जीवन एक उत्सव है. जीवन में छोटे से छोटा अनुष्ठान इस प्रकार से किया जाए कि उसमें रस आये – यह हमारे समाज की जीवन शैली रही है। इसका उदाहरण मुझे मेरी मां द्वारा वड़ी बनाने की क्रिया में मिला।
मां ने बताया कि कोंहड़ौरी (कोंहड़े व उड़द की वड़ी) को बहुत शुभ माना गया है। इसके बनाने के लिये समय का निर्धारण पण्डित किया करते थे। पंचक न हो; भरणी-भद्रा नक्षत्र न हो – यह देख कर दिन तय होता था। उड़द की दाल एक दिन पहले पीस कर उसका खमीरीकरण किया जाता था। पेठे वाला (रेक्सहवा) कोहड़ा कोई आदमी काट कर औरतों को देता था। औरतें स्वयं वह नहीं काटती थीं. शायद कोंहड़े को काटने में बलि देने का भाव हो जिसे औरतें न करतीं हों। पड़ोस की स्त्रियों को कोहंड़ौरी बनाने के लिये आमंत्रित किया जाता था। चारपाई के चारों ओर वे बैठतीं थीं। चारपाई पर कपड़ा बिछाकर, उसपर कोंहड़ौरी खोंटती (घोल टपकाकर वडी बनाती) थीं। इस खोंटने की क्रिया के दौरान सोहर (जन्म के अवसर पर गाया जाने वाला मंगल गीत) गाती रहतीं थीं।
यह अप्रेल 2007 की पोस्ट है। मुझे हिंदी ब्लॉगिंग शुरू किये तीन महीने ही हुये थे। कम्प्यूटर पर हिंदी लिखना बहुत कष्ट वाला काम था। तीन सौ शब्द की पोस्ट लिख पाना बहुत बड़ी बात थी। मैं नया ब्लॉगर था तो उत्साह बढ़ाने वाले भी थे और यह कहने वाले भी कि “हिंदी ठीक से लिखनी तो आती नहीं, चले हैं लेखक बनने!” पर वे आलोचक और प्रशंसक – दोनो तरह के लोग अब ब्लॉग पर सक्रिय नहीं हैं। मुझ जैसे कुछ अभी भी अपना ब्लॉग जीवित रखे हुये हैं! 🙂
सबसे पहले सात सुन्दर वड़ियां खोंटी जाती थीं। यह काम घर की बड़ी स्त्री करती थी। उन सात वड़ियों को सिन्दूर से सजाया जाता था। सूखने पर ये सात वड़ियां घर के कोने में आदर से रख दी जातीं थीं। अर्थ यह था कि जितनी सुन्दर कोंहड़ौरी है, वैसी ही सुन्दर सुशील बहू घर में आये।

कोंहड़ौरी शुभ मानी जाती थी। लड़की की विदाई में अन्य सामान के साथ कोंहड़ौरी भी दी जाती थी।
कितना रस था जीवन में! अब जब महीने की लिस्ट में वडियां जोड़ कर किराने की दुकान से पालीथीन के पैकेट में खरीद लाते हैं, तो हमें वड़ियां तो मिल जाती हैं – पर ये रस तो कल्पना में भी नहीं मिलते।
उक्त पोस्ट 16 साल पहले की है। यहां सात साल पहले गांव में शिफ्ट होने पर एक बार मूंगवड़ी बनाने का उद्यम हुआ। पर यह मेरी पत्नीजी को खटरम लगता है। सब्जी के साथ मुंगौड़ी या कोन्हडौरी का स्वाद उन्हे विशेष प्रिय नहीं है। मेरे कहने पर ही उसका उपयोग होता है।

मूल पोस्ट पर दो टिप्पणियां मैं यहां प्रस्तुत करूंगा –
- प्रियंकर जी की (उनका ब्लॉग अंतिम रूप से 2018 में अपडेट हुआ है) – वाह ज्ञान जी! क्या बात है . यह है हमारा देशज जीवनबोध ,हमारा सांस्कृतिक रसबोध और परम्पराप्रदत्त मांगलिकता व नैतिकता का बोध . सब कुछ उस साधारण सी दिखने वाली पारिवारिक किंतु बेहद ज़रूरी गतिविधि में समाया हुआ . यही तो है जीवन की सहज कविता . यह उस हाट-बाज़ार को भी अपने स्थान पर रहने की हिदायत होती थी जो घर की ओर बढता दिखता था. बाज़ार अपनी जगह पर रहे . ज़रूरत होने पर हम बाज़ार जाएं, पर बाज़ार हमारी ओर क्यों आए . आपको बहुत-बहुत बधाई! साधुवाद! .
- अनामदास जी की (उनका ब्लॉग 2011 के बाद सक्रिय नहीं है) – पांडे जी, बस दिन बना दिया आपने. बहुत दिन बाद ऐसी रससिक्त रचना पढ़ी.आप कुछ दिनों की चुप्पी के बाद आए, क्या ख़ूब आए. हमारी अम्मा के 80 के दशक के अंत तक बनाती थीं, पेठा हम काटते थे और दिन भर कौव्वे उड़ाने के बहाने छत पर पतंग उड़ाते थे…कोंहडौरी नहीं…सब कुछ गया तेलहंडे में. बहरहाल, जब तक आप जैसे लोग हैं उन दिनों की याद यूँ ही ताज़ा होती रहेगी.साधुवाद.
वह क्या समय था! एक टिप्पणी हमारा दिन बना देती थी! अब तो प्रतिक्रियायें भी ट्विटर या फेसबुक पर देखने को मिलती हैं। शायद यही कारण है कि लोग ब्लॉग के प्रति ज्यादा वफादार नहीं रहे। पर ब्लॉग आपको आपकी मिल्कियत का अहसास तो देता ही रहता है! 🙂