आते रहा करो चच्चा!

लोग और मीडिया कह रहे हैं कि क्लाइमेट चेंज से प्रेरित मौसम गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। मुझे भी लग रहा है।

बीस साल पहले जब मैं रतलाम में रहता था तो वहां सर्दियां शुष्क होती थीं और वातावरण में धूल ज्यादा ही होती थी। वहां के शुरुआती दिनों में मैंने देखा था कि नगरपालिका पानी के टेंकरों से दो बत्ती चौराहे (जिसे रतलाम का इण्डियागेट या कनाटप्लेस जैसी जगह कहा जा सकता था और जहां मेरा दफ्तर – डीआरएम ऑफिस – हुआ करता था) पर धूल से निजात के लिये सड़क धोया करती थी। सूखे मौसम और धूल के कारण मुझे सांस लेने में सर्दियों में दिक्कत हुआ करती थी। कभी कभी तो मैं केडीला का इनहेलर – जो दमा के मरीज ले कर चला करते हैं – अपने पास रखता था।

उसके बाद जब मेरी पोस्टिंग उत्तर प्रदेश की तराई के इलाके – गोरखपुर – मे हुई तो वहां की नमी के कारण मुझे सांस लेने में कभी दिक्कत नहीं हुई। सर्दियों में खांसी और/या सांस भारी चलने की कभी शिकायत नहीं हुई। लेकिन अब, इस साल वातावरण में शुष्कता और धूल यहां वैसी ही है, जैसी मध्यप्रदेश के मालवा में हुआ करती थी। अब महीने भर से ज्यादा हो गया जब मेरी खांसी नहीं जा रही और कभी कभी सांस लेने में भी दिक्कत हो रही है। सवेरे बाहर साइकिल ले कर निकलते समय एक पतला मास्क लगाने से आराम मिल रहा है। उससे मुंह पर ठण्डी हवा भी नहीं लगती और धूल से भी बचाव हो रहा है। बस यही दिक्कत है कि मास्क लगाते समय चश्मा उतार देना होता है अन्यथा सांस की भाप उसपर जम कर दृष्यता कम कर देती है।

सांस की समस्या को ले कर मैं महराजगंज कस्बे के आयुर्वेदिक अस्पताल गया। खांसी-सर्दी के लिये वहां पखवाड़े पहले गया था। उनके आयुष किट से लाभ भी हुआ था। खांसी कम हो गयी थी। पर सांस की दिक्कत कायम थी या बढ़ गयी थी। … वातावरण में धान की कटाई और पुआल की ढुलाई/उससे भूसा बनाने की प्रक्रिया में तेजी आने से धूल ज्यादा ही कष्ट दे रही है।


अस्पताल में फार्मासिस्ट शिवपूजन त्रिपाठी ही थे।

अस्पताल में फार्मासिस्ट शिवपूजन त्रिपाठी ही थे। डाक्टर साहब आज भी नहीं थे। शिवपूजन जी ने बताया – “चच्चा, यहां तो छोटा अस्पताल है। भदरासी (मोहन सराय और अदलपुरा के बीच बनारस से निकटस्थ स्थान) में बड़ा, पचास बिस्तर का अस्पताल है। वहां सर्जरी भी होती है। वहां डाक्टर साहब हफ्ते में तीन दिन अटैच हैं। यहां तो वे सोम, बुध और शुक्रवार को ही मिल सकेंगे।”

खैर, मेरा ध्येय तो दवाई लेना था। मेरे लिये तो शिवपूजन जी का होना ही पर्याप्त था। उनसे पिछली मुलाकात पर लिखी ब्लॉग पोस्ट उन्होने पढ़ी थी। अच्छी ही लगी होगी उन्हें। उसी का परिणाम था कि बड़े मनोयोग से उन्होने और उनके सहायक मनोज ने मेरे लिये सप्ताह भर की दवाओं की पुड़ियाँ बना कर मुझे दीं।

उन्होने बताया – एक पुड़िया में शीतोपलादि, गोदंती, शंख, सोम और चिरायता का मिश्रित चूर्ण है। उसे सुबह शाम शहद के साथ लेना है। दूसरी पुड़िया में चंद्रामृत रस, त्रिभुवनकीर्ति रस, खरिरादि वटी और आयुष-64 वटी हैं। उन्हें पानी के साथ लिया जा सकता है।

बड़े मनोयोग से शिवपूजन त्रिपाठी जी और उनके सहायक मनोज ने मेरे लिये सप्ताह भर की दवाओं की पुड़ियाँ बना कर मुझे दीं।

इन दवाओं के अलावा मुझे आयुष-किट भी पुन: दिया। “चच्चा, आप जैसे उम्र वालों के लिये ही विशेष रूप से सरकार ने सप्लाई किया है। आप जो बाजार से खरीद कर चवनप्राश सेवन कर रहे हैं, उसकी बजाय इस किट वाला ही पहले खाइये, यह ज्यादा गुणकारी है।” – त्रिपाठी जी ने अपने भरपूर आदर और स्निग्धता से मुझे सिंचित कर दिया।

त्रिपाठी जी धूप में बैठे थे। मुझे भी आग्रह किया – “थोड़ी देर बैठि क धूप ल चच्चा। (थोड़ी देर धूप का आनंद लीजिये चच्चा।)”

वहां से मैं चलने को हुआ। मेरा वाहन चालक गाड़ी घुमा चुका था। त्रिपाठी जी ने कहा – “आपने अपने लेख में लिखा था कि अगली बार साइकिल से आयेंगे। आप साइकिल से आये होते तो और अच्छा लगता चच्चा! बाकी, आप आते रहा करें। आपका आना अच्छा लगता है और हम भी कुछ नया सीख सकते हैं।”

लेखनी का प्रभाव होता है; नहीं?! आप किसी के बारे में सकारात्मक लिखें, बिना किसी अतिरेक भरी लप्पो-चप्पो के। सीधा और सरल लिखा तो उस व्यक्ति को, अपरिचित होने पर भी, स्नेह सिंचित कर ही देता है। त्रिपाठी जी द्वारा मुझे दिया आदर-स्नेह मुझे यह गहरे से अहसास करा गया।

मैं डाक्टर साहब से मिल कर दीर्घायु और उसके लिये उचित आयुर्वेदिक जीवन पद्धति के बारे में उनके विचार जानना चाहता था। वह फिर कभी। अभी तो यह विचार गहरे से बना रहा कि शिवपूजन त्रिपाठी जी से मिलने ही वहां जाया जा सकता है। जब मन आये तब!

चलते समय त्रिपाठी जी ने फिर कहा – आवत रहा करअ चच्चा! (आते रहा करो चच्चा!)।


गांवदेहात में आने पर चच्चा, फुफ्फा, दद्दा जैसे सम्बोधन मिलते हैं मुझे। अजब गजब तो तब था जब मैं सड़क पर साइकिल से गुजर रहा था और सड़क किनारे निपटान को बैठी पांच छ साल की लड़की वहीं से बोली थी – पालागी दद्दा! लड़की का नेकर या पायजामा निपुचा हुआ था पर माता पिता के दिये बड़ों के अभिवादन के संस्कार उसमें कायम थे!

इन सम्बोधनों के अलग पूरी कामकाजी जिंदगी तो गुजार दी “सर” नामक सम्बोधन सुनते हुये।

यहाँ भी मुझे अफसर मानता हुआ गांव का ही एवजी चौकीदार लगा हुआ वह आदमी सवेरे मुझे सैर के लिये निकलते देख अपनी जगह से उठ कर अटेंशन की मुद्रा में हाथ नीचे कर मुठ्ठियां बांधे कहता है – गुड नाइट सर!

इन सब के सम्बोधन में कतरा कतरा ह्यूमर है। पर शिवपूजन त्रिपाठी जी के ‘चच्चा’ में आदर सिंचित अपनत्व है! जय हो!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “आते रहा करो चच्चा!

  1. ब्लॉगिंग के जमाने से आप चच्चा ही रहे हैं, गिरिजेश भाई ने संभवतः पहली बार आपको चच्चा से संबोधित किया, उसके बाद आपके लिए यह संबोधन लगभग स्थाई ही है 🙂

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