गेंहू की तलाश में ढूंढी यादव

सवेरे सवेरे ढूंढी आये। अशोक कऊड़ा जला चुका था। पहले उन्होने पास बैठ शरीर गर्म किया। उन्होने मुझसे मिलने की बात कही तो अशोक ने मुझे खबर दी। बाहर निकल कर उनसे मिला। उन्होने पैलगी की। उसके बाद अपने आने की मंशा – “जीजा, कोटेदार कहेस कि आपके लगे गोंहू होये। (जीजा कोटेदार – राशन बांटने वाला मुलाजिम – ने कहा है कि आपके यहां गेंहू मिल सकता है।)”

ढूंढी यादव

कोटेदार प्रजाति के लोग भ्रष्ट नौकरशाही का मूलाधार हैं। वे स्थानीय नेता और फूड सप्लाई विभाग की नौकरशाही के बीच सेतु भी हैं। आम जनता – जो अपने अधिकारों के प्रति उतनी सजग नहीं होती – को यह तिकड़ी ठगती है। और उस ठगी की कीली है कोटेदार नामक जीव। लोगों को समय पर राशन न देना। झूठ बोलना कि अभी सप्लाई नहीं आयी है। सप्लाई आने पर भी लोगों को उनका बायोमीट्रिक वेरीफिकेशन के लिये झिलाना या अंगूठा लगवाने पर भी कम तोल कर राशन देना उनकी यूएसपी है।

आजकल गेंहू की राशन में उपलब्धता की मारामारी है। ज्यादातर लोगों को चावल ही मिल रहा है फ्री वाले राशन में। लगता है गेंहू का भण्डार कम हो गया है सरकार के पास। दूसरे, गेंहू के बाजार भाव 28-30 रुपया किलो हैं। अगर सरकार गेंहू रिलीज भी कर रही है राशन में तो उसे कोटेदार लोग बाजार में बेंच कर उसके बदले चावल ही दे रहे हैं जनता को। आखिर, लोगों से सरकार सीधे संवाद तो करती नहीं। अगर लोगों को सीधे मोबाइल पर मैसेज आये कि इस बार फलां तारीख को उनके गांव में इतना इतना गेंहू, चावल, तेल, चना मिलेगा तो कोटेदार का डंडी मारना कम हो जाये। पर वैसा होता नहीं। सूचना तंत्र में बहुत खुलापन आया है; पर अब भी भ्रष्ट नौकरशाही को खेलने खाने के लिये बहुत बचा है।

ढूंढी यादव को अपने घर के खाने के लिये गेंहू चाहिये। पिछली फसल के समय गेंहू के भाव यूक्रेन युद्ध के बाद चढ़ रहे थे। बिचौलियों, आढ़तियों ने घर घर जा कर 19-20 रुपये प्रति किलो गेंहू खरीदा। ढूंढी ने भी उस समय अपनी फसल का गेंहू निकाल दिया था। उन्हें यह यकीन था कि खाने भर का गेंहू राशन में मिलता रहेगा। पर अब राशन में चावल की सप्लाई होने के कारण उनका गणित गड़बड़ा गया है। ढूंढी का परिवार बड़ा है। उसके अलावा इस साल घर में शादी पड़ी थी। गेंहूं उसमें पूड़ी बनाने में लग गया। अब दो तीन महीने के लिये गेंहू कम पड़ गया है। अगली फसल आने तक के लिये वे आसपास गेंहू की तलाश में घूम रहे हैं। कोटेदार को टटोला होगा तो उसने मेरे घर का नाम ले लिया – उनके यहां हो सकता है।

मैं ढूंढी की सहायता नहीं कर पाया। मैंने उन्हें केवल एक कप चाय पिलाई। हालचाल पूछा और रवाना किया।

हमने अपने खाने भर को रख कर बाकी गेंहू घर पर आ कर खरीद कर ले जाने वाले बनिया को बेच दिया था। सो हमारे पास भी गेंहू नहीं है। गेंहू की पूरे इलाके में किल्लत है और सरकारी सप्लाई में जो आ भी रहा है, वह (अधिकांशत:) खुले बाजार में चला जा रहा है।

मैं ढूंढी की सहायता नहीं कर पाया। मैंने उन्हें केवल एक कप चाय पिलाई। हालचाल पूछा और रवाना किया। पर ढूंढी के बहाने मेरी गांव के स्तर की सरकारी मशीनरी के प्रति खीझ उभर आयी। यहां, सात साल रहते हो गये मुझे और चार पांच बार फार्म भरने, फोटो देने के बाद भी मेरा राशन कार्ड नहीं बना है। शायद इस लिये कि हमने कोई ‘दक्षिणा’ देने की सोची भी नहीं। … मेरा परिवार सरकारी राशन व्यवस्था से अलग है। अपने खेत की उपज या ओपन मार्केट पर निर्भर हैं हम।

आज ढूंढी आये तो कुछ लिखने – पोस्ट करने का मन हो आया। अन्यथा आजकल लिखा भी कम जा रहा है और गांव देहात में भ्रमण भी नहीं हो रहा है। सर्दी ने जीवन-अनुभव को सिकोड़ दिया है।


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

4 thoughts on “गेंहू की तलाश में ढूंढी यादव

  1. निम्न-मध्यम वर्गीय ग्रामीण परिवारों के लिए कोटेदारों की इस तरह की बेईमानियाँ किसी अत्याचार से कम नहीं हैं.

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    1. निश्चय ही, अत्याचार है वह. और वे कोई लोकप्रिय व्यक्ति नहीं ही हैं.

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