अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,
दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥
क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।

इस वृद्ध को मैंने जाते देखा। सौ मीटर पहले से मैंने अपने जेब में फीचर फोन टटोला। साइकिल से बिल्कुल पास से गुजरते हुये चित्र क्लिक कर लिया। जो चाहता था, वह आ गया चित्र में। मन में भज गोविंदम का उक्त श्लोक चल रहा था।
नंगे पैर, झुकी कमर और कंधे, घुटने तक धोती और एक लाठी। कितनी उम्र होगी इनकी? दस साल बाद शायद मेरी भी दशा ऐसी ही हो। हो सकता है मेरे पैर में जूते हों और जींस का पैण्ट हो। पर कंधे तो झुक ही जायेंगे। शायद।
शंकर लिखते-कहते हैं – वृद्ध भी आशा पाश से बंधा रहता है। कितना जीना है? और किस लिये? क्या आशा है जीवन से? क्या बंधन है?
द्वैत और अद्वैत के बीच झूलता हूं। हनुमान जी याद आते हैं – देह बुद्धि से भगवन आपका दास हूं। जीव बुद्धि से आपका अंश। और आत्मबुद्धि से तो मैं आप ही हूं।
आत्मबुद्धि वाला भाव दिन भर में पांच दस मिनट रहता है। वह बढ़े। सोवत जागत आत्मबुद्धि रहे। तब कोई समस्या नहीं। देह की और जीव की दशा जैसी भी हो, क्या फर्क पड़ता है तब। स्थितप्रज्ञ बनना ध्येय होना चाहिये।
मन उसी वृद्ध और उसके कारण उपजे भाव में रमा रहता है। पर आते जाते वाहनों का ध्यान अवचेतन में रहता है। साइकिल कहां मोड़नी है, वह चेतना रहती है। वह चेतना रहते हुये भी अवचेतन में आत्मबुद्धि का ड्यूरेशन बढ़े, वही ध्येय होना चाहिये।
वह जाता हुआ वृद्ध बहुत कुछ मसाला दे जाता है सोचने और मनन करने के लिये।
घर आ कर खोजता हूं। “भज गोविंदम” की पेपरबैक वाली प्रति नहीं मिलती। सॉफ्ट कॉपी तो है। उसी को फिर निहारा जायेगा!