सपने में सिर काटई कोई

तीन बज रहे होंगे। अर्धनिद्रा में मैंने सपना देखा कि यात्रा कर रहा हूं और मेरा बैग-सूटकेस गायब हो गया है। सब कुछ उसी में है। मेरा आईडेण्टिटी, पैसा, सब कुछ। सपने में ही तुलसीदास जी का स्मरण हो रहा है – सपने में सिर काटई कोई, बिनु जागे दुख दूर न होई। … बालकाण्ड में शिव-पार्वती संवाद।

नींद में ही नींद खुल जाती है। स्मरण होता है कि मैं तो घर पर बिस्तर पर हूं। आश्वस्त हो कर नींद पुन: आ जाती है और एक घण्टा और सोता हूं।

विचित्र सा स्वप्न है – जाग्रत भी है और स्वप्न भी। सभी कुछ खो जाने का स्वप्न शायद एक तरह की असुरक्षा की भावना है। पर स्वप्न में ही यह भान कि स्वप्न मुझे मूर्ख बना रहा है – वह अटपटा है।

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यात्रा करता नहीं आजकल। रेलवे का फ्री पास लिये भी तीन-चार साल हो गये। उतना ही समय ट्रेन में कदम रखे हो गया। उसके पहले भी, जब रेल का अधिकारी था, तब भी कई दशकों से ऐसी नौबत नहीं आई कि अकेले यात्रा करनी पड़े। अधिकांशत: रेल के सैलून में चलना होता था, या ट्रेन में चलने पर भी साथ में दो-चार लोग तो होते ही थे। यात्रा में मेरा सामान कभी खोया नहीं। खोने की सम्भावना भी नहीं होती थी।

सामान ही नहीं, कभी भीड़ में किसी उचक्के ने जेब से पर्स या पैसे भी नहीं उड़ाये कई दशकों से। मुझे याद आता है कि आई आई टी गेट के पास कटवारिया सराय से पैदल आ कर मैं डीटीसी की बस पकड़ रहा था। बस में चढ़ते समय एक व्यक्ति ने मेरी जेब से बीस रुपये निकाल लिये थे। पीछे मुड़ कर मैंने उसे भागते भी देखा था। उसके बाद इस तरह की कोई घटना नहीं हुई।

रेल परिचालन की नौकरी ने मुझे निर्मम टाइप बना दिया था। सम्वेदनशील बनने और दिखाने के लिये मुझे अतिरिक्त मेहनत और मानसिक कवायद करनी होती थी।… और अब, सपने में ही सही, अपने असबाब को खोने का भय हो रहा है! शायद उम्र के बढ़ने के साथ इस तरह के असुरक्षा के भय बढ़ें; इस तरह के सपने और आने लगें।

वह भी दिन थे। सन 1980 की बात होगी। मैं दिल्ली में कटवारिया सराय में एक कमरा किराये पर ले कर रहता था। सरकार का राजपत्रित अधिकारी हो गया था। पर दिल्ली में सरकारी मकान मिलना सम्भव नहीं था। निर्माण भवन में दफ्तर था और आने जाने के लिये डीटीसी बस का उपयोग होता था। मैं आईआईटी में पार्ट-टाइम स्टूडेण्ट भी था। उसका सबसे बड़ा लाभ था कि साढ़े बारह रुपये का महीने भर का स्टूडेण्ट-पास बन जाता था। सो वैसे दिन कट रहे थे। उस समय बीस रुपये बड़ी चीज थी। खोने पर दुख तो था, पर इतना बड़ा दुख नहीं जितना आज सपने में सामान खो जाने का हो रहा था।

जेबकतराई, छिनैती, ट्रेन में सामान की उचक्कई या जहरखुरानी से व्यक्तिगत रूप से सन 1980 के बाद कोई पाला नहीं पड़ा। रेल की नौकरी के शुरुआती वर्षों में यात्रा करते समय एक चेन और ताले के साथ यात्रा करता था। ट्रेन की सीट से अटैची-ब्रीफकेस बांध कर ताला लगाने की आदत थी। पर रेलवे का पैराफर्नेलिया मिलने पर वह आदत जाती रही। किसी समारोह आदि में भीड़ में कभी कभी धक्के खाने पड़ते थे। रेल मंत्री जी का कार्यक्रम होने पर मजबूरन उसमें सम्मिलित होना पड़ता था। पर भीड़ में मैं अपना एक हाथ जेब में पर्स पर रखता था। भले ही मेरे पास ज्यादा पैसे न हों (सौ दो सौ से ज्यादा नहीं), पर पर्स का जाना पसंद नहीं था – आखिर किसे हो सकता है! :-D

मुझे याद है कि इंदौर रेलवे स्टेशन पर रेलमंत्री किसी नयी ट्रेन को झण्डी दिखा रहे थे। जलसे में मण्डल रेल प्रबंधक महोदय रेल मंत्रीजी को सी-ऑफ करने गये तो भीड़ में किसी ने उनका पर्स उड़ा दिया था। उनके आसपास रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स और जीआरपी वाले भी रहे ही थे, पर फिर भी जेबकतरा अपनी कलाकारी दिखा गया। … यह रेल नौकरी के दौरान इक्का दुक्का घटनाओं(दुर्घटनाओं) में से है। सामान्यत: रेल अधिकारी सुरक्षित ही रहे पाये मैंने। उस हिसाब से आज का सपना अजीब सा है।

ऐसा नहीं कि चोरी-उचक्कई-जहरखुरानी आदि होती नहीं हैं। पर उनके प्रति मुझमें सेंसिटिविटी का अभाव जरूर था। मुझे याद है कि रेलवे में हो रही जहरखुरानी पर मीटिंगों में चर्चा के दौरान जब बाकी सभी अधिकारी तत्मयता से उसमें भाग लेते थे; मैं उबासी लिया करता था। उस समय मेरे मन में यही चलता था कि वैगनों का लदान कैसे बढ़ाया जाये या मेरे सिस्टम पर ट्रेन-स्टॉक/वैगनों की भीड़ किस तरह सिस्टम के बाहर ठेली जाये। रेल परिचालन की नौकरी ने मुझे निर्मम टाइप बना दिया था। मेरी भाषा भी पुलीस वाले थानेदार की तरह उज्जड्ड और लठ्ठमार हो गयी थी। सम्वेदनशील बनने और दिखाने के लिये मुझे अतिरिक्त मेहनत और मानसिक कवायद करनी होती थी।… और अब, सपने में ही सही, अपने असबाब को खोने का भय हो रहा है! शायद उम्र के बढ़ने के साथ इस तरह के असुरक्षा के भय बढ़ें; इस तरह के सपने और आने लगें।

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मेरी पत्नीजी को फ्लैश-बैक में जाना और अपने पुराने संस्मरण लिखना पसंद नहीं। उनके अनुसार वह लिखते समय मैं जानबूझ कर अपने आप को दयनीय, विपन्न और निरीह दिखाता हूं। मुझे अपने को अतिसामान्य दिखाने का जो भाव है, वह किसी तरह अपने को औरों से अलग दिखाने की प्रवृत्ति का ही प्रदर्शन है। “और सपने तो आते रहते हैं, उनको लेकर लिख डालना – यह भी कोई बात हुई?!”

पर पत्नीजी मुझे चमकाने, ‘साहब’ बनाने में लगी रहेंगी और मैं अपनी मनमौजियत में निरीह भाव से (?) लिखता रहूंगा! :lol:


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

6 thoughts on “सपने में सिर काटई कोई

  1. वर्तमान छटपटाहट को स्वप्नशीलता घोषित करना और एक जागृत(तुरीय) अवस्था की परिकल्पना संभवतः स्वप्न के अनुभव से प्रेरित है। जागृत अवस्था में भी सब मन में ही घटता है तो वह सुप्त अवस्था में स्वप्न रूप में संचरित हो तो क्या आश्चर्य। कहते हैं कि विचार को निष्कर्ष तक पहुचाने से वह भटकते नहीं हैं।

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  2. पांडे जी,सपना वपना कुछ नहीं होता,ये सब मन का फ्राड है/दिमाग हमेशा 24 घंटे सोते जागते उसी तरह काम करता है जैसे दिन मे/पाचवा हिस्सा सिडेट होकर जाग्रत चेतना को समाप्त कर देता हैऔर यही नीद की अवस्था कही जाती है/आप जो डिनभर खुराफात सोचते है वही अधजागी अवस्था मे तोड़मरोड़कर मं की तरंग की संभावनाओ के साथ कुलाबा भिड़ाते हुए देखते है/इन सपनों का मुहूरत से कोई संबंध नहीं होता है/

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