जब घर से सवेरे निकला तो डिस्टोपियन (dystopian – मनहूसियत वाले) विचार मन में चल रहे थे। कुछ भी सकारात्मक नहीं दिखता गांव में। दिनों दिन ईंट भट्ठे बढ़ रहे हैं। बालू और मिट्टी का वैध-अवैध खनन बढ़ रहा है। वातावरण में धूल ज्यादा होती है। सवेरे घूमना उतना मन प्रसन्न नहीं करता। भगवानपुर और करहर के बीच सिवान वाली जमीन जहां घर नहीं, खेत भर हैं; में सड़क नहीं है। वहां दिन पर दिन खेतों की मेड़, जिसपर साइकिल गुजारनी होती है, लोग अपनी छुद्र लोभ वृत्ति के कारण पतली करते जा रहे हैं। हर साल चार छ इंच मेड़ कभी इस खेत वाला कभी दूसरे खेत वाला काट देता है। यह मेड़ काटने की छुद्र सोच ही इस इलाके की दरिद्रता का कारण है और उसका प्रतीक भी।

पर करहर में एक महुआ के पेड़ के नीचे भीड़ ने मेरा डिस्टोपियन विचार बदला। वहां महिलायें, बच्चे और पुरुष भी सवेरे से महुआ बीनते हैं। इस समय वहां आपस में बांटा जा रहा था सामुहिक रूप से बीना हुआ महुआ। सामुहिक काम – भले ही महुआ जैसी छोटी चीज का हो – अगर इस इलाके में किया जा सकता है तो सम्भावना है कि ये ही लोग सामुहिक तौर पर खेती, पशुपालन, दुग्ध-व्यवसाय आदि अनेकानेक कार्य कर सकते हैं। यह विचार मेरे मन में कौंध गया। सब कुछ नेगेटिव या चिरकुट नहीं है। लोगों को अगर सिखाया, बताया और लाभ का अहसास कराया जाये तो “एक धन एक बराबर इग्यारह – 1+1=11” बनाने की आदत विकसित हो सकती है। खेत की मेड़ को काट कर पतला करने की आदत के विपरीत!
गड़ौली धाम के गौपालन के सोशियो-इकॉनॉमिक प्रयोग की सफलता इस सामुदायिक सोच पर ही पल्लवित हो सकती है। यही बात मन में दोहराता हुआ मैं करहर-गड़ौली-अगियाबीर होता हुआ गड़ौली धाम पंहुचा।

ओझा जी वहां नहीं थे। संदीप सिंह दिखे। उन्होने बताया कि कल रात नौ दस बजे बाबूजी बनारस गये। दीदी (ओझा जी कि बिटिया) साथ थीं। सुनील ओझा जी का जहां बैठक लगता है, वहां आज खसखस के पर्दे टांगे हुये थे। दिन में जब इन पर्दों पर पानी दंवारा जाता होगा तो बहुत ठण्डी हवा उनसे गुजर कर उस बैठक को शीतल करती होगी। वैशाख और जेठ की तपती गर्मी के लिये तो बहुत शानदार इंतजाम हो गया है। … मेरे ख्याल से अब संध्या जी (ओझा जी की बिटिया) को अपने पिता को यहां रात गुजारने के लिये छोड़ने में दिक्कत नहीं होनी चाहिये।
सगड़ी चलाता बलराम आया। सगड़ी पर दूध के दो कैन लदे थे। पीछे पीछे एक दो आदमी। मैंने बलराम का सगड़ी रोकते चित्र लिया तो पीछे से, सगड़ी से कूद, एक छोटे कद के नौजवान ने आगे आ कर कहा – एक फोटो मेरा भी लीजिये न! बड़ी फुर्ती से एक बच्चे की तरह वह उछल कर सगड़ी की साइकिल पर बैठ गया।

उस नौजवान का नाम है सोनू। सोनू नाम तो सुनील ओझा जी का दिया है। वैसे वह शादाब है। मेरठ, जहां से यहां की एक दर्जन साहीवाल गायें आई हैं, वहीं के किसी गांव का है सोनू। गायों की देखभाल करने में दक्ष है। बहुत वाचाल है सोनू। अपने से ही बताता जाता है। आपको प्रश्न करने की कम ही जरूरत होती है। “मैं गाय की सेवा का सब काम कर लेता हूं। सवेरे चार बजे उठता हूं। दिन के बारह बजे तक काम ही काम रहता है। शाम को फिर गायों के काम में लगना होता है। गाय ही नहीं, मैं घोड़ा भी पाल सकता हूं। उसकी देख रेख, उसकी सवारी – सब आता है मुझे। यही नहीं, चिनाई (ईंट से दीवार बनाना – ब्रिकलेयर) का काम भी मुझे आता है।” – सोनू बताता ही जाता है।

अब वह तेईस साल का है। उसकी बीवी उससे एक साल उम्र में बड़ी है। “मैं तीसरी तक पढ़ा हूं और मेरी बीवी हाईस्कूल तक। शादी हुई तो वह उन्नीस साल की थी और मैं अठारह का। एक साल बड़ी है तो कोई बात नहीं। बूढा होने पर मैं बड़ा हो जाऊंगा और वह छोटी। एक बच्चा है हमारा। तेरह महीने का। उसका नाम हम दोनो ने मिल कर रखा है – अबूजर। अबूजर मुहम्मद।”
“अबूजर का क्या मतलब होता है?” – मैंने पूछा। उसे अर्थ नहीं मालुम था। यही बताया कि ये नाम होता है लोगों का। मैंने तुरंत इण्टरनेट पर सर्च किया। अबू-जार हजरत मुहम्मद के एक साथी/अनुयायी/साहबी का नाम था। मैंने उसे बताया कि मोहम्मद साहब के साथी का नाम है तो सोनू ने संतोष जताया कि उसकी बीबी और उसने एक अच्छा ही नाम रखा था। “बीबी और बच्चे को देखने मैं गांव आता जाता रहूंगा।” सोनू ने जोड़ा।

सोनू, संदीप और बलराम बड़ी फुर्ती से दूध के कैन का वजन लेते हैं और तापक्रम भी नोट करते हैं। सोनू एक कॉपी में आंकड़े दर्ज करता है। दोनो डिब्बों को जोड़ कर 60-62 किलो निकलता है दूध। “शाम को भी इसी के आसपास होता है। थोड़ा कम भी हो सकता है।”
संदीप चाय बनाते हैं। एक सिरेमिक कप में चाय मुझे थमाते हैं। बाकी लोग पेपर कप में चाय लेते हैं। मेरे लिये कुर्सी कमरे के दरवाजे के पास रखी जाती है। वहां हवा अच्छी आती है। सोनू बात करता जाता है। “सारे दूध को गर्म कर क्रीम निकाल कर घी बनाया जाता है। बचा सेप्रेटा बाल्टा-वाला (बिल्ला नाम का आदमी) ले जाता है।”
“अच्छा?! मेरे काम का तो सेपरेटा ही है। मेरी उम्र में घी की ज्यादा जरूरत नहीं। देसी गाय का सेपरेटा दूध ही बढ़िया है। बिल्ला के बेचे जाने वाले दूध में से मुझे दे सकते हो? बिल्ला से कुछ ज्यादा रेट लगा लो।” मैंने पूछा।
बलराम और संदीप का कहना है कि सारा दूध बिल्ला को देना तय हुआ है। वे उसमें बदलाव नहीं कर सकते। सोनू मुझसे पूछता है – “आपको कितना चाहिये?” मेरे एक किलो बताने पर वह मायूस होता है – बस?
“और क्या भाई। मैं और मेरी पत्नी को कुल मिला कर एक किलो ही तो चाहिये।” मेरे यह कहने पर वह टेनटेटिव सा होता है। फिर सोच कर बोला – चलो, आप रोज रोज आते हो, आपको दे दूंगा।
बलराम और संदीप कर्मचारी जैसा व्यवहार करते हैं पर सोनू, तीसरी दर्जा पास, छटपट (स्मार्ट) है। वह निर्णय लेने का ‘जोखिम’ उठाता है। वह कौतूहल भी रखता है। पर्याप्त। मुझसे मेरे बारे में, मेरे खींचे चित्रों के बारे में, मेरे लिखने के बारे में सवाल करता है। लगता वह बालक ही है पर मेरे ख्याल से गड़ौली धाम की गौशाला के लिये वह एसेट है। बावजूद इसके कि वह अपनी पत्नी-बच्चे से मिलने बार बार अपने गांव आता-जाता रहेगा; ओझाजी को इस बंदे को स्थाई रूप से अपने यहाँ रखना चाहिये।

और शायद ऐसा ही वे सोचते भी हों। सोनू मोबाइल दिखाता है। स्मार्टफोन। सेमसंग का। बताया कि दीदी (संध्या जी) ने दिया है। “वो मेरा मोबाइल टूट गया था न, तो दीदी ने मुझे यह दिया।” ओझाजी कि बिटिया अगर सैमसंग का टचस्क्रीन वाला फोन दे सकती हैं तो सोनू को एसेट समझती ही होंगी।
मैं उसकी निर्णय लेने की क्षमता की सीमा परखने के लिये एक और सवाल करता हूं – “वैसे मुझे सेप्रेटा की बजाय एक किलो क्रीमवाला दूध दे सकते हो? क्या भाव दोगे?”
इस सवाल पर सोनू, संदीप और बलराम – तीनों समवेत स्वर में मना कर देते हैं। यह उनकी क्षमता के बाहर का निर्णय है। क्रीम वाले दूध की बिक्री तो नहीं हो सकती। उसके लिये तो बाबूजी को ही पूछ्ना होगा।
“तो आप लोग पूछ कर कल मुझे बता देना।” मेरे यह कहने पर तीनो किनारा करते हैं। ओझा जी से इस प्रकार की बातचीत शायद उस तरह की पॉलिसी विषयक बात हो जो फैक्टरी का जेनीटर फैक्टरी के चीफ एग्जीक्यूटिव से करने की सोच भी नहीं सकता। पर संदीप सिंह मुझे एक रास्ता सुझाते हैं – “आप हमसे क्यूं पूछते हैं। आप तो बाबूजी से सीधे बात कर सकते हैं। आप ही जब मिलेंगे तो पूछ लीजियेगा।”
एक कप चाय के साथ सोनू, संदीप और बलराम के साथ इस प्रकार की स्मॉल-टॉक। इसके लिये 12-14 किलोमीटर साइकिल चलाना खलता नहीं, अच्छा ही लगता है। मेरे मन का डिस्टोपियन भाव, अस्थाई रूप से ही सही, कुछ दूर तो होता है। इस प्रकार यहां नियमित आना मेरे डिस्टोपिया को पूरी तरह, समूल, निकाल सकेगा? यह देखा जाना बाकी है। मन में “उपारा बेंट” होने का भाव कहीं गहरे बैठ गया है। 🙂
कृपया गड़ौली धाम के बारे में “मानसिक हलचल” ब्लॉग पर पोस्टों की सूची के लिये “गड़ौली धाम” पेज पर जायें। |
जी, कर्मचारियों को योग्यतानुसार रखने की सोच सही है। जाति धर्म गौण मानक हैं।
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bas aage koi video na dikhe kuchh milate huye..
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आप गढौली धाम जाते रहिए और वहां का आंखो देखा हम लोगो के पास भी पहुंचाते रहिए ,आपका ब्लॉग पढ़कर बहुत अच्छा लगता है ।
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धन्यवाद यह कहने के लिए, आशीष जी!
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“बदनाम शायर” ट्विटर पर –
सोनू नाम तो सुनील ओझा जी का दिया है। वैसे वह शादाब है।
बस यही पढ़ना और सुनना बाकी था ।
….. अब क्या कहें आप समझ ही रहे होंगे ।
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