मध्यकाल से लोग कलात्मकता को नकारते रहे हैं इस इलाके में

मेरे स्वर्गीय पिताजी कहते थे कि कार्पेट घास का लॉन अच्छे कालीन से ज्यादा महंगा पड़ता है। हमने भदोही में रहते हुए भी कभी कालीन खरीदने की हिम्मत नहीं जुटाई। पर राम सेवक जी घर के एक छोटे हिस्से में कार्पेट घास लगा रहे हैं।

#गांवदेहात में अटपटी बात!

राम सेवक ढाई सौ वर्ग फुट के इस हिस्से में कार्पेट घास लगा रहे हैं।

मेरे घर के पीछे के खेत में महिलाएं घास छीलने आती हैं। उनमे से एक यह घास रोप रहे राम सेवक को देखती रही। फिर मेरी पत्नीजी से बोली – ई काहे लगवावत हऊ। तोहरे लगे त कौनऊ गाय गोरुऔ नाहीं बा (तुम्हारे पास तो कोई पशु भी नहीं हैं। यह घास क्यों लगवा रही हो?)।

यहाँ सुरुचि, सौंदर्यीकरण आदि का कोई अर्थ नहीं। फूल लोग उतने ही लगाते हैं, जितने देवी जी को चढ़ाने को जरूरत हो। उसमें भी डेल्हिया या गुलदाउदी नहीं, कनेर का एक झाड़ ही काफी है। घास का लॉन तो कोई मायने नहीं रखता।

अच्छे संपन्न परिवार की महिलाओं को अल्पना रंगोली बनाने का शऊर नहीं है। खुद की कंघी पट्टी का भी सौंदर्य बोध नहीं। पूर्वांचल भदेस है, rustic.

मेरी पत्नी जी कहती हैं कि उनके बचपन में लड़कियां आईने में मुंह देखती थीं, तो मांयें कहती थीं – क्या दिन भर मुंह निहारती है, पतुरिया की तरह। स्त्रियों के सजने संवरने को वैश्या से जोड़ दिया जाता था। वही जड़ सोच किसी न किसी रूप में आज भी विद्यमान है।

मेरी पत्नी जी कहती हैं कि उनके बचपन में लड़कियां आईने में मुंह देखती थीं, तो मांयें कहती थीं – क्या दिन भर मुंह निहारती है, पतुरिया की तरह।

मध्य काल में औरतों को पर्दे में बंद कर इस गांगेय प्रदेश ने जीवन के कला बोध भोथरे कर दिये हैं। आदमी भी वैसे ही हो गए हैं – चिरकुट।

बंगाल और दक्षिण कहीं बेहतर हैं इस मामले में।

बंगाल और दक्षिण कहीं बेहतर हैं इस मामले में।

मध्य काल के मुस्लिम आक्रमण ने इस इलाके को कछुए सा बना दिया है। सिकुड़ गई है लोगों की कलात्मकता। उसके कुछ द्वीप भर बचे हैं।

मझवाँ की जगत नर्सरी – यह थोड़े बहुत स्थानों में है जो कलात्मक सोच को पुष्ट करती है।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “मध्यकाल से लोग कलात्मकता को नकारते रहे हैं इस इलाके में

  1. सही कहा आपने। कला और साहित्य को उत्तर भारत में वक्त की बर्बादी ही समझा जाता है। यह शायद इसलिए भी है कि यहाँ आर्थिक संपन्नता कम है। लोग उन चीजों को ज्यादा तरजीह देते हैं जिससे रोटी का जुगाड़ हो सके। जैसे जैसे सम्पन्नता आती है वैसे वैसे कलाबोध भी जागता है। उस पीढ़ी में न भी जागे लेकिन अगली पीढ़ी में जागता है।

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