मई 18, विक्रमपुर, भदोही।
ट्रेक्टर ट्रॉलियाँ ज्यादा नजर आने लगी हैं। शायद लॉक डाउन में दी जा रही ढील के कारण है।
मेरे घर से नेशनल हाईवे तक करीब 800 मीटर की सड़क है और उसमें एक रेलवे फाटक भी है। इस सड़क पर करीब 8-10 ट्रेक्टर ट्रॉलियां आती जाती दिखती हैं। हाईवे की ओर वे गंगा बालू और खेतों से निकाली मिट्टी ले कर जाती हैं और वापसी में खाली ट्रॉली को दौड़ा कर लोड करने की होड़ रहती है। ट्रॉलियां ज्यादा दिखने से कच्ची सड़क पर धूल भी ज्यादा उड़ती है। पहले कई सप्ताह तक एक भी ट्रेक्टर ट्रॉली नहीं नजर आयी। अब उनकी लाइन लगी है। धूल और रेत से प्रदूषण होने लगा है।

ट्रॉलियां चल रही हैं, गर्दा (धूल) उठ रहा है, प्रदूषण हो रहा है – यानी अर्थव्यवस्था पटरी पर आने लगी है।
ट्रेक्टर ट्रॉली मुझे बहुत असुरक्षित यातायात नजर आता है। मैंने अधिकतर बार अपना रास्ता बदल दिया है। इस सड़क पर चलने की बजाय घूम कर तीन अन्य गांवों से गुजरते हुये और डेढ़ किलोमीटर ज्यादा साइकिल चलाते हुये हाईवे पर पंहुचता हूं। मुझे रास्ता लम्बा होने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। मेरा कोई गंतव्य नहीं होता। मेरा तो ध्येय 10-12 किमी साइकिल चलाना होता है, वह चाहे जहां चले। साइकिल चाहे जिधर ले जाये मुझे। यत तय है कि ट्रॉलियां मुझे अच्छी नहीं लगतीं। लॉकडाउन काल की खाली और धूल रहित सड़कें बेहतर लगती हैं। धूल बहुत खराब लगती है। यही कारण है कि एन95 मास्क मैंने कोरोनाकाल में नहीं आजसे दो साल पहले खरीदे थे, जो आज काम आ रहे हैं।
खैर, वैसी धरती और वैसी सड़कें किसे नहीं अच्छी लगती होंगी? पर जीडी, तुम औरों को अपने जैसा समझने की भूल, एक रोमांटिक भूल कई बार करते हो। कई बार खुद से भी लुकाछिपी खेलते हो। ऑफ्टर ऑल तुम भी सुविधा चाहते हो। वैल्डनपॉण्ड की तरह जीवन काटने की कई बार सोचते हो, पर तुम्हें मड़ई में एयरकण्डीशनर की याद आती है। कई दूसरों की तरह तुम भी दिखाने और होने का अंतर जानते हो, और उसे नकारने का (अ)सफल प्रयास भी करते हो।
आज; कोरोनावायरस को लेकर जो भय कल जन्मे थे; उनका विस्तार हुआ। कई बार लगने लगा कि गले में खराश है। उस चक्कर में चाय भी ज्यादा पी। चाय बनाने में लेमन ग्रास भी ज्यादा डाला और अदरक भी। काली मिर्च जो चुटकी भर डाली जाती थी, आज डेढ़ चुटकी डाली। यह गले में खराशिया सिण्ड्रॉम बहुत से लोग, बहुत बार व्यक्त करते हैं आजकल बातचीत में। शायद मैने भी उन्हीं की बातचीत से पिक-अप किया हो। पर यह जरूर है कि आज रात बिजली अनवरत आयी और कूलर अनवरत चलता गया। उसे रात में कभी मैंने या पत्नीजी ने उठ कर बंद करने का उपक्रम नहीं किया।
पूर्वांचल में प्रवासी आये हैं बड़ी संख्या में साइकिल/ऑटो/ट्रकों से। उनके साथ आया है वायरस भी, बिना टिकट। यहां गांव में भी संक्रमण के मामले परिचित लोगों में सुनाई पड़ने लगे हैं। इस बढ़ी हलचल पर नियमित ब्लॉग लेखन है – गांवकाचिठ्ठा https://gyandutt.com/category/villagediary/ |
आज डेलिह्वरी का कुरियर आया था – नरेंद्र मिश्र। उनपर मैंने एक दो फेसबुक की और एक ब्लॉग की पोस्ट लिखी हैं। नरेंद्र भाजपाई विचार धारा वाला है। भदोही का। अपने घर के चित्र दिखा रहा था मोबाइल पर एक बार। शानदार मकान है और बागवानी भी अच्छी की है उसने। कुरियर के रूप में नरेंद्र मेरे लिये गांव में रहते हुये महत्वपूर्ण हैं। उसके अलावा बातचीत में ट्यूनिंग भी अच्छी है।
नरेंद्र ने बताया कि एक आदमी, अकेला, बम्बई से आया और सुरियाँवा स्टेशन पर उतरा। उसे अपनी तबियत खराब महसूस हुई। ऑटो पकड़ कर वह घर जाने की बजाय सीधे अस्पताल गया और अस्पताल से अस्पताल ही ट्रांसफर हो पाया। घर के समीप होने पर भी घर नहीं पंहुच सका। मर गया।
प्रवासी लोग आ रहे हैं, जूथ के जूथ आगमन हो रहा है। कुछ कोविड संक्रमण, कुछ यात्रा की थकान, कुछ मानसिक टूटन और कुछ भय – लोग बीमार पड़ने और असमय जल्दी से मरने लगे हैं। दो तीन मामले सुन लिये मैंने। चीजें तेजी से खराब हो रही हैं। पता नहीं, क्या यह तुम्हारा भ्रम है जीडी। ऑफ्टर ऑल 64+ के हो गये हो। उम्र के गणित से सठिया तो कई साल पहले गये थे।

अक्षयपात्र वाले मित्रगण अपने ह्वाट्सएप्प पर वीडियो और चित्र शेयर कर रहे हैं। आज ज्यादा भीड़ भड़क्का वहां शिवाला पर शायद नहीं है। मोहित का कहना है कि अगर लोग ज्यादा नहीं हुये और जल्दी वाइण्ड-अप करने का समय मिला तो बाटी-चोखा का प्रोग्राम होगा शाम के समय। उस समय मुझे आमंत्रित करेगा। दाल-बाटी मुझे अच्छी लगती है। कोई भी डिश जो थोडी कड़ी हो, प्रिय है। बाटी हो और साथ में गाढ़ी दाल, जिसे पीने में मात्रा की बंदिश न हो, उससे बेहतर कोई भोजन नहीं। इस समय, जब मन वैसे मायूस मायूस सा है, यह सामुहिक भोजन स्पिरिट को अप-लिफ्ट कर सकता है। कल भी जया (मेरे साले साहब की पत्नी) ने यही आयोजन किया था।
खैर, शाम को मोहित से बात नहीं हो पाई। पर पता चला कि श्रमिक आये नहीं। बनाया भोजन बर्बाद हुआ। शिवाला के सामने सर्विस लेन बनाने के लिए जमीन भी खुद रही है। शाम तक उनका ह्वाट्सएप्प पर कोई पोस्ट भी नहीं थी। अगले दिन भंडारा न चलाने का निर्णय हुआ है, यह पता चला।
दिन गरम था। अब आगे दिन पछुआ हवा और तेज होगी। शायद लू का भी असर दिखे। वैसे यह कहना कि कोरोना वायरस तेज गर्मी में निष्प्रभावी हो जायेगा, लगता नहीं कि ज्यादा आशा उत्पन्न करता है। इस सिद्धांत को बढ़ाने वाले और ज्योतिष के आधार पर कयास लगाने वाले आजकल बैकफुट पर चले गये हैं। एपिडमोलॉजिस्ट भी अपनी थ्योरियाँ दे दे कर थक चुके हैं। आजकल तो घर वापसी करते और घेलुआ में कोरोना लाते श्रमिकों की कथा ही जोरों पर है। “फलाने गांव में फलाना पॉजिटिव निकला या फलाना बीमार हुआ, मर गया” जैसी कथायें ज्यादा कही सुनी जा रही हैं।
मैं,सामान्यत: अखबार में स्थानीय खबरों का पन्ना बिना पढ़े पलट दिया करता था, वह अब तय किया है कि कल से पढ़ा करूंगा। कम से कम कोरोना विषयक खबरें। दूसरे बीते कल से मैंए एक पन्ने पर नित्य के कोरोना केसेज के प्रयाग, भदोही, वाराणसी, जौनपुर, गाजीपुर और मिर्जापुर के आंकड़े लिखने लगा हूं। अगले महीने भार में खुद आकलन करूंगा कि इन जिलों में कितने दिन में मामले दुगने हो रहे हैं। यह कर के अपने आसपास से ज्यादा परिचित होने का प्रयास करूंगा। आखिर कोरोना संक्रमण से अब स्थानीय स्तर पर दो-चार होने का समय आ गया है। अब यह अन्य राष्ट्रों या अन्य बड़े शहरों की बीमारी भर नहीं रही। अब यह स्थानीय बीमारी है।
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