लालजी यादव का काम कराने का मंत्र – बाभन खाये, लाला पाये

परधानी के चुनाव में माननीय हाईकोर्ट के डायरेक्टिव के कारण फच्चर फंस गया है। अब सत्ताईस मार्च तक तय होगा कि #गांवपरधानी वर्तमान के अनुसार ओबीसी महिला के खाते रिजर्व रहेगी, या आरक्षण बदल जायेगा। पहले एक दर्जन से ज्यादा प्रत्याशियों के श्वसुर, बेटे या पति ताल ठोंक रहे थे। उनमें से प्रमुखतम थे लालजी यादव।

अब लालजी की दावेदारी रहेगी या नहीं, सत्ताईस मार्च को पता चलेगा। फिलहाल लालजी ने ह्वाट्सएप्प पर एक स्कूप पढ़ाया – ब्लॉक दफ्तर में जो अनुशंसा की गयी है, उसके अनुसार विक्रमपुर गांव की प्रधानी अनुसूचित जाति के खाते जायेगी।

शायद अनुसूचित वर्ग को भी लालजी का यह स्कूप मिल गया है। वहां भी ख्याली लड्डू फूटने लगे हैं! :-)

Lalji Yadav
लालजी यादव, #गांवपरधानी का एक सशक्त दावेदार

आरक्षण बिंदु के बदलाव की सम्भावना के कारण लालजी यादव ‘स्थितप्रज्ञता’ में आ गये हैं। वर्ना उनका चरित्र ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास ‘गणदेवता’ के श्रीहरि या छिरू पाल जैसा है। लालजी के पास हाईवे पर ट्रक-ढाबा है। कई ट्रेक्टर हैं। शायद ट्रक और जेसीबी मशीन भी हैं। गांव और आसपास में जो भी आर्थिक गतिविधियां हैं उनमें लालजी की दखल या रुचि है। और उस सब के बल पर उनका सामाजिक कद भी पिछले दशकों में बढ़ा है।

“पोस्टर-बैनर वह छपाये, लगाये जिसकी शकल लोगों को नहीं मालूम। मुझे तो गांव में सब जानते हैं। मुझे पोस्टर लगाने की क्या जरूरत?!” – लाल जी ने कहा।

लालजी समाजवादी ब्रिगेड के बढ़े प्रभुत्व के आईकॉन हैं। उनकी तुलना मैंने ‘गणदेवता’ के श्रीहरि पाल से की; पर आज बदलते गांव का जितना सशक्त चरित्र लालजी है; उतना ताराबाबू का छिरू पाल नहीं है। छिरू पाल के चरित्र को मैंने उपन्यास में पढ़ा है और लालजी को प्रत्यक्ष देखा है। बस फर्क यह भर है कि ताराशंकर बंद्योपाध्याय की कलम कालजयी उपन्यासकार की है और मेरी एक अनिच्छुक ब्लॉगर (reluctant blogger) की।

चाय का कप, स्मार्टफोन और अखबार लिये लालजी

जहां बाकी तेरह प्रधानी के उम्मीदवार बहुत खर्चा कर चुके हैं, लालजी ने केवल लोगों से मिल कर अपनी उम्मीदवारी का चेहरा भर दिखाया है। और लोगों के पोस्टर छपे, लगे और लगते ही नुच कर खतम भी हो गये। लालजी ने बताया कि उन्होने अब तक कोई पैसा खर्च नहीं किया चुनाव में। “पोस्टर-बैनर वह छपाये, लगाये जिसकी शकल लोगों को नहीं मालूम। मुझे तो गांव में सब जानते हैं। मुझे पोस्टर लगाने की क्या जरूरत?!” – लाल जी ने कहा। उनके यह कहने में जो आत्मविश्वास दिख रहा था, वह किसी और उम्मीदवार में नहीं दिखा। यह अलग बात है कि अगर आरक्षण के पिनप्वाइन्टिंग में परिवर्तन हो जाये तो लालजी परधानी की रेस से बाहर हो जायेंगे; वर्ना साम-दाम-दण्ड-भेद सबका खेला खेलने में लालजी फिट लग रहे थे।

“मैने तो संत भईया के लड़के से कहा भी; खर्चा करूंगा। खर्चा समय से करूंगा। खिलाऊंगा। सभी बाभनों को खिलाऊंगा। अच्छे से। आखिर वोट तो जैसे मिलता है, जानता हूं। ‘बाभन खाये लाला पाये’ से काम आते हैं।”

रागदरबारी में यह मंत्र शायद नहीं आया है – बाभन खाये, लाला पाये। बाभन को पूड़ी कचौड़ी, साग तरकारी, बुंदिया, खीर हलुआ आदि से साधा जाता है। वह नमक खा लेता है तो वोट देता है। या व्यापक अर्थों में ‘आपका काम’ करता है। लाला पैसे से सधता है। पुराने जमाने में लाला मतलब ब्यूरोक्रेसी। तब सारी मुनीमी, सारी कलम की ताकत लाला लोगों के पास थी। उस वर्ग को साधने का मंत्र है – पैसा।

मजे की बात है कि जिंदगी के छ दशक गुजर जाने और दुनियाँ में बहुत घिसने के बाद मुझे यह मंत्र बताया तो किसी चाणक्य या मेकियावली की परम्परा वाले बुद्धिजीवी ने नहीं। बताया लालजी यादव ने। और वह भी, अपने साले साहब – शैलेंद्र दुबे के घर पर चाय पीने न बैठा होता तो लालजी से मुलाकात भी न होती और यह ज्ञान भी न मिला होता! :lol:

शैलेंद्र के नौकर ने चाय बना कर रखी। हमने भी पी और लाल जी ने भी। लाल जी थोड़ी देर बैठे। किसी काम से आये होंगे तो उसकी चर्चा नहीं हुई। शायद मेरे सामने वह न होने लायक हो। या शायद लालजी यूं ही मिलने चले आये हों। सवेरे शैलेंद्र का भाजपाई दरबार लगता है। उसमें भाजपाई-सपाई सम्पर्क भी शायद यूं होता हो। … कुल मिला कर यह लगा कि मेरी तरह साइकिल ले कर इधर उधर घूमने बोलने बतियाने की बजाय नेता लोगों की संगत करना, उनके सवेरे के ‘दरबार’ की बातें सुनना कहीं ज्यादा ज्ञानवर्धक होता है। गांवदेहात समझने में वह ज्यादा insight देता है।

गांव की नव-सम्पन्नता के प्रतीक लालजी।

फिलहाल आज क्लियर हुआ – बाभन खाये, लाला पाये!

बाभन खाने से और लाला पाने से काम करता है। तो अहीर काहे से करता है? यह प्रश्न व्यापक ऑडियेंस के लिये छोडा जाता है। सुधीजन अपना दिमाग लगायें! :lol:


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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