मैं अपने खर्चे समेटने की जद्दोजहद कर रहा हूं। जब यहां (गांव में) आया था, तब कुटिया बनाना चाहता था। एक कुटिया, साइकिल, भ्रमण, अध्ययन और मनन/लेखन – यही चाह थी। पर कुटिया की बजाय दस बिस्वे जमीन में रेलवे के बंगले का क्लोन बन गया। और रेलवे का रहन सहन भी धीरे धीरे पसरता गया। रहन सहन के अपने खर्चे होते हैं। यद्यपि मुझमें या परिवार में गलत आदतें नहीं थीं, पर फिर भी खर्च तो होते ही हैं। अपनी आवश्यकताओं को समेटना कठिन है। अपने मन को साधना कितना कठिन है!

उस दिन श्री सूर्यमणि तिवारी ने बिहारी सतसई का एक दोहा अपनी वृत्तियां समेटने के संदर्भ में कहा था। उसे नोट नहीं कर पाया तो आज उनसे फिर पूछा –
बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु मन-सरोज बढ़ि जाइ।
घटत-घटत सु न फिरि घटै बरु समूल कुम्हिलाइ॥
धन रूपी जल के बढ़ने से मन रूपी कमल (पढ़ें वासनायें या खर्च) बढ़ता जाता है। पर जल कम होने पर वह कमल छोटा नहीं हो जाता। अंतत: कुम्हला जाता है या नष्ट हो जाता है।
[बड़ा ही नायाब ग्रंथ है बिहारी सतसई। सतसैया कै दोहरे अरु नावकु कै तीर। देखत तौ छोटैं लगैं घाव करैं गंभीर॥]

पूरा विश्व बिहारी सतसई के इस दोहे की कमल या जलकुम्भी वृत्ति का शिकार है। परिवर्तन के साथ सामंजस्य बिठाना बहुत कठिन होता है और आज के युग में जब परिवर्तन विस्फोटक गति से हो रहे हैं, परिवर्तन का प्रबंधन बहुत ही दुरुह है। “How to manage change” विषय पर प्रबंधन के अनेक विद्वानों की एक से एक नायाब पुस्तकें हैं। पर सूर्यमणि जी मुझसे कहते हैंं कि समाधान अंतर्मुखी होने, अपनी सोच को इण्टर्नलाइज करने में है। उन्होने कहा – “मेरे गुरुजी कहते हैं कि अपने भौतिक जीवन (बैंक) से एकमुश्त निकासी सम्भव नहीं होती। भौतिक बेंक से एक एक रुपया के हिसाब से निकालो और एक एक रुपया आध्यात्मिक अकाउण्ट में जमा करो।” इस धीमी रफ्तार से व्यक्तित्व का रूपांतरण होगा, अंतत:!
प्रस्थानत्रयी (भग्वद्गीता) में कच्छप वृत्ति की बात कही गयी है –
यदा संहरते चायम् कूर्मोंगानीव सर्वश:। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य: तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (२.५८)
“जिस प्रकार कछुआ सब ओर से जैसे अपने अंगों को जैसे समेट लेता है; वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से अपने को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि को स्थिर मानना चाहिये।”
पर शायद कूर्म की वृत्ति अपनाने की बात भौतिक जगत में मुझसा लिप्त भले ज्ञान बघारने के लिये कर ले, वास्तविकता के धरातल पर सेकुलर बैन्क अकाउण्ट से एक एक रुपया निकाल स्पिरिचुअल बैंक खाते में संग्रह करने से ही वर्तमान की जटिल समस्या का समाधान निकल सकता है।
धीमा संकुचन। आपाधापी के जीवन से वानप्रस्थ और वानप्रस्थ से जनक – वैराग्य! भीड़ में भी वीराने के सहारे जीवन!
मैं सवेरे साइकिल भ्रमण में घर के पास नेशनल हाईवे के किनारे उस दो बीघा जमीन में फैले ताल को देखता हूं। सैंकड़ोंं कमल खिले हैं उसमें। बीच बीच में जलकुम्भी भी है। बहुत मनमोहक हैं वे। पर समय के साथ पटरी नहीं बिठा पायेंगे वे। दो महीने बाद जब जल सूख जायेगा, तब वे भी सूख जायेंगे। वही दशा होगी जो बिहारी जी सतसई में कहे हैं।

बदली परिस्थिति से सामंजस्य न बिठा सकने की दशा प्रकृति में कई स्थानों में दिखती है। आज देखा कि लूटाबीर तट पर गंगा जी का जल कम हो रहा है, पर वह वनस्पति, जो हफ्ता भर पहले तट पर हरी भरी थी, अब हफ्ते भर में ही कंकाल बन गयी है। प्रकृति, जिसमें अनुकूलन (adaptibility) कहीं ज्यादा है, वह भी नहीं संभल पाती तो आदमी, जिसके चरित्र में कितनी कृत्रिमता है, वह कहां से सामंजस्य बनायेगा। उसे तो, बकौल सूर्यमणि जी, एक एक रुपया एक खाते से दूसरे में कर ही आदमी साध पायेगा।
अभ्यास की आदत, संयम और मन पर लगाम लगाने की इच्छा – यही उपाय है। मन का संयम भी नेनो सेकेण्ड का कमाल नहीं है। वह भी अभ्यास से ही आता है। … हे प्रभु, आप कहते जिसे योग हैं; मन है चंचल बड़ा, उसको पाने न दे!
Making the mind sublime, it is not easy by any chance. But it is not impossible, be assured GD!
संयोग से आज ही गडौली/अगियाबीर के वे सज्जन मिल गये। मैं लूटाबीर गंगा तट से लौट रहा था। सड़क के बीचोबीच मेरी साइकिल रुकवा कर अपनी व्यथा सुनाने लगे। उनकी मानसिक अशांति के मूल में उनकी अस्वस्थता और उनकी आर्थिक/पारिवारिक समस्यायें हैं। आर्थिक समस्यायें तो शायद कुछ कड़े निर्णय और बेहतर अर्थ प्रबंधन से दूर हो सकती हैं। पर पारिवारिक और खुद की मानसिक समस्याओं का निदान शायद “सेकुलर बैन्क अकाउण्ट से एक एक रुपया निकाल स्पिरिचुअल बैंक खाते में डालने” वाले तरीके से ही हो सकता है।
मैं उन्हेंं यह सलाह दे सकता था। पर पहले उसपर खुद अमल करने का उपक्रम तो करूं! अपने स्पिरिचुअल खाते को एन-रिच करने का प्रयास तो प्रारम्भ करूं।
आपको पढना अच्छा लगता है ।
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आपकी आज तक की अभिव्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ!!
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