पंद्रह अगस्त 2023
आज सवेरे साइकिल ले कर निकलते समय दो आदेश थे – बड़ा तिरंगा झण्डा खरीदना है और साथ में गरम जलेबी। सवेरे जल्दी निकला था तो हर दुकानदार जलेबी बना बना कर तह लगा रहा था। ग्राहक तब आने शुरू नहीं हुये थे। गांव के किनारे पर राजेश और जग्गी भी समोसा और आलू टिक्की की बजाय आज जलेबी पर लगे थे। जग्गी ने तो इस आशा में कि ठीकठाक खरीद करूंगा एक जोरदार नमस्ते ठोंकी। मैंने उत्तर दिया, पर आगे बढ़ता गया महराजगंज कस्बे के बाजार की तरफ।
रास्ते में दूध की डेयरी पर दूध लिया। वहां पर पाठक जी भी जल्दी में थे। जल्दी काम निपटा कर झण्डावंदन के लिये कहीं जाने की बात कर रहे थे।

महराजगंज की नुक्कड़ पर मोदनवाल की जलेबी का तीन थालों में ढेर लगा था। ग्राहक इक्कादुक्का ही थे। बताया कि अब आना चालू होंगे। मैंने उस ढेर में से जलेबी लेने की बजाय उनको ताजा निकालने को कहा। वैसे भी वे निकाल ही रहे थे। आज एक की जगह दो कड़ाहे लगे थे और दो आदमी भी बनाने वाले। आज जलेबी की बम्पर सेल होने वाली थी।
गरम जलेबी छानने और शीरे में डुबो कर निकालने में ज्यादा देर नहीं लगी। एक किलो खरीद कर आगे बढ़ा तो मक्खियों ने पीछा करना शुरू कर दिया। एक हाथ से साइकिल का हेण्डल थामे दूसरे से उन मक्खियों को उड़ाते झण्डे की तलाश में आगे बढ़ा। मक्खियां जिद्दी नहीं थी। जल्दी ही पीछा छूट गया उनसे। किसी भी जलेबी का स्वाद वे नहीं ले पाईं।

झण्डे का मार्केट तो जबरदस्त था! जहां फलों के ठेले वाले रहते थे, वहां आज झण्डे के ठेले थे। और केवल झण्डा भर ही नहीं; गाल में चिपकाने का तिरंगा स्टिकर, केसरिया सफेद हरे झालर के फुंदने, सिर पर तिरंगे रंग का हेड-बैण्ड और छोटी बड़ी साइकिल-मोटर साइकिल पर खोंसने वाली झण्डियां – अनेक चीजों का मार्केट सज गया था। देशभक्ति का शानदार बाजार था। राष्ट्रीयता झक झक झिलमिला रही थी।
मुझे बड़े साइज का झण्डा लेना था। अप्पू हुसैनी मिले जो बंद दुकान के सामने अपना टेबल सजाये थे। उन्होने झण्डा खोल कर दिखाया। बड़े साइज का सूती कपड़े का था। अप्पू मुंह में शायद गुटका भरे थे। थोड़ी अस्पष्ट आवाज में दाम बताया 160रुपये।

मैंने पूछा – पेटियम-शेटियम कुछ है?
उन्होने स्वीकार में मुंडी हिलाई। अपने मोबाइल मेंं एप्प खोल कर क्यू आर कोड स्केन करने को दिखाया। मुझे पेमेण्ट के लिये नोट नहीं निकालने पड़े। डिजिटल पेमेण्ट सिस्टम भी नये भारत की एक सक्सेस स्टोरी है।
इस बीच गांव का ही एक नौजवान अपने छोटे छोटे बच्चों को मोटर साइकिल पर बिठा झण्डियां खरीदने आया। बच्चों के पास पहले से झण्डियां थीं। पर शायद घर के और लोगों के लिये झण्डियां और छत पर फहराने के लिये बड़े झण्डे की जरूरत थी।

पिछली साल लोगों ने तिरंगे का मार्केट उतनी फुर्ती से केप्चर नहीं किया था। इस बार राष्ट्रीयता का दोहन करने को सभी तत्पर थे।
मेरी जलेबी ठण्डी न हो जाये, इसलिये घर पंहुचने की जल्दी थी। अन्यथा इस राष्टीयता के बाजार की चहल पहल को और इत्मीनान से देखता।

घर आने पर झण्डा लगाया गया। दुमंज़िले की छत पर मैं तो नहीं चढ़ा – सीढ़ियाँ चढ़ने उतरने में घुटनों में दर्द होता; पर मेरे घर आने वाली नौकरानी अरुणा और वाहन चालक अशोक गये झण्डा लगाने। मेरी पत्नीजी ने चित्र खींचे। झण्डा लगाने और जलेबी-इडली का नाश्ता कराया पत्नीजी ने। यूं मनाया स्वतंत्रता दिवस।
स्वतंत्रता दिवस की जय हो! वंदे मातरम!



Jhande k sath jalebi vakai bachpan ki yaden taja ho gayi hongi Sir
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