गारण्टीशुदा आय प्रयोग पर विचार

अमेरिका के केलिफोर्निया की मध्य घाटी के एक छोटे शहर स्टॉकटन में एक गारण्टीशुदा आय के सम्बंध में एक प्रयोग किया गया। कुल 125 परिवारों को $500 की रकम उनके खाते में हर महीने 15 तारीख को बिना किसी शर्तों के डाल दी गयी। ये परिवार शहर के सामान्य से कम आय वाले परिवार थे। उनमें से दस प्रतिशत के पास तो बैंक खाते नहीं थे। उनको पैसे देने के लिये उनके प्री-पेड डेबिट कार्ड बनाये गये।

पांच सौ डॉलर यानी लगभग अढ़तीस-चालीस हजार रुपये! यह रकम किसी को अमीर नहीं बनाती, पर कम भी नहीं है।

द इकॉनॉमिस्ट के नये अंक का एक पेज

द इकॉनॉमिस्ट के नये अंक में इस प्रयोग पर एक लेख है। इसके परिणाम व्यापक तौर पर सही होंगे या नहीं, वह अभी कहा नहीं जा सकता; पर वे कुछ तो इंगित करते ही हैं। मसलन, लेख में कुछ उदाहरण दिये हैं –

द इकॉनॉमिस्ट के लेख के टेक्स्ट का स्क्रीन शॉट
  • केण्ट ने कहा कि वह यह पैसा मिलने से अपने जॉब को छोड़ कर एक जगह इण्टर्नशिप ज्वाइन कर पाया। उससे वह अंतत: ज्यादा आमदनी वाला काम पाने में सफल रहा।
  • निकोल ने कहा – “मैने पैसा मिलने से अपना समय पढ़ने में बिताया। मैंने कवितायें लिखीं और अपनी माँ से भी मेलजोल रख पाया।”
  • पॉम ने कहा कि उसकी घर चलाने की और घर के छोटे बच्चों की देखभाल करने सम्बंधी व्यग्रता बहुत कम हो पाई। इतनी कम हो पाई कि उसे व्यग्रता की दवायें लेने की जरूरत बंद हो गयी।

इस प्रयोग के समांतर भारत में गांव के स्तर पर कोविड-19 के लॉकडाउन के दौरान व्यापक और नियमित सहायता लोगों को मिली है। लोगों के पास काम नहीं था, पर उन्हें हर महीने राशन और बैंक खातों में पैसा मिला है। उसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ा; उसका भी विधिवत अध्ययन किया जाना चाहिये। यहां गांव में कई लोगों की प्रसन्नता के स्तर में वृद्धि (लॉकडाउन के बावजूद‌) मैंने देखी है। पर उसके उलट, सरकारी फ्री राशन भी बेच कर दारू पी डालने के मामले भी सुनने में आये हैं। खातों में पैसे आने से मैंने महिलाओं को अधिक प्रसन्न होते पाया है।

इसके अलावा नियमित पेंशन का मिलना भी एक गारण्टीशुदा आय सरीखा ही है। रेलवे के कई ग्रुप डी के कर्मचारियों को जानता हूं जो अपनी वर्किंग लाइफ में जो निम्न मध्यवर्ग से कुछ कम ही कमाते थे, अब वे एक सम्मानजनक पेंशन के हकदार हैं। उनमें से कई हुनर रखते हैं और कुछ न कुछ वैकल्पिक कार्य कर सकते हैं। उनके लिये यह पेंशन घर का खर्च चलाने की चिंता से मुक्त करने वाला विकल्प है। इसके ऊपर वे अपनी आय बढ़ाने, अपने हुनर को चमकाने, अपनी गतिविधियों को नये आयाम देने के प्रयोग कर सकते हैं। कुछ कर भी रहे होंगे। उसपर एक गम्भीर सोशियो-इकॉनॉमिक अध्ययन सम्भव है।

अब के कर्मचारियों को वह गारण्टीशुदा पेंशन भविष्य में शायद नहीं मिलेगी।

अत: स्टॉकटन के गारण्टीशुदा आय प्रयोग के समकक्ष बहुत बड़ा डाटा-बैंक भारत में मिल सकता है। यह जरूर है कि भारत में यूबीआई (यूनिवर्सल बेसिक इनकम) वाला कॉन्सेप्ट बीच बीच में उठता और दबता रहता है; पर अगर अर्थव्यवस्था की वास्तविक वृद्धि लगभग ठीक ठाक स्तर पर एक दशक तक रही तो यूबीआई (सम्भवत:) एक वास्तविकता बन जायेगी। कोई न कोई सरकार अपने वोटबैंक के मद्देनजर इसे लागू कर ही देगी। लॉकडाउन के दौरान उसका एक रूप, अर्थव्यवस्था ठप होने की दशा में, तो देखने को मिल ही गया है।

गारण्टीशुदा आय का कॉस्ट-बेनिफिट विश्लेषण सरल नहीं होगा। लोगों की व्यग्रता में कमी, उनका बेहतर सामाजिक जुड़ाव, उनका बेहतर स्वास्थ्य – यह सब आर्थिक आंकड़ों में लाये नहीं जा सकते; अथवा उनका आर्थिक आकलन विवादास्पद हो सकता है। पर मैं अपने और अपने परिवार पर मेरी पेंशन के प्रभाव को जरूर महसूस कर सकता हूं। अपने तनाव में कमी, अपने वातावरण में (गांव में बसने के कारण) बदलाव, अपने साईकिल उठा कर घूमने और कुछ भी कहीं भी बैठने देखने की आजादी … यह एक बहुत सार्थक परिवर्तन है। मेरी पत्नीजी भी अपने बाग बगीचे और अपनी किचेन में जो प्रयोग कर पा रही हैं, गांव में जो एक अलग प्रकार का नेटवर्क बना सक रही हैं, उसमें यह गारण्टीशुदा आय ही रीढ़ है! पर कुल मिला कर समाज या देश के लिए यह लाभप्रद है, इसका आकलन सरल नहीं होगा। उस आकलन में धुर वामपंथी या दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री या समाजशास्त्री अपने अपने वैचारिक पूर्वाग्रह घुसेड़ेंगे ही। :-D

Photo by Belle Co on Pexels.com

मैं जानता हूं कि कुछ लोग जो अपने रिटायरमेण्ट को ले कर बहुत सधे हुये तरीके से काम करते, बचत और निवेश करते हैं वे रिटायरमेण्ट की उम्र आते आते यह ‘व्यग्रता से मुक्ति’ और ‘अपनी मन माफिक कर सकने की आजादी’ अनुभव कर पायेंगे। कई तो चालीस-पचास की उम्र में यह गारण्टीशुदा आय अपने बलबूते पर पाने में सक्षम होंगे।

और, लोगों के निजी प्रयास एक तरफ रखे जायें; अगर प्रजातंत्र रहा, वोट की ताकत रही तो कोई न कोई सरकार गारण्टीशुदा आय बांट ही देगी। और तब लोग शायद ज्यादा खुश, ज्यादा चिंतामुक्त और ज्यादा प्रयोगधर्मी होंगे। खुशनुमा सोच में क्या जाता है!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

5 thoughts on “गारण्टीशुदा आय प्रयोग पर विचार

  1. Anything coming free makes anyone and everyone happier. Does it change economic level in the long term? Economic support to the poor is the duty of the Govt and society. During pandemic its a must. Key is to develop the capability of people so that they can earn and save, and never need support. But the biggest problem Indian Democracy is facing that. “out of the 539 winners analyzed in Lok Sabha 2019, 233 MPs have declared criminal cases against themselves. ” We need to learn to vote for best candidate and not to criminal from the party that we favor or the cast they belong to or the freebies offered. I think this the fundamental change we all should make collectively.

    Liked by 1 person

    1. सोचना होगा इस बात पर. विशेष रूप से तब जब चुनाव में खड़े होने को कोई शरीफ आता न हो.
      धन्यवाद टिप्पणी के लिए.

      Like

  2. हैरी पॉटर की लेखिका – जे. के. रॉलिंग ने खुलेआम स्वीकारा है कि ब्रिटेन की न्यूनतम बेसिक आय जैसे नियम के चलते ही वे अपना आरंभिक लेखन जारी रख सकीं, जबकि वे एक बच्चे की एकल-पालक भी थीं, और उनके पास नियमित आय का कोई अन्य जरिया/काम भी नहीं था.

    Liked by 1 person

  3. विचारणीय आलेख। अभी अगर देखें तो कई लोग गाँव से पलायन कर बाहर शहरों से दस से पन्द्रह हज़ार की नौकरी कर रहे हैं। वह खेती करने के बनिस्पत पलायन कर इन नौकरियों को बेहतर मानते हैं। पहाड़ी गाँवों में जहाँ खेत छोटे और उपज कम होती है उधर यह पलायन ज्यादा होता है। अब अगर नियमित आय (बिना भ्रष्टाचार) के मिलने लगी तो ऐसे लोग शायद शहरों की तरफ जाना पसंद न करें और अपने घर में रहकर खेती बाड़ी करने में ध्यान लगायें। हाँ, कई लोग इन पैसों को व्यसन में लगायेंगे लेकिन फिर ऐसे लोग तो अब भी हैं जो घर में खाना न हो लेकिन व्यसन के लिए पैसा वह जरूर तैयार रखेंगे।

    इसके अलावा कई कलाकार जो अभी कला से उतना नहीं कमा पा रहे हैं वह भी शायद स्वतंत्र होकर अपनी कला पर ध्यान देने लगे।

    मुझे भी यह कांसेप्ट अच्छा लगता है। सब कुछ यूटोपिया सा लगता जरूर है लेकिन आज के वक्त में यह मुमकिन भी है।

    Liked by 1 person

    1. आपने सोचने की और भी सामग्री दी है अपनी टिप्पणी में. धन्यवाद विकास जी!

      Like

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started