बालू ढोने वाली नाव की वार्षिक मरम्मत

वह बड़ी नाव है। करीब एक लाख की होगी। ज्यादा की भी हो सकती है। साल के छ सात महीने उस पार से इस पार बालू ढोने के काम आती है। वह औंधी रखी थी। उसपर एक ओर काला पेण्ट (अलकतरा) चमक रहा था। देखते ही लगा कि मानसून के महीने में, जब बालू खनन का काम बंद है; नाव का ए.ओ.एच. (Annual Overhaul) किया जा रहा है।

गंगा किनारे औंधी की गयी नाव। इसपर पेण्ट हो रहा है

नाव पूरी तरह नहीं औंधाई गयी थी। बल्लियों और पटरों की मदद से उसे उल्टा उंठगाया भर गया था। इस दशा में रखा गया था कि उसपर आसानी से पेण्ट किया जा सके। गंगा किनारे और कोई व्यक्ति उसपर काम करने वाला नहीं था। मैंने नाव के कई कोणों से चित्र लिये। उसी नाव के पास एक और नाव थी, उसका भी वार्षिक संरक्षण कार्य हो रहा था। उसमें भी काला पेण्ट हो रहा था।

चित्र खींच कर लौटने लगा तो वहीं गंगा किनारे एक पेड़ के नीचे कुछ गांव वाले दिखे। उनके साथ एक कुत्ता भी था। बड़ा जीवंत दृष्य। एक सज्जन ने मुझे अभिवादन भी किया – पालागी पण्डितजी! निश्चय ही वे मुझे जानते होंगे। वे लोगों के इकठ्ठा होने का इंतजार कर रहे थे। करीब बीस बाइस लोग देखते देखते जमा हो गये और वे उस औंधी नाव की ओर बढ़े।

पेड़ की छाया में लोग। बनियान और तौलिया में खड़े हैं ठाकुर साहब

वे सज्जन, कोई ठाकुर साहब हैं। उन्हें मैं पहचानता हूं, यद्यपि उनका नाम नहीं मालुम। उन्होने नाव को सरकाने के लिये आज लोगों को इकठ्ठा किया था। उन सभी ने मिल कर नाव को सीधा किया और दूसरी ओर से उसे टेका दे कर उठाने की कोशिश की। बाईस लोगों का एक साथ काम करना देखना बढ़िया सीन था। टेका दे कर उठाने में वे सफल नहीं हुये, पर जिस दशा में नाव आ गयी, वह नाव के दूसरी ओर अलकतरा लगाने और रंग रोगन करने के लिये पर्याप्त था।

वे लोग नाव को सही पोजीशन नहीं दे पाये, तो मैंने सुझाव दिया – लोगों की बजाय एक दो जैक लगाये गये होते तो काम सुचारू रूप से हो गया होता। पर डीजल जेनरेटर पर रखी सुरती से मुझे लोगों के इकठ्ठा करने का अर्थशास्त्र समझ आया। ठाकुर साहब के लिये गांव के लोगों को जुटाना आसान काम था। उसके लिये दस रुपये की सुरती का ही इंतजाम करना था। लोग काम करने के बाद अपने अपने हिसाब से सुरती उठा कर इधर उधर चले गये। अगर वे हाइड्ररॉलिक जैक का इंतजाम करते तो उसका किराया और डीजल उन्हें कई सौ रुपये का पड़ता। उसकी बजाय दस रुपये की सुरती कहीं सस्ता उपाय था!

ठाकुर साहब ने बताया कि नियमानुसार हर साल नाव बरसात के महीने में (जब गंगा का पानी उतार पर हो, तब) किनारे जमीन पर उतार कर उसपर अलकतरा लगाना चाहिये। उससे नाव में जंग नहीं लगता और उसकी जिंदगी बढ़ जाती है। पर ऐसा हर साल नहीं हो पाता। इस बार भी दो साल बाद यह रंगरोगन हो रहा है।

मैं अपने को काफी खुश किस्मत समझता हूं कि यह सब गतिविधियां मुझे लगभग दैनिक आधार पर देखने को मिलती हैं। यह देखने के लिये शहरी लोग, या विदेशी सैलानी, अच्छी खासी रकम खर्च कर और समय निकाल कर ही अवसर जुटा पाते हैं। कितने लोग रोज साइकिल से गंगा किनारे जा सकते हैं? जो लोग कर भी सकते हैं – वे करते इसलिये नहीं कि उन्हें इस प्रकार की गतिविधि में रुचि नहीं होती। अपने मन माफिक जगह में रहना और निकलना-देखना; यह सब को नहीं मिलता।

… वैसे अगर यह कहूं कि मुझे वह सब मिला जो मैं चाहता था या जिसका अपने को हकदार समझता हूँ, तो वह सही नहीं होगा। मेरी अपनी हताशाएं हैं। अपने खिन्नता के कारक भी। पर जो है, उसपर संतोष भाव लाएं तो लगता है अब जो है, वही मैं चाहता था।

निदा फ़ाजली की पंक्तियाँ याद आती हैं –

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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