पता नहीं आजकल बिट्स, पिलानी में विभिन्न सोशियो-इकनॉमिक बैकग्राउण्ड के विद्यार्थियों के वर्गों के लिये कोई संज्ञायें हैं या नहीं या हैं तो कौन सी है? मेरे जमाने में – सत्तर-अस्सी के दशक में – कैस्टर और मस्टर्ड हुआ करते थे। कैस्टर (अरण्डी) अंग्रेजीदाँ विद्यार्थी थे। स्कूली शिक्षा उनकी बड़े शहरों में हुई होती थी। अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा पाये वे फार्वर्ड माने जाते थे। लड़कियों के हॉस्टल, मीरा भवन, की छात्रायें सामान्यत: उन्ही केस्टरों के साथ मिला करती थीं। पहले दूसरे वर्ष में कक्षाओं में प्रश्न पूछने और प्रोफेसरों से बोलने बतियाने में वे ही आगे हुआ करते थे। मैं केस्टरों में नहीं था।
मस्टर्ड (सरसों) उन छात्रों को कहा जाता था, जो हिंदी माध्यम से पढ़े, छोटे शहरों या कस्बों के होते थे। उनकी पृष्ठभूमि निम्न मध्यवर्ग की होती थी। अंग्रेजी में बोलना उन्हें नहीं आता था। मैं राजस्थान के एक कस्बे – नसीराबाद (अजमेर) – से आया था और मेरा बैकग्राउण्ड लोअर मिडिल क्लास से मिडिल क्लास के बीच में कहीं था। हिंदी माध्यम से पढ़ा था। गरभ – गणित-रसायन-भौतिकी – के अंक बहुत अच्छे थे पर उन्हें पढ़ा हिंदी माध्यम से ही था। सो अंगरेजी में हाथ बहुत ही तंग था। लड़कियों से बोलने बतियाने की कोई आदत नहीं थी। मैं मस्टर्ड था। खांटी सरसों!
पहले वर्ष की कक्षायें मेरे लिये टॉर्चर ही थीं। बिट्स में हिंदी की बहुत कद्र नहीं थी। पढ़ाया गया ज्यादा समझ नहीं आता था। प्रोफेसर जो पढ़ाते थे, उसका पहले मन में हिंदी अनुवाद करता था। एक दो महीने बाद कक्षा में एक दो सवाल अंग्रेजी में पूछने का यत्न करता था, पर कई बार अंग्रेजी बोलने में गड़बड़ा जाता था। उसने अच्छा खासा इनफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स दिया। पर हम मस्टरों की संख्या पिलानी के हिंदी पट्टी में होने के कारण, अच्छी खासी थी। हम लोग स्कूली शिक्षा में अद्वितीय होने के कारण ही बिट्स में प्रवेश पाये थे, सो जद्दोजहद करने की इच्छा अदम्य थी। दो तीन सेमेस्टर लगे मुझे अपनी अंग्रेजी सुधारने मेंं। तब कक्षा में पर्याप्त पार्टीसिपेटिव बन पाया। फिर भी रहा रहा मस्टर्ड का मस्टर्ड ही। आज भी वही हूं। अपने काले पंख रंग कर हंसों की जमात में शामिल हो कर दोयम दर्जे का केस्टर बनने की कोशिश नहीं की। हां, कुछ मस्टर्ड स्यूडो केस्टर जरूर बन गये। … धुर दक्षिणपंथी मस्टर्ड होने के कारण मैं अपने जुनून को पालता गया और आज अपने वानप्रस्थ आश्रम में इस गांव में रहता, साइकिल चला रहा हूं। परदेस या किसी मेट्रो में नहीं बसा।

दो ग्रेफिटी वाली पत्रिकायें छात्र निकालते थे। हिंदी वाली ‘रचना’ कही जाती थी। अंग्रेजी वाली का नाम मुझे अब याद नहीं है। मैं हिंदी वाली वाल-मैगजीन का सम्पादक था। साठ सत्तर प्रतिशत लेखन भी मुझे करना होता था। उसकी हिंदी आज मेरे ब्लॉग की हिंदी से अलग प्रकार की थी। उस समय हिंदी की पत्रिका ‘दिनमान’ छपा करती थी। उसकी भाषा और रघुवीर सहाय के लेख/सम्पादकीय का मेरे ऊपर प्रभाव था। हिंदी के अखबारों, धर्मयुग और दिनमान की नकल करने का प्रयास करता था और वह बहुत अच्छा प्रयास नहीं था। फिर भी मस्टर्डों में वह पत्रिका – वाल मैगजीन – ठीकठाक पैठ रखती थी।
हम वह पत्रिका हाथ से एक मेटल स्टाइलस से लिखा करते थे। नीले रंग के मोमिया स्टेंसिल पर लिख कर उसकी साइक्लोस्टाइलिंग मशीन से करीब सौ प्रतियां निकाली जाती थीं। चार से आठ पन्ने की पत्रिका हम प्रत्येक हॉस्टल के और बिट्स के सभी नोटिस बोर्डों पर पिन कर टांगा करते थे। अधिकांश छात्र वहीं खड़े खड़े पढ़ा करते थे। कुछ प्रतियां हम सहेज कर रखने और बांटने के लिये भी बनाते थे। एक दो साल मैंने वह पत्रिका निकालने का काम किया।
मैं जन्मजात मस्टर्ड; हिंदी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से फिर हिंदी में आया हूं। उसका असर यह है कि न हिंदी अच्छी बनी और न अंग्रेजी। दुविधा में दोनू गये, माया मिली न राम।
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मैं रहा रहा मस्टर्ड का मस्टर्ड ही। आज भी वही हूं। अपने काले पंख रंग कर हंसों की जमात में शामिल हो कर दोयम दर्जे का केस्टर बनने की कोशिश नहीं की। हां, कुछ मस्टर्ड स्यूडो केस्टर जरूर बन गये।
कालांतर में; चूंकि सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती थी; मेरा सोचना और अभिव्यक्त करना अंग्रेजी में होने लगा। मेरी हिंदी खुरदरी और अंग्रेजी के शब्दों से भरी होने लगी। तकनीकी शब्दों और कहावतों का हिंदी तर्जुमा मिलता नहीं था। इसलिये, भले ही प्रवृत्ति में मैं मस्टर्ड ही रहा, मेरी हिंदी लंगड़ी होती गयी। पिलानी से निकलने के बाद लगभग तीन दशकों तक हिंदी में अभिव्यक्ति का यत्न बहुत कम रहा।
सन 2007 में अचानक रवि रतलामी के ब्लॉग पर नजर पड़ी और मुझे समझ आया कि हिंदी में लिखने और ब्लॉगिंग का भी एक संसार विकसित हो रहा है। मेरी मस्टर्डीयता ने जोर मारा। मैंने हिंदी में ब्लॉग बनाया। शुरुआती हिंदी अटपटी रही ब्लॉग पर। करीब रुपया में सात आठ आना भर अंग्रेजी के शब्द, देवनागरी में लिखे होते थे उसमें। अब भी हैं। अब 7-8 आना से कम हो कर एक दो आने पर आ गये हैं। हिंदी में हाथ तंग है, पर फिर भी हिंदी पट्टी के पाठकों ने मुझे स्वीकार कर लिया है। शायद!
मैं जन्मजात मस्टर्ड; हिंदी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से फिर हिंदी में आया हूं। उसका असर यह है कि न हिंदी अच्छी बनी और न अंग्रेजी। दुविधा में दोनू गये, माया मिली न राम। मैं स्वांत: सुखाय लिखता जाता हूं। सोच में मैं खांटी मस्टर्ड हूं। महिलाओं के साथ बोलते बतियाते अभी भी झिझक होती है मुझे। हमेशा आशंका रहती है कि मैंने कुछ ऐसा तो नहीं कहा-लिखा जो फीमेल जेण्डर को रिडीक्युलस लगे। केस्टरों के प्रति, अंग्रेजी गानोंं, फिल्मों और स्यूडो-मॉर्डेनिटी के प्रति वह भाव है जो उन्हें अपने डोमेन में स्वीकार नहीं करना चाहता। सड़सठ साल की उम्र तक जब अरण्डी (केस्टर) नहीं बना तो अब क्या बनूंगा।
सीनियर सिटिजन बनने के बावजूद भी मेरी आंतों में अच्छे बेक्टीरिया अभी भी ठीक ठाक हैं। कब्ज की शिकायत मुझे नहीं होती है। यदाकदा पूड़ी-कचौडी खा भी लिया तो ईसबगोल सेवन से काम चल जाता है। अगले दिन निपटान ठीक ही होता है – बिना प्रयास किये। इसलिये मुझे अरण्डी के तेल की या केस्टर पन्थ में दीक्षा लेने की जरूरत नहीं पड़ी। उसके उलट, डालडा, रिफाइण्ड तेलों को लांघते हुये अब हम सरसों के तेल का सेवन करने लगे हैं। घर में अब कच्ची घानी का सरसों का तेल ही आता है। अभी तो मन हो रहा है कि एक किचन एक्स्पेलर खरीद कर घर में ही सरसों का तेल निकाला जाये अपने इस्तेमाल के लिये। सो मैं और मेरा परिवार मस्टर्डपंथी ही है। 😆

सर्दियां आने को हैं। गेंहू के साथ सरसों की बुआई होगी। सरसों के फूल मुझे प्रिय हैं। उनका इंतजार है। आखिर हूं तो मस्टर्ड ही न मैं! 😆
सादर अभिवादन।
बिहार /झारखंड से हिंदी माध्यम में मैट्रिक और इंग्लिश मीडियम में इंटर कर के मैं आगे की पढ़ाई के लिए गोवा चला गया था। महीनों लगे कक्षा में बाकी छात्रों या शिक्षकों से खुलकर बात करने में। अंग्रेजी में किताबें तो पढ़ कर समझ सकता था लिख सकता था मगर दिनचर्या की बोलचाल अंग्रेजी में कर पाना कभी सहज ना हो पाया। आपका लिखा कई पुरानी यादों को ताजा कर गई। जैसा कि प्रवीण पांडे जी ने कहा कि आपने कई मस्टर्डस की कहानी इस ब्लॉग में बयां
की है। आप स्वांतः सुखाय हिंदी में लिखते रहें मगर इसमें बहुजन का सुख है।
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जय हो 🙏🏼
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पता नहीं कितने मस्टर्डों की अनकथी कथा आपने कह दी।
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ओह! अब समझ में आया कि कुछ देर से आपके लेखन की किश्त मिलने में और चवन्नी लाल के कचोरे की तलब में क्या संबंध है।
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Haha 😂
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Sir, Hum to abhi tak mustard hai. Esi vajah se engineering ke 1st year me fail ho gaye. Lekin mustard ka junun alag hi hota hai. Aur aaj ek thik thak mukam per hai castor ke samkasha hi hai. lekin yeh UP Bihar ke hazaor mustards ki kahani hai. Yeh mustards apne junoon se kafi aage nikal gaye hai. Can not type in hindi karpya kshma kare.
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धन्यवाद टिप्पणी करने के लिए, रस्तोगी जी 🙏🏼
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