मई 19, 2050, विक्रमपुर, भदोही।
आज की शुरुआत खराब खबर से हुई। गांव के तीन लोग रात में शराब की तलाश में अपना ऑटो ले कर गये थे। पास के किसी दुकान से शराब ली, घर आ कर खाया-पिया और शराब कम पड़ गयी तो ऑटो से फिर लेने गये। वापसी में स्टेशन के पास तेज चाल से ऑटो चलाते आये और एक खड़ी ट्रक में घुसते चले गये। तूफानी; जिसका ऑटो था, मर गया। उसका शरीर ट्रक में बुरी तरह फंस गया था। किसी तरह से उसे लोगोँ ने निकाला और अस्पताल ले गये। वह बचा नहीं। दो अन्य को बहुत चोटें आयी हैं। खबर सुग्गी ने दी। उसके बाद बसंत आये। बसंत हमारे कपड़े प्रेस करते हैं। उस समय हमारे लिये दूसरी बार चाय बनी थी तो उनको एक कप चाय ऑफर की गयी। बैठ कर बसंत ने भी यही बताया।

तूफानी से कष्ट था बसंत को। उनकी बहट (बहक) गयी गाय को तूफानी ने अपने यहां बांध लिया था। वापस नहीं किया। बसंत ने आसपास बहुत तलाशा, पर अंत में वह तूफानी के घर मिली; बारह दिन बाद। बसंत ने बारह दिन गाय के खिलाने का हर्जाना भी ऑफर किया, एक भूतपूर्व प्रधान और वर्तमान प्रधान को गुहार भी लगाई पर वापस नहीं दी तूफानी ने। बोला; जब बियाई जाये, तब देब (जब बच्चा जन देगी, तब वापस करेगा)। “अब ऊ @*&%# खुदई चला गवा ऊपर।”
बसंत बहुत सभ्य व्यक्ति है। उनपर एक पहले की ब्लॉग पोस्ट भी है। कभी गाली देते नहीं पाया बसंत को। आज उनके मुँह सेे सुनने में आयी। वह भी मृत व्यक्ति के बारे में। मरा भी वह शराब पी कर दुस्साहसी तरीके से ऑटो चलाते हुये।
सवेरे साइकिल सैर में आज भी प्रवासी जाते दिखे हाईवे पर। मेरे पास से दो-तीन ट्रक गुजरे जिनमें तिरपाल लगा था और प्रवासी मजदूर चलती ट्रक से झांक रहे थे – उसी प्रकार जैसे नेवले अपनी बिल से मुंह निकाल झांकते हैं। एक जगह दो व्यक्ति हाईवे की रेलिंग के साथ बैठे खीरा खा रहे थे। उनकी साइकिलें उनके पास थींं और साइकलों पर वे सामान भी लादे हुये थे। मुझे लगा कि ये भी घर लौटते प्रवासी होंगे। उनके पास से मैं चलता चला गया, पर कुछ सोच कर उनसे बातचीत करने वापस लौटा। वे वास्तव में प्रवासी निकले।

उनके कपड़े गंदे हो गये थे। स्नान करने को भी शायद नहीं मिला होगा। बताया कि छ दिन से चल रहे हैं। उनमें से एक, टीशर्ट पहने जवान, अजमेर से चला था और चंदौली के आगे जमानिया जाना है। दूसरा भी राजस्थान से है और छपरा जाना है। उसके नाना बनारस में रहते हैं। रेलवे में हैं। अभी वह उनसे मिलने जायेगा और वहां विश्राम कर आगे छपरा के लिये निकलेगा। वे दोनो पहले के साथी नहीं हैं। रास्ते में एक दूसरे के सहारे के लिये एक साथ हो लिये हैं।
मैंने पूछा – साइकिल से क्यों निकले? ट्रक भी तो जा रहे हैं।
उत्तर टीशर्ट वाले ने दिया। दोनों में वह ज्यादा प्रगल्भ था। बोला कि ट्रक की बजाय साइकिल कहीं ज्यादा सेफ है। “एक बार एक ट्रक तो लहराता हुआ मेरी खड़ी साइकिल को रगड़ता चला गया था। ट्रक वाला या तो नींद के कारण या नशे में चल रहा था। आगे भी वह ट्रक सांप की तरह लहराता जाता दिखा। मुझे कोरोना-वोरोना का डर नहीं। पर ट्रक चलाने वालों पर भरोसा नहीं। साइकिल कहीं ज्यादा सुरक्षित है।”
दूसरे ने बताया कि एक ट्रक तो उसके सामने ही तेज चाल से चलता पलट गया था। उसके बारे में तो अखबार में भी बड़ी खबर छपी थी (शायद वह उन्नाव में कल की घटना की बात कर रहा था, जिसमें ट्रक का पहिया निकल गया था और ट्रक लुढ़क गया था)।
मुझे लगा कि ट्रक, जिसमें साठ-सत्तर आदमी ठुंसे चलते हैं, अगर एक भी कोरोना पॉजिटिव हो तो यात्रा करते करते दो-चार दिन में बाकी सब पॉजिटिव हो ही जायेंगे। ट्रक, एक तरह से कोरोना बम हैं। कोरोना संक्रमण फैलाने के सबसे लीथल हथियार। कोविड19 विषाणु के सबसे बड़े मित्र हैं ये ट्रक। साइकिल से यात्रा, भले ही कष्टदायक हो, ज्यादा सुरक्षित है – यातायात के कोण से भी और संक्रमण के कोण से भी।
दोनो अपने साइकिल से निकलने चलने को सही ठहरा रहे थे। लम्बी यात्रा पर निकल लिये थे तो कोरोना संक्रमण का भय उन्होने मन से झटक दिया था। वह भय रहा होता तो शायद वे यात्रा पर निकलते भी नहीं। पर चलते चलते किसी सड़क दुर्घटना में न फंस जायें, यह ख्याल उनके निर्णय को प्रभावित कर रहा था।
वे अपने सहारे चल रहे थे और यह बताते हुये कि रास्ते में उन्हे किसी ने न पूछा, न रोका; कोई मलाल भी न था (कि कोई सहायता नहीं मिली)। कहीं भोजन भण्डारा तलाशने का उनका ध्येय नहीं था। शायद वे रास्ते में पैसा दे कर जो कुछ भी मिल जा रहा था, वह खा कर गुजारा करने की बात अपने मन में बिठा चुके थे। शुरुआती दौर में निकले बदहवास पलायन करने वालों से ये कहीं ज्यादा तैयारी के साथ निकले लोग थे।
फिर भी; मुझे लगा कि सरकार ने अगर बसें इंतजाम कर दी होतीं, तो बहुत सही रहता। सरकारों ने कुछ किया ही नहीं। अब भी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रोज कह रहे हैं, कड़े आदेश जारी कर रहे हैं, पर उसका पालन होता दिखता नहीं। कांग्रेस की नेत्री हजार बसें उत्तरप्रदेश को देने की राजनैतिक नौटंकी कर रही हैं; पर उन्ही के राज्य राजस्थान से ये सवार छ दिन से साइकिल के टायर घिस रहे हैं। अगर ये राजनेता सही में कुछ करते तो अब तक इन लोगों को भोजन-पानी मिल चुका होता और किसी डक्टर ने इनें देख लिया होता या ये किसी बस में बैठ अपने अपने घर पंहुच गये होते अब तक! पर ये बेचारे तो पर्सोना-नॉन-ग्राटा हैं। फेसलेस आदमी। इन्हें तो सरकारें आंकड़े मान कर चल रही हैं!
दोनो साइकिल सवारों से अनुमति ले कर मैंने उनकी तस्वीरें लीं। टीशर्ट वाले ने जोर दे कर कहा – “इनको इण्टरनेट पर डाल दीजियेगा, अंकल जी।” मैंने उनसे कहा कि अगर उनके पास समय हो तो वे मेरे घर चल सकते हैं। वहां स्नान – नाश्ता कर निकल सकते हैं। उन्होने नम्रता से मुझे मना कर दिया। “अंकल जी, जितने में आपके घर पर होंगे, उतने में हम बनारस तक पंहुच जायेंगे।”
लोगों से जो बात हुई है, उसमें लोग योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री को दोष नहीं दे रहे। मुख्यमंत्री ने तो अपनी सोच स्पष्ट कर दी है। समस्या नौकरशाही का जिला/तहसील स्तरीय तबका है। इसकी कान में जूं ही नहीं रेंग रही। “वर्ना तहसील का एसओ और एसडीएम राजा होते हैं। जो चाहे कर सकते हैं या करवा सकते हैं। नहीं करते तो सीएम हर जगह डण्डा लेकर खड़ा तो नहीं हो सकता।”
घर से निकलते हुये मुझे पगडण्डी पर बैठा एक वृद्ध दातुन कर अपना मुंह धोता दिखा। एक लोटे से पानी ले कर वह यह कर रहा था। कोरोना के संदर्भ में बार बार हाथ धोने को कहा जाता है। अधिकांश लोगों को स्वच्छ जल या जल सप्लाई का नल ही मयस्सर नहीं है। बार बार बीस सेकेण्ड वाला हस्त प्रक्षालन का अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है जब नल का पानी ही उपलब्ध नहीं। मैंने रास्ते चलते यह सोचा। पर बहुत से इस प्रकार के प्रश्नों की तरह इसका भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। तुम ज्यादा ही, और ज्यादा फालतू की सोचते हो, जीडी।

घर लौट कर मैंने लोटा भर पानी ले कर हाथ साबुन से धोने की क्रिया की। हाथ धो तो लिये पर मन में बना रहा कि नल के पानी की बजाय लोटे से धोने में अगर विषाणु हों, तो पूरी तरह प्रक्षालित नहीं होंगे। कुछ तो लोटे में चिपके रह ही जायेंगे। लोगों को रनिंग वाटर न होने पर भी बार बार हाथ धोने के लिये कहना शायद उतना प्रभावी नहीं है। शायद उतना पानी न होने के कारण ही लोग शौच के लिये खेत में जाते हैं।
घर में मेरी पत्नीजी तूफानी की ट्रक से टक्कर में मौत से ज्यादा व्यथित थीं और मैं प्रवासी लोगों की दशा से व्यथित था। हम दोनो अपनी अपनी व्यथा को ज्यादा बड़ा बताने के लिये एक बार तो उलझ गये। मेरी पत्नीजी बार बार कहती रहीं कि कितना भी दुष्ट हो, तूफानी था तो मानव ही। मेरा कहना यह है कि प्रवासियों की त्रासदी कहीं बड़ी और हृदय को कचोटने वाली है। यह मानव की मानव के प्रति असंवेदित व्यवहार की पराकाष्ठा है। अव्वल तो उन्हें जहां थे, वहीं रोकने के लिये सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करनी थी, और वह अगर नहीं था तो उन्हें घर भेजने की प्रक्रिया में आधे मन से निर्णय और इंतजाम नहीं करने चाहियें थे। खैर, इस विषय में डिबेट गांव के स्तर पर नहीं, राष्ट्र और विश्व के स्तर पर चलती रहेगी।