पसियान की कोने वाले खपरैल के मकान के पिछवाड़े की मिट्टी लिपी दीवार पर विज्ञापन देखा – रविवार और मंगलवार खाली पेट। बवासीर की दवा। वैद्य संगीता पत्नी कमलाशंकर। मोबाइल नम्बर भी दिया है।
बैद्य जी की बवासीर की दवा चल निकली तो उसके साथ गैस्टिक (?), मासिक (धर्म), पथरी और दाद और जुड़ गये हैं। मुझे यकीन है कि इस तरह के और मर्ज भी जुड़ेंगे; जिनके शर्तिया इलाज का धंधा भारत का सबसे व्यापक सेल्फ एम्प्लॉयमेण्ट का स्रोत है।
ये सभी रोग देसी चिकित्सा के दायरे में अनेकानेक प्रकार के “शर्तिया इलाज” की श्रेणी में आते हैं। वैद्य संगीता पत्नी कमलाशंकर तो महिला होने के कारण इन्हीं ‘निरीह’ रोगों के इलाज के विज्ञापन कर रही हैं; अन्यथा ढेरों हकीम लोग तो अपने विज्ञापनों के भारतवर्ष की दीवारें इस तरह पाटे हुये हैं कि लगता है अधिकांश भारत शीघ्रपतन और नामर्दी का ही मरीज है! और तब भी न जाने क्या तासीर है यहां के पानी में कि नामर्दी के बावजूद भी जनसंख्या में बेशुमार वृद्धि हो रही है।
मेरे घर से कुछ सौ कदम की दूरी पर ही वैद्य संगीता जी का बवासीर इलाज का तम्बू लगा है। गंगा किनारे आते जाते मन होता था कि वहाँ जा कर इलाज की विधा का पता करूं। पर यह भी लगता था कि वहां जाने पर मुझे कोई बवासीर-फिश्तुला का मरीज न समझ ले। सो गया नहीं।
टोह लेने के लिये मैंने एक ऐसे सज्जन से बात की, जो बवासीर से लम्बे अर्से से ग्रस्त हैं और उनकी बीमारी इतनी जग जाहिर है कि उसे छिपाने का कोई प्रयास वे नहीं करते। उनसे पूछा – यह घर के पास ही इलाज हो रहा है बवासीर का, फिर भी आप संगीता बैद्य जी के पास नहीं गये?
“गया था। वह कोई पेड़ की जड़ उबाल कर पिलाती हैं। पहले एक बार की फीस पचास रुपया थी। ज्यादा प्रचार किया तो अब सौ रुपया लेना शुरू कर दिया है। पर मुझे उस जड़ी पीने से कोई नफा नहीं हुआ।”
“फिर क्या किया? किसी डाक्टर के पास गये?“
“नहीं। पर पसियान का फलाने है, वह कमर में बांधने को एक तावीज देता है। वह बहुत कारगर है। तावीज से बहुत आराम हुआ। तावीज में कपड़े में लपेटी कन्नी कौन (पता नहीं, कोई) बिरई (पेड़ से निकली जड़ या छाल जैसी चीज) होती है। जब तक वह तावीज बांधे रहते हैं, बवासीर तकलीफ नहीं देती। तावीज पुरानी हो जाये तो एक नई ले आता हूं। वही तावीज बांध रखी है। तब से ठीक चल रहा है।”
मैंने उन सज्जन से पूछा – तावीज देने के साथ कोई खान-पान के परहेज की भी बात की है क्या फलाने जी ने?
और पूछा तो पता चला कि फलाने किसी ढिमाके का भाई है। ढिमाके कहीं कम्पाउण्डरी करता था। अब वह गांव में इण्डीपेण्डेण्ट डाक्टरी करता है। सुई लगा लेता है। ड्रिप चढ़ा देता है। सर्दी-बुखार में एण्टीबायोटिक दे देता है। इससे ज्यादा बड़ी डाक्टरी की गांव के स्तर पर जरूरत नहीं। उस झोलाछाप के भरोसे गांव ने कोरोना की दोनो-तीनों लहरें झेल ली हैं। अब उसका भाई भी बिरई वाला तावीज दे कर क्षेत्र को बवासीर मुक्त कर रहा है। … भारत के गांवदेहात के हेल्थकेयर का यही भूत-वर्तमान-भविष्य है।
“नहीं वैसा तो कोई परहेज नहीं बताया।”
मुझे अजीब लगा। पूरा गांवदेहात हरी और लाल मिर्च झोंक कर बनाई लहसुन की झन्नाटेदार चटनी का मुरीद है। दाल और सब्जी के मुकाबले यह काफी सस्ता पड़ता है। उस झन्नाट से तो बवासीर तो और भी भीषण हो जाती होगी। पाइल्स के मरीज को भोजन तो सादा ही करना चाहिये। पर तावीज की बिरई तो इतनी असरदार है कि कोई भी खाना पच जाता है! 😆
मैंने और तहकीकात नहीं कि वर्ना कोई भूत-प्रेत स्पेशलिस्ट भी पता चल जाते जो खूनी बवासीर के इलाज के लिये मशहूर होते। आखिर बीस तीस पार्सेण्ट भूल-चुडैल जरूर होती होंगी जो छोटी-बड़ी आंत और उसके नीचे रेक्टम को जकड़ती होंगी। उनके भी अपने स्पेशल मंतर होते होंगे और उनके लिये भी नीम्बू-मुरगा-बोतल चढ़ावे का विधान होता होगा।
इस देसी चिकित्सा में कुछ तथ्य हो सकता है; पर अधिकांशत: यह सब झोलझाल ही है। रोग बढ़ने और असाध्य हो जाने पर लोगों को डाक्टरों के पास जाते सुनता देखता हूं। मरणासन्न होने पर बनारस तक की दौड़ लगाते हैं लोग; पर इलाज की पहली सीढ़ी पर तो ये ही झोलाछाप चिकित्सक या भूत-प्रेत विशेषज्ञ ही होते हैं। गांवदेहात में ये भी अच्छी खासी कमाई कर लेते हैं और वह भी बिना किसी आयकर के।
भारत एक दो दशक में विकसित देश हो जायेगा। पर तब भी इलाज के इस सेगमेण्ट का व्यवसाय चलता रहेगा। झोलाछाप इलाज आर्थिक उन्नति पर नहीं, मकड़जाल वाली मनस्थिति पर निर्भर करता है। इरेक्टाइल डिस्फंक्शन के लिये लोग किसी यूरोलॉजिस्ट के पास नहीं जायेंगे। उस सब के लिये साण्डे का तेल बेचने वाले सड़कछाप नट-बनचरों का मार्केट बना रहेगा। रागदरबारी के बैद्य जी की बकरी की लेड़ी जैसी काली गोली ‘नवयुवकों में आशा का संदेश’ बराबर देती रहेगी।

भारत एक ही समय में बीस अलग अलग शताब्दियों में जीता है। ये तावीज और बिरई वाले लोग चलते रहेंगे। पिछले सात साल से तो मैं देख रहा हूं। स्मार्टफोन और यू-ट्यूब के युग में सूचना क्रांति आने के बावजूद कोई अंतर नहीं आया है! यू-ट्यूब मैंने छाना नहीं, पर वहां भी तंत्र-मंत्र-घण्ट वाले बाबा बंगाली का एक दो लाख सब्स्क्राइबर वाला चैनल शायद हो! 😆
middle class aadmi tak ilaaj nahi karwa sakta.. khaal kheench li jaati hai ilaaj ke naam par.. aise me aise hi log sahay hain… bhoga hua satya yahi hai ki ab ilaaj kewal aur kewal uchh varg hi karwa sakta hai. sarkari naukar to sone ki murgi dene wala anda hai jab tak ki uska bill sarkar de.. otherwise wo bhi gaya hi gaya.. behtar ki aadmi gambhir beemar hone ki jagah jaldi mar jaaye… kam se kam jo kuchh thoda bahut hai, bacha rahega.. haan… aiims jaise sansthano me aaj bhi ilaaj hota hai, hota rahega.. waha ke doctors bhagwan hai…
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इलाज वास्तव में मंहगा है.
पर यह भी है कि भारतीय घरों में स्वास्थ्य के ऊपर खर्च की प्लानिंग नहीं होती. लड़की के दहेज और लड़के को कोटा की कोचिंग दिलाने के लिए प्लान किया जाता है पर अपने खुद के अस्थमा या पथरी के इलाज को उपेक्षित रखा जाता है… 😔
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बहुत सुंदर चित्रण है ठेठ गाँव देहात की मानसिकता का। उनकी चाल अपनी तरह की इकलौती ही होगी। सोशल मीडिया चाहे दुनिया के दूसरे छोर पर पहुँच जाये उनकी नियति, सोच और दायरा शायद बदलने वाला नहीं। हमारा गाँव बीनापुर, भोपाल शहर से सटा हुआ है, १३ किमी। पर गाँव की कथा व्यथा बिलकुल वैसी ही है जैसा आप ने लिखा है। गाँव में कहने को तो ३-४ डीपी हैं पर चलता एक ही है और उसी पर सारे गाँव वालों ने कटिया (तार फँसाकर बिजली लेने की व्यवस्था) टाँग रखे हैं। वो डीपी भी आये दिन बैठ जाता है तो गाँव के कुछ ख़ास तुरंत पार्षद का नाम लेकर बिजली ऑफिस पर धरना दे देते हैं। मीटर कुछ होंगे पर बिल शायद ही कोई भरता होगा। मुफ़्त का राशन कब मिलेगा, कौन सा सरकारी लोन लेने के बाद क़र्ज़ा माफ़ हो जायेगा, गोरू (गाय भैंस) को कौन सा इंजेक्शन देने से दूध बढ़िया मिलेगा। इन सबके लिए बैठकों का दौर चलता रहता है। किसान को किसानी से दूर कर दिया है मुफ़्त की आदत ने। सरपंची के चुनाव में २०० लोगों के गाँव में ८ उम्मीदवार खड़े हुऐ और उनमें से ६ रिश्तेदार। ऐसा लगा लोकसभा का चुनाव हो रहा है। भगवान जाने ये गाँव कहाँ जा रहे हैं। फिर भी सब चल रहा है।
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असली बात है कि “फिर भी सब चल रहा है”. 😊
यह देख कर कोई नास्तिक भी भगवान में यकीन करने लगे. 😁
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ग्रामीण क्षेत्रों मे और इसके बहुत इंटीरियर तक जाकर और वहा चिकित्सा व्यवस्था देखने का मुझे बहुत अच्छा खासा अनुभव है/आज भी ग्रामीणों मे यही हाल है/इसमे ग्रामीणों की सोच मे कोई बदलाव नहीं आया है/पिछले 60+ साल से मै ऐसा ही देखता चला आ रहा हू/जैसा आज आप लिख रहे है यह सोलह आने सही है /नर्सिंग कालेज और फार्मेसी कालेज मे अध्ययन रत सभी लड़के और लड़कियाजिनको मै पढ़ाता हू वे जहा रहते है वहा के सबसे बेहतरीन माहिर और अपने आपको विश्व के सबसे बेहतरीन चतुर और मंजे हुए डाक्टर समझते है/मुझे हैरानी तब हुयी जब एक पढ़नेवाले लड़के ने यह कह दिया की आपको इलाज करना नहीं आता और इलाज कैसे करते है यह हमसे सीखिए/ग्रामीण लेवल की स्वास्थय स्तिथि बहुत खराब है और इसका कारण आर्थिक,, व्यावसायिक, दूरी ,साधन उपलब्धता की कमियों से भी जोड़कर देखना चाहिए/निदान की मशीनों का अभाव पैथोलाजी जांच की सुविधा का अभाव, दवाओ का अभाव चिकित्सकों का अभाव आदि बाते जब तक बनी रहेंगी तब तक ऐसी ही स्तिथि बनी रहेगी/बवासीर फिसचुला रेक्टम कैंसर बीमारिया शुगर लीवर आंतों के इन्फेक्शन गुर्दों की बीमारियों खून मे पीएच की स्तिथि और बहुत से फ़ैक्टर्स पर आधारित होती है जिनका निदान न होने से ये बीमारिया घटक हो जाती है/बनारस मे बीएचयू के इंस्टीट्यूट आफ मेडिसिन मे जाकर इलाज कराना सबसे श्रेयस्कर है/झोलाछापों से सिवाय हानी होने के कोई फायदा होने की उम्मीद न करे /
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आपने बहुत सही बयान किया चिकित्सा की ग्रामीण दशा का. धन्यवाद वाजपेई जी 🙏🏼
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प्राचीन काल में बवासीर को अर्शास कहते थे। वेदों में इसके लिए मंत्र भी है: “नाशयित्री बलासस्यार्शस उपचितामसि । अथो शतस्य यक्ष्माणाम्पाकारोरसि नाशनी ॥ ( यजुर्वेद १२.९७ )”
🙂
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पुराना रोग है. पढ़ा था कि आदि शंकराचार्य की मृत्यु भी इसी के कारण हुई थी.
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