27 अप्रेल 2023
मुझे याद है कि सन 2007-8 तक कोकराझार का नाम सुनने पर झुरझुरी सी छूटती थी। किसी अफसर की पूर्व-सीमांत रेलवे में तबादला हो जाये तो लगता था उसे कालेपानी की सजा हो गयी है। सन 2011 में बम्बई के ताज होटल में बैठे मेरे एक मित्र श्री एन.के. सचान, जो गुवाहाटी में मुख्य माल यातायात प्रबंधक, उत्तर-सीमांत रेलवे, थे; ने जब कहा कि ऐसा कुछ नहीं है तो एकबारगी उनपर यकीन नहीं हुआ था। सन 2011 तक मीडिया पूर्वोत्तर भारत की खूंखार तस्वीर परोसता था। सन 2012 की लिखी अनिल यादव की किताब “वह भी कोई देस है महराज” पढ़ते हुये माथा खराब होता था।
आज प्रेमसागर जब यात्रा कर रहे हैं वहां की और कोकराझार से गुजर रहे हैं, तो एक बारगी मैं असहज सा हुआ हूं। पर वे बड़े मजे से पदयात्रा करते वहां से जोगीघोपा पंहुच गये। मेरे जीवन के दो दशकों में कितना बदला है पूर्वोत्तर। लेकिन, वह सार्थक बदलाव परोसने में बहुत फिसड्डी हैं दक्षिणपंथी विद्वान और लेखक। बाकी, वामपंथियों का जहां तक बस है, वे अभी भी लिखे जा रहे हैं कि असंतोष है। उल्फा वाले मरे नहीं हैं। भूटान और बांगलादेश में उनके लोग अवसर का इंतजार कर रहे हैं। सन 2018 तक का यह नेरेटिव वाम पंथ की ओर झुकाव रखने वाली पुस्तकों में मैंने देखा है।

खैर, प्रेमसागर की यात्रा पर लौटा जाये। वे आज प्रसन्न थे कि गुवाहाटी में फलानी जी गुवाहाटी वापस आ गयी हैं। वे भूटान गयी थीं। आने पर उन्होने प्रेमसागर की हाल खबर ली और बकौल प्रेमसागर – “अब भईया संघ वाले मेरी सहायता करेंगे।”
सवेरे कोकराझार से चल कर एक जगह उन्होने चाय नाश्ता किया। आलू में चावल का सत्तू भर कर टिक्की जैसा कुछ था और साथ में घुघुरी। चाय। “नया आईटम है भईया। फोटू भेज दिया है आपको। देखिये पसंद आयेगा।”


आगे जंगल से गुजरना हुआ। मुझे चित्र भेजे एक फूल वाले झाड़ के। “भईया आंख में कोई भी तकलीफ हो, इस फूल का रस डालने से बहुत आराम मिलता है – ऐसा लोग बताये।”


जंगल घना है। सागौन के लम्बे वृक्ष दीखते हैं। काफी दूर तक चला जंगल। उसके बाद चम्पाबाती नदी। यह नदी आगे जा कर ब्रह्मपुत्र में मिलती है। गूगल मैप के हिसाब से जोगीघोपा जाने के लिये चम्पाबाती के दांये किनारे पर चलते रहना चाहिये था उन्हें। सड़क के साथ साथ। पर अचानक मैंने पाया कि वे नदी पार कर दूसरी ओर दिख रहे थे। पूछने पर बताया – “भईया, आठ दस लोगों ने बताया कि इस तरफ ही है जोगीघोपा और इस तरफ से पांच सात किलोमीटर कम चलना होगा।”


पर वैसा कुछ था नहीं। खेत और पगडण्डी से रास्ता निकला। एक पतली तुरीया नदी यूं ही पार की बिना पुल। उसके बाद सर्पिल रास्ते से जोगीघोपा पंहुचे तो शाम हो गयी थी यहां भदोही में। ब्रह्मपुत्र के किनारे तो रात हो चुकी होगी। इंतजाम करने वाले वो संघ के प्रचारक कभी फोन भी नहीं किये। वो फलानी जी, जिनकी बात प्रेमसागर मैहर से यात्रा शुरू करते समय भी कर रहे थे कि ‘वे गुवाहाटी में हैं और सब इंतजाम देख लेंगी, ऐसा उन्होने कहा है’, उन्होने कोई खोज खबर नहीं लीं। 😦 😦
प्रेमसागर को अपेक्षा थी कि शायद उनके रुकने और भोजन का इंतजाम हो जाये। रोज पचास-साठ हजार (या उससे ज्यादा) कदम चलने वाले की बस इतनी ही जरूरत है। करीब चार-पांच दिन की यात्रा बची है असम की।
पर दिन भर चलने और 53 किमी तथा 64 हजार कदम नापने के बाद पता चला कि सहायता के नाम पर ठेंगा मिला है। उन्हें एक मंदिर में रहने को कहा। मंदिर में पुजारी ने बताया कि छत के नीचे जमीन पर सो जाईये। ओढ़ने बिछाने और भोजन का कोई इंतजाम नहीं। रात में सर्दी और मच्छर से बचने को कुछ नहीं। सिर्फ मंदिर के परिसर में रुकने भर की परमीशन। किसी ने उसके बाद खोज खबर नहीं ली प्रेमसागर की।
“भईया, उनके भरोसे यहां चला आया। वर्ना अपने हिसाब से इंतजाम देखता। पीछे ही कहीं रुक जाता। आने पर सोचा कि आगे बढ़ जाऊं और 8-10 किमी; पर बताया गया कि आगे जंगल है और वहां हाथी भी आ जाते हैं।”
एक बिहार (“वैशाली जिले के थे भईया)” के भोजनालय वाले ने बिहार की बोली सुन पचास रुपये में खाना दिया, पर रुकने के लिये तो आठ सौ में जगह मिली। “एक ही जगह है भईया यहां। जोगीघोपा छोटी जगह है, और होटल/लॉज भी नहीं हैं।” – प्रेमसागर की आवाज में बहुत अर्से बाद हताशा की टोन लगी।
दिन में भी प्रेमसागर अजीबोगरीब अंदाज में चले। उन्होने गूगल मैप पर यकीन करने की बजाय उन लोगों पर यकीन किया जो जोगीघोपा में व्यवस्था करने की बात कर रहे थे और ऐन मौके पर वह व्यवस्था दिखी नहीं। गूगल नक्शे के हिसाब से उन्हें कोकराझार से अभयापुरी-बारपेटा-होजो होते कामाख्या पंहुचना चाहिये था, पर वे ब्रह्मपुत्र के किनारे जोगीघोपा चले आये। यह रास्ता करीब दस किमी ज्यादा लम्बा निकला। और इसमें भी गलत जगह पर चम्पाबती नदी पार कर खेताखेते चलते हुये करीब आठ किमी अतिरिक्त चलने का काम उन्होने किया। चल वे रहे थे, पर गणना कर मैंने बताया कि वे कोई शॉर्टकट से नहीं, ज्यादा ही चले। तब उसको उन्होने जस्टीफाई इस प्रकार से किया “भईया कच्चे पगडण्डी वाले रास्ते में गर्मी कम लगी।”

एक दो जगह प्रेमसागर बिना किसी रास्ते के टखने से नीचे पानी वाली तुरीया नदी पार किये। उस नदी में पानी न था पर रास्ता भी नहीं था। अगर वे सीधे नदी यूं पार न करते तो उन्हें चार पांच किमी ज्यादा चलना होता। नयी जगह हो तो खेतेखेत चलने की बजाय हाईवे या कार वाला रास्ता पकड़ना चाहिये। … यह मैं उन्हें कई बार कह चुका हूं पर वे एक जिद्दी आदमी हैं।
दिन भर मैं प्रेमसागर की यात्रा मैप पर नापता रहा। मेरा कहना तो माना नहीं प्रेमसागर से। वे मानते भी उतना ही हैं, जितना उन्हें अच्छा लगता है। कुल मिला कर आज की यात्रा सुखद तरीके से शुरू हुई और अंत उसका बहुत ही खराब हुआ।

अनिल यादव की किताब का शीर्षक – “वह भी कोई देस है महराज” मुझे बहुत सटीक लगा।
कल जोगीघोपा से आगे बढ़ना है प्रेमसागर को। वे ब्रह्मपुत्र के किनारे ही रुके हैं। मैंने उन्हे कहा – जो हुआ, सो हुआ। कल सवेरे सूर्योदय को ब्रह्मपुत्र के जल में देखियेगा। कम से कम नदी तो दिखेगी सवेरे की रोशनी में झिलमिलाती हुई।
देखें, कल क्या होता है!
हर हर महादेव! ॐ मात्रे नम:।
प्रेमसागर की शक्तिपीठ पदयात्रा प्रकाशित पोस्टों की सूची और लिंक के लिये पेज – शक्तिपीठ पदयात्रा देखें। ***** प्रेमसागर के लिये यात्रा सहयोग करने हेतु उनका यूपीआई एड्रेस – prem12shiv@sbi |
दिन – 83 कुल किलोमीटर – 2760 मैहर। प्रयागराज। विंध्याचल। वाराणसी। देवघर। नंदिकेश्वरी शक्तिपीठ। दक्षिणेश्वर-कोलकाता। विभाषा (तामलुक)। सुल्तानगंज। नवगछिया। अमरदीप जी के घर। पूर्णिया। अलीगंज। भगबती। फुलबारी। जलपाईगुड़ी। कोकराझार। जोगीघोपा। गुवाहाटी। भगबती। दूसरा चरण – सहारनपुर से यमुना नगर। बापा। कुरुक्षेत्र। जालंधर। होशियारपुर। चिंतपूर्णी। ज्वाला जी। बज्रेश्वरी देवी, कांगड़ा। तीसरा चरण – वृन्दावन। डीग। बृजनगर। सरिस्का के किनारे। |