पत्नीजी ने कहा – “रोज रोज गड़ौली निकल जाते हो, ये मोनोटोनी ठीक नहीं। और भी जगहें हैंं जाने, घूमने, देखने और लिखने की। जब कुछ बिना किसी तय मुद्दे के चल रहे हो तो और जगह भी जाओ।” बात उनकी ठीक भी थी। रोज रोज वहां पंहुच जाना; सुनील ओझा जी को तख्त पर बैठे हाथ पैर गरदन हिलाते व्यायाम करते देखना; इधर उधर घूमना, आधा घण्टा सुनील भाई से बातचीत और बलराम की चाय – यह एक रुटीन ही न बन जाये। … वहां के लोग यह न सोचने लगेंं कि इस ‘उपारा बेंट’ को करने धरने को तो है नहीं, रोज रोज चला आता है! 😀
पर फिर भी साइकिल गड़ौली धाम की तरफ मुड़ गयी आज भी।
उपारा बेंट
उपारा बेंट आज मेरे लेक्सिकॉन में जुड़ा नया शब्द है। गड़ौली धाम के पास एक अधेड़ आदमी साइकिल पर जा रहा था। वह किसी से बात कर रहा था – “हम कहां जाब, हम त उपारा बेंट हई (मैं और कहां जाऊंगा, मैं तो उपारा बेंट हूं। जब तक मालताल (पैसा) हो, तब तक बम्बई रहो, दिल्ली रहो, जहां मन आये रहो। जब मात-ताल झर्र तो अपने घरे में घुसरो (लौट आओ)।”
उपारा बेंट गोरुआर (पशु शाला) का वह खूंटा है जिसे पुराना होने पर उखाड़ कर अटाले में रख दिया जाता है। उस कबाड़ से कोई जरूरत कहीं होने पर उसे निकाल कर लगा दिया जाता है। उसका नियमित कोई उपयोग नहीं। ताश के पत्तों में जो स्थान जोकर का है – जिसे कोई अन्य पत्ता न होने पर उपयोग कर लिया जाये; वही उपारा बेंट है गांवदेहात की भाषा में। रोज रोज जाने पर लोग उपारा बेंट समझने लगेंगे! 🙂
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गड़ौली धाम में
आज सुनील जी नहीं थे। सतीश ने बताया – “कल देर रात दीदी उन्हें ले गयीं। आज रामनवमी को कुछ कार्यक्रम होगा, पर बारह बजे तक ही आयेंगे, शायद।” सतीश को गंगा किनारे स्नान कर महादेव के अभिषेक के लिये बाल्टी भर गंगाजल लाना था। वे निकल लिये। अकेला मैं एक तख्ते पर लेटा कुछ देर – सरपत की बनी छत ताकते हुये। विनायक प्रणाम कर गये। यह नौजवान खुला नहीं है। दूरी बना कर रखता है। शैलेश ने फोन कर कहा – “भईया विनायक को बताते रहा करिये। बहुत अच्छा लड़का है। यहीं रहेगा।” शैलेश, विनायक, सुनील भाई ओझा – इन सब के बावजूद मन में उपारा बेंट का भाव आता है तो शायद मुझमें ही कोई डिजाइन डिफेक्ट है!

मैं आसपास घूम कर देखता हूं। नदी किनारे का वह शमी का वृक्ष जिसके आसपास हम दम्पति ने दिये जलाये थे; बहुत नीक लगता है। उसको समग्रता से देखने पर गंगाजी का पूरा विस्तार दीखता है। अब रामनवमी आ गयी; पर ध्यान से जगह देखने पर एक दिया जो हमने दीपावली को जलाया था, वहां पास में रखा दिखा। अच्छा लगा कि हम अभी भी वहां हैं।
शमी के तने में एक आर पार दीखने वाला कोटर है। उससे गंगा जी का जल साफ दीखता है। मैंने उसके सामने कुशा इधर उधर कर चित्र लिया।

कुटिया के पास नयी सगड़ी दिखी। हीरालाल ने बताया कि चार रोज पहले आई थी कछवाँ से। “बाबू जी चलावत रहें। बहुत मस्त फोटो आई रही। आपऊ देखे होब्यअ। (बाबूजी – सुनील भाई चला रहे थे। बहुत शानदार फोटो आई थी। आपने भी देखी होगी।)”
मैने देखी नहीं थी। कहने पर विनायक ने मेरे पास भेजी। उसपर डेटलाइन है 6 अप्रेल रात पौने नौ बजे की। रात में बिना तैयारी के चित्र लिये जाने के कारण चित्र में धुंधलापन है। मोबाइल हाथ की बजाय ट्राइपॉड पर रखा होता तो क्लियर आता। मैंने उसे जस का तस प्रस्तुत करने की बजाय पेण्टिंग प्रभाव देना उचित समझा।

छियासठ प्लस के बाबूजी; रात पौने नौ बजे मौज मजे से साइकिल ठेला चला रहे हैं। साथ में तीन चार चेला लोग उन्हें साधने खड़े हैं। इस दृष्य की कल्पना ही मजेदार है। चित्र तो है ही। … मैं आगे की कल्पना करता हूं। सुनील भाई यहीं गड़ौली धाम में रहते हुये जीवन का सैंकड़ा पार करें और उस दिन भी सगड़ी पर इसी तरह चित्र खिंचायें। 🙂
पता नहीं, सगड़ी खींचते सुनील ओझा जी का यह चित्र उनकी बिटिया ने देखा है या नहीं। वह तो अपने पिता को उम्र और ढेरों दवाईयों से पीड़ित मानती है। उनको तो सुनील भाई का यह एडवेंचरिज्म अच्छा थोड़े लगेगा?!
आज गड़ौली धाम में ज्यादा देर नहीं रहा। वैसे भी, जल्दी लौटना चाहता था। घर पर नौ दिवसीय मानसपाठ सम्पन्न करना था। उसके बाद बारह बजे रामलला का बर्थडे मनाना था। पत्नीजी ने गुड़ के हलवे का केक बनाया था। साथ में पूरी तरकारी सिंवई। आज रविवार था तो घर में काम करने वाले और भी लोग रोक रखे थे मेम साहब ने।
बकौल सतीश गड़ौली धाम में तो कुछ कार्यक्रम होगा ही नवरात्रि समापन पर। कल पता चलेगा वहां क्या हुआ। आज इतना ही।
जै श्री राम। हर हर महादेव।
