति हैं।
बाटी
बढ़िया मौसम, खुले आसमान के नीचे एक बड़े तख्त के इर्दगिर्द बैठ कर दाल-बाटी-चोखा-सलाद-चटनी और नैसर्गिक सुगंध वाले चावल का भोजन करना किसी भी बड़े रेस्तरॉं के केण्डल लाइट डिनर से बेहतर ही रहा होगा, कमतर तो किसी भी प्रकार से नहीं!
यह महसूस ही नहीं हो रहा था कि हम लोग लॉकडाउन में फ़ंसे हैं। बल्कि, खलिहान निपटने के बाद किसान के घर जो उत्सव जैसा आनन्द होता है; वह हम सब ने अनुभव किया।
कुछ दिनों पहले ही वेगड़ जी की पुस्तक पढ़ी, बेहतरीन|
आनंद आ गया, कुछ मित्रों को रिकमेंड की |
LikeLike
गांव में “खेत खलिहान” एकाकार थे पर आधुनिक मशीनों के काल में खेतों में ही अनाज सफर कर ( तैयार होकर) घर के बड़े बड़े ड्रूमो में (आधुनिक बखारो) में अदृश्य हो चुके है । धीरे धीरे खेत से खलिहान गायब हो जा रहे ।
LikeLike