सड़क किनारे से खेत में बाड़ के पीछे मटर की खेती नजर आती थी। छोटे पौधे। दूर एक टटरी लगी झोंपड़ी सी थी। झोंपड़ी तक पंहुचने के लिये मुझे साइकिल से उतर कर सौ कदम पैदल चलना होता। इसलिये वह काम किया नहीं था।
झोंपड़ी की स्थिति से स्पष्ट था कि वह मटर की खेती की रखवाली के लिये मचान का काम कर रही थी। खेत झोंपड़ी के लेवल से दो-तीन फुट नीचे था। झोंपड़ी से पूरे खेत की गतिविधि देखी जा सकती थी।
अचानक एक सवेरे मायूसी छा गयी मुझ पर। कुछ लोग उस झोंपड़ी नुमा मचान का छप्पर हटा रहे थे। इससे पहले कि वे पूरी तरह उतार लें, मैने वहां जाने का निर्णय किया।
पर वे लोग छप्पर उजाड़ नहीं रहे थे, बदल रहे थे। अपनी साइकिल सड़क किनारे खड़ी कर जब तक मैं वहां पंहुचा तो छप्पर बदला जा चुका था। बदलने वाले जा चुके थे। वहां केवल एक सज्जन खड़े थे।




मैने झोंपड़ी और खेत का मुआयना किया। पास में ही बिजली का एक खम्भा था। उसके दो लाभ नजर आये। झोंपड़ी के छप्पर को सहारा देने के लिये चार बांसों की बजाय तीन ही लगाने पड़ रहे थे। एक पाये का काम खम्भा कर दे रहा था। दूसरे, बिजली के खम्भे से झोंपड़ी और खेत की बिजली का भी जुगाड़ हो गया था। रात में रोशनी रहे तो नीलगाय के आक्रमण की सम्भावना कम हो जाती है और नीलगायों के झुण्ड के आने पर रोशनी में उन्हें खदेड़ना आसान होता है।
उन सज्जन ने दिमाग लगाया था झोंपड़ी/मचान की जगह तय करने में।
उनका नाम है श्यामधर। पड़ोस की बस्ती में रहते हैं। पंद्रह बिस्सा का खेत उन्होने लीज पर लिया है भगवानपुर के मिश्रा जी से। उन्ही से बगल में ही एक दूसरा खेत भी लिया है। बगल वाले खेत में वे गेंहू-चावल-दाल की खेती करते हैं। यहां उन्होने सब्जी उगाई है। यह कैश क्रॉप है तो इसकी सेवा भी ज्यादा है। झोंपड़ी बना कर दिन रात इसकी रखवाली होती है। उन्होने मटर के अलावा सात आठ तरह की सब्जियां गिन डालीं जो इस खेत में लगाई है।
“आप कब रहते हैं यहां पर?”
“रात में तो यहां सोते ही हैं हम, दिन में भी घर का बारी बारी से कोई न कोई रहता ही है।”
मैने पूछा – “इतनी मेहनत कर रहे हैं आप और आपका परिवार। क्या हिसाब लगाया है कि मेहनत बराबर आमदनी आपको हो जायेगी?”
मेरे सवाल का जवाब देने में उन्हें देर नहीं लगी। ज्यादा सोचना नहीं पड़ा। बोले – “खेती इस तरीके से नहीं होती। इस सवाल का जवाब तलाशने लगें और इतना सोचने बिचारने लग जायें तो खेती कभी कर ही नहीं पायेंगे।”
यह तो मुझे स्पष्ट हो गया कि आम तौर पर किसान इसी तरह से खेती किसानी करता है। घर में लोग हैं और कोई और काम नहीं है तो पहले अपने खेत में या खेत लीज पर ले कर अनाज उपजाया जाता है। उसके बाद अगर श्रम की क्षमता शेष रही तो श्यामधर जी के परिवार की तरह सब्जी उगाने की सोचता है। यह सब करने में वह कभी हानि लाभ, कैश फ्लो आदि की गणना कर शुरुआत नहीं करता।
खेती में व्यवसाय वाणिज्य के तत्व घुसे ही नहीं। बेफिक्री भी शायद इसी कारण से है और विपन्नता भी।
श्यामधर हानि लाभ की गणना की माथापच्ची नहीं करते और शुरू कर देते हैं। मेरी तरह का आदमी उनके मचान का फोटो खींचने खिंचा चला आता है। उससे उलट मेरे जैसा आदमी हानि लाभ की कैल्युलेशन में पड़ा रहता है और कभी शुरू नहीं करता! श्यामधर और मैं दोनो दो अलग अलग छोर के जीव हैं!
रात में हल्की बारिश हुई थी। जमीन गीली थी। मैने श्यामधर के मचान को ध्यान से देखा। एक चारपाई ट्यूब-वेल के पानी की पक्की नाली पर बिछाई गयी थी। मचान की टटरी से बांध कर उसपर मच्छरदानी लगाई हुई थी। मच्छरदानी पुरानी साड़ियों को सी कर बनाई थी। उससे सर्दी में भी हवा रोकने का लाभ मिलता होगा। पास में पानी के लिये एक प्लास्टिक का जरीकेन था। एक बल्ब था। बिजली चली गयी थी तो बुझा हुआ था। खेत में भी कई बल्ब लगे थे। चारपाई के सामने अलाव जलाया रहा होगा। अब वह भी बुझ चुका था। पूरे परिदृश्य में एक पालतू कुकुर की कमी थी। पता नहीं, श्यामधर जी ने कुत्ता पाला भी है या नहीं। मैं होता तो अपने साथ एक कुत्ते के अलावा एक दो किताबें या किण्डल रखता। साथ में चाय बनाने के लिये बिजली वाली केतली।

श्यामधर की जगह मैं होता तो भले ही सब्जियां उगतींं,न उगतीं; वहां रातें गुजारने पर बीस पच्चीस हजार शब्द जरूर लिख लिये होते! :lol:
वहां से चलते समय मैने श्यामधर से हांथ मिलाया। वे हांथ मेहनतकश के थे। मेरे मन में जिज्ञासा बनी रहेगी कि श्यामधर सफल होते हैं या नहीं। और कितना सफल होते हैं। … बहुत शुभकामनायें श्यामधर को।
