हर साल जून के महीने में मुझे अलेक्जेण्डर फ्राटर की ‘चेजिंग द मानसून’ की याद आती है। हर साल सोचता हूं कि उसे पढ़ूंगा और हर साल मानसून आने पर मन उसी में लग जाता था, किताब का नम्बर नहीं लगता था। पर इस साल लेट लतीफ रहा मानसून। अंतत: पच्चीस जून को रात में एक घण्टे बारिश से सूचना मिली की वह आ गया है। सूने और ठिठकते मानसून में यह पुस्तक पढ़नी प्रारम्भ कर दी।

लोग कहेंगे कि यह भी कोई बात हुई। मानसून की बात हो तो मेघ और मेघदूत की याद आनी चाहिये। कालिदास की पुस्तक उलटनी पलटनी चाहिये। पर मेघदूत रस की पुस्तक है। मेरी उम्र में वह बहुत आकर्षित नहीं करती।
अभी तीन चेप्टर पढ़े हैं चेजिंग द मानसून के। और अच्छी ही लग रही है किताब। पुस्तक में मानसून के साथ साथ भारत की यात्रा है 1990 के दशक में। तब शायद उपग्रहों का प्रयोग मॉनसून की ट्रेकिंग में कम, गुब्बारों का अधिक हुआ करता रहा होगा। हाइड्रोजन से भरे ये मौसमी गुब्बारे एक निश्चित ऊंचाई तक उड़ते थे और हवा के साथ साथ बहते थे। उनकी दशा देख कर मानसून का अनुमान लगाया जाता था। अब तो मेरे स्मार्टफोन में चार पांच एप्प हैं जो अलग अलग एजेंसियों के बादलों के चित्र और हवा के बहाव के ग्राफिक देते हैं। अब तो पांचवी कक्षा का बच्चा भी काफी आत्मविश्वास से मानसून के बारे में बातचीत कर सकता है।
चेजिंग द मानसून मानसून के साथ यात्रा का विवरण ही नहीं है, वह बदलते तीन चार दशकों में मौसम विज्ञान की तकनीक और मानसून के चरित्र को भी इंगित करता है।
29 जून 23
मानसून आ गया है। पर यह आना भी कोई आना है? नौकरानी आ कर खबर देती है – “झिलसी पड़त बा। (एक दो बूंदें पड़ रही हैं।)” मौसम का एप्प अठ्ठासी प्रतिशत बारिश बताता है। इस ‘झिलसी’ को भी वह बारिश में गिन लेता होगा? अभी वह अठ्ठासी प्रतिशत बारिश बताता है, फिर चुपके से उसे 25 प्रतिशत में बदल देता है। बारिश होती ही नहीं। सूरज की रोशनी कुछ मद्धम होती है। फिर जस का तस। उमस है पर वह भी कस कर नहीं है। ज्यादा उमस हो तो उम्मीद हो जाती है कि बारिश भी कस के होगी। वैसा कुछ नहीं होता। दो तीन दिन और चला तो लोगों ने धान की नर्सरियां बना रखी हैं, उनमें पानी ट्यूब वेल से देना पड़ेगा।

मैं बिंग इमेज क्रियेटर को गांव के मानसून के चित्र बनाने को कहता हूं तो वह छाता लिये गांव की महिलाओं को गांव के कच्चे रास्ते पर चलते दिखाता है। उससे प्रभावित हो कर मैं घर में काम करने वाली महिलाओं और ड्राइवर के लिये इस मानसून के लिये छाते खरीद लेता हूं। छाते मंहगे हो गये हैं। तीन छाते पांच सौ दस रुपये के। हर साल उन्हें छाते दिये जाते हैं। वे छाते उनका पूरा परिवार इस्तेमाल करता है। मौसम गुजरते गुजरते वे नजर नहीं आते। हमारे अपने छाते तीन साल से चल रहे हैं पर उनके हर साल खत्म हो जाते हैं।
मानसून ठिठकता आ रहा है, पर कुछ गतिविधियां उसके अनुसार होने लगी हैं। अब सवेरे उपले पाथती महिलायें दिखनी कम हो गयी हैं। उसकी बजाय अपने ईंधन – लकड़ी, रंहठा, उपले आदि छत के नीचे रखने की कवायद हो रही है। कौन सी चीज घर के अंदर रखी जाये और कौन सी बाहर रह सकती है; इसका निर्णय कर रहे हैं लोग।
सुग्गी अगले तीन महीने उपले पाथने की बजाय हमारे घर के पिछवाड़े अपनी भैंस का गोबर ला कर जमा करने लगी है। वह गोबर तीन महीना सड़ कर खाद बनेगा। खाद हमारे बगीचे और उसके खेत में इस्तेमाल होगा। कोने में खपरैल के घर में रहने वाला करिया पासी परेशान था कि बारिश से बचाव के लिये छप्पर ठीक करने को कुम्हार अब नरिया-थपुआ बनाते ही नहीं। मन मार कर उसने ईंट का इंतजाम कर पक्का मकान बनाना शुरू कर दिया है। आधे से ज्यादा बन भी गया है।

रात में आंधी पानी था, पर बहुत ज्यादा नहीं सवेरे बिजली कड़कने के साथ ठीकठाक बारिश हो गयी। पड़ोसी टुन्नू पण्डित के यहां मकान रिनोवेशन का काम चल रहा है। आज की बारिश के कारण काम करने वाले नहीं आये। बारिश के महीने में काम लगाया है। अवरोध तो आते ही रहेंगे। पर टुन्नू पण्डित प्रकृति के अवरोधों की बहुत परवाह नहीं करते। खेती किसानी में प्रकृति की सुनी जाती है। उसमें भी बहुत ज्यादा निर्भरता नहीं है। बारिश कम हो तो ट्यूब-वेल तो उनके पास है ही। अतिवृष्टि की दशा में कुछ फसलें – मसलन उड़द पर दुष्प्रभाव होता है। शेष सभी काम तो अपने संसाधनों की उपलब्धता और क्षमता से तय होते हैं।
आज ईद है। पर फिर भी बिजली चली गयी। आंधीपानी के बावजूद भी ईद के दिन तो बिजली आनी चाहिये थी। भाजपा की सरकार जो है! यही अखिलेश जी की होती तो मौसम की परवाह किये बिना सिर के बल खड़े हो कर घण्टाये चौबीस बिजली देते आज के दिन बिजली विभाग वाले।

आज चिड़ियां भी नहीं आयीं। कुछ तो पानी में परेशान होंगी और कुछ रात में मरे पतंगों के शरीर के हाई प्रोटीन का भोजन पा कर हमारे शाकाहारी रोटी-दाना-नमकीन में उनकी रुचि नहीं है। मेरी पत्नीजी ने प्रतीक्षा की उनकी पर उन्हें न पा कर उन्हें कोसती हुई अपने काम में लग गयीं। बारिश आ गयी है तो कई चीजें सहेजनी हैं। बहुत को बारिश से और बहुत सी चीजों को नमी से बचाना है। मानसून जीवन भी देता है पर बहुत कुछ बरबाद भी करता है।
छत पर पानी रुक गया है। पत्तियों ने नाली बंद कर दी है। उसे खोला गया तो वेग से पानी नीचे गिर रहा है। साल भर में जमीन पर भी पेड़ों की जड़ें बढ़ी हैं और उनसे पानी की निकासी का मार्ग भी बदला है। पिण्टू को बुला कर कुछ खड़ंजा ठीक कराना होगा। पानी के रुकने और बहने की दिशा बताती है कि कुछ काम कराना ही होगा। हमारा जीवन मात्र मानसून का आनंद लेने का नहीं है। काम भी बढ़ जाता है।

आज की बारिश के बाद सांप निकलेंगे। वैसे इतने सालों में यह तो पता चल गया है कि अधिकांशत: वे भले कोबरा जैसे दीखते हों पर हैं चूहे खाने वाले असाढ़िया सांप ही। फिर भी सावधान तो रहना ही होता है। घर के अंदर तो नहीं आते – पूरा घर जाली से पैक है – पर कभी कभी संपोले जरूर आ जाते हैं नाली के रास्ते। और गोजर तो दीखने लग गये हैं। आज बारिश के बाद इधर उधर इल्लियां भी घूमने लगी हैं।
मानसून ठिठकता आया है। लेट लतीफ, शरमाता हुआ। पर एकबारगी पसर तो गया है। आनंद भी दे रहा है और काम भी।
चेजिंग द मॉनसून का चौथा चेप्टर पढ़ना प्रारम्भ कर रहा हूं मैं। … वैसे आसपास ठिठकता मानसून जो कुछ दिखा रहा है; उसके आधार पर सीक्वेल लिखा जा सकता है – “अनमने मानसून में गांव”।


ateet hamesha hi jyada aakarshit kyo karta hai.. mujhe barsat me apne bhaiyon ke saath baag me bane gaddhon me paani me chhap chhap kar kudna yaad aa gaya.. mitti ki diware.. jameen se nikali seepon ke khol.. abhav me bhi sukh tha ya fir majboor the un abhav ko sukh ki tarah grahan karne ke liye.. pata nahi.. lekin barish me bhigne aur waise hi gaddhon me chhap chhap karne ka man karta hai..
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अब आपकी यह आत्मस्वीकृति कितनी आत्मीय सी लग रही है. मैंने इस ध्येय से लिखा नहीं था कि ऐसी टिप्पणी मिलेगी, पर मिलने पर लेख की सार्थकता का यकीन सा हो रहा है.
धन्यवाद 🙏
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Sir Varish m jyada alert rehne ki jarurat h
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हाँ. पहले परेशान रहते थे, अब सावधान रहते हैं.
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