आदिकाल से कहा जाता रहा है कोई तीन कदम या सात कदम साथ चल ले तो वह मित्र हो जाता है। उसी तर्ज पर साइकिल युग में कोई बगल में एक मील साइकिल से चलते बोल बतिया ले तो वह सखा हो जाता है। उस परिभाषा से जैप्रकाश मेरा सखा है। कई बार गांव की सड़कों पर मेरे साथ चला है। कई बार तो यूंही निरुद्देश्य चला है, सिर्फ मुझसे बात करने या साथ देने के लिये। एक दो किलोमीटर साथ चलने के बाद वह रुक कर कहता है – “चलूं, काम का अकाज हो रहा है।” और फिर वह वापस लौट जाता है। ऐसा कई बार हुआ है।
उससे पहली मुलाकात भी, बिना परिचय के, यूं ही हुई थी। साइकिल चलाता मेरे बगल में आ कर वह इस तरह से बात कर रहा था मानो मुझे बहुत सालों से जानता हो। और शायद जानता भी रहा हो। रेलवे की नौकरी के दौरान मैं कई बार इस जगह से गुजरा था। तब रेलवे स्टेशन पर स्टाफ में काफी हल्ला रहता था मेरे दौरे का। मुझे तो उन निरीक्षणों की स्मृतियां नहीं हैं पर यहां गांवदेहात के लोग अच्छे से जानते हैं। कौन से फटका (लेवल क्रॉसिंग) पर मैं रुका था। किस कांटेवाले को मैने डांट लगाई थी। कितनी देर चौरी चौरा कटका स्टेशन पर रोकी रखी गयी थी मेरे लिये – यह सब उन्हें याद है। जैप्रकाश वह सब भी याद कर मुझे बातों बातों में कहता रहता है।
जैप्रकाश ने रेलवे के निर्माण कार्यों में भी काम किया है। जब फट्टे वाले सेमाफोर सिगनल बदल कर कलरलाईट सिगनल का काम हो रहा था तो उसने इमारतें और सड़कें बनाई थीं रेलवे के लिये। वह उस दौर के काम और आज के ग्रामीण सड़क योजना के कार्यों की तुलना कर बताता है कि गांव की सड़कें तो बस नाम मात्र के डामर-गिट्टी से बनी हैं।
आज वह मेदिनीपुर के पास बाढ़ू की पाही पर खड़ा मिल गया। फोन पर बात कर रहा था। ठेकेदार ने उसके खाते में दस हजार रुपये डाले थे और डालने की सूचना फोन पर दे रहा था। वह दस हजार की बात में ज्यादा व्यस्त था तो मुझे केवल हाथ उठा कर नमस्ते की। मैं चलता चला गया।
पर कुछ देर बाद ही पीछे से जैप्रकाश की आवाज आई – “मौसम पलटिगावा बा।” मौसम बदल गया था है। अचानक दो दिन बाद ठण्ड पलट कर आई है। कोहरा नहीं है पर ठण्डी हवा शरीर में बरछी की तरह चुभ रही है। जैप्रकाश उसी की बात कर रहा था।
वह दाहिनी ओर मेरे बगल में आ गया तो मैने पूछा – आजकल क्या काम कर रहे हो?
“हाईवे के उस पार मकान बन रहा है, उसमें काम कर रहा हूं। पैसा आता है तो मालिक आगे बनवाने लगता है। कुछ समय बाद काम पैसे के लिये रुक जाता है। काम नरम गरम होते रहते हैं। पर कोई न कोई काम मिल ही जाता है। काम करने वाले को रोज काम मिल रहा है। अब कोई जांगरचोर हो तो काम अपने से उसके पास आयेगा नहीं। गांव में भी काम मिलता है और बनारस में भी। गांव में आसपास तीन सौ पचास रुपया रोज मिलता है और बनारस में पांच सौ बीस। पर बनारस जाने आने का किराया ही सौ रुपया रोज है। उसमें समय लगता है वह अलग। मुझे तो यहां साढ़े तीन सौ का काम ज्यादा अच्छा लगता है। सवेरे टिफन बांध कर साइकिल ले काम पर निकल जाना और शाम समय से घर लौटना। इसमें दस हजार रुपया महीना मिल जाये तो इससे बेहतर और क्या? … अभी ठेकेदार ने दस हजार खाते में डाले हैं। काम ठीक करें तो पैसा पगार मिलने में भी कोई झिक झिक नहीं।” – जैप्रकाश बोलता गया।
“मुझे तो कहीं और जा कर ज्यादा कमाने की बजाय दस हजार गांव में रह कर कमाना अच्छा लगता है। बाहर जितना कमाओ, उतना खर्चा भी है। और एक्सीडेण्ट होने, बीमार पड़ने पर न कोई पूछने वाला और डाक्टर भी बहुत ऐंठता है।” – जैप्रकाश के पास गांव में रहने और काम करने के तर्क हैं। मुख्य बात शायद यह है कि वह कुशल है और उसे नियमित काम मिल जाता है। वह यह जानता है कि अगर कोई एम्प्लॉयेबल है तो इस गांवदेहात में भी उसके लिये काम की कमी नहीं है। यह बहुत आशावादी सोच भरा जीवन है।
जैप्रकाश की साइकिल पुरानी है। आवाज बहुत करती है। वह पॉलीप्रॉपीलीन की शीट के थैले में अपना टिफन लिये काम पर जा रहा है। घर का बना भोजन ले कर। शायद चाट पकौड़ी पर उसका खर्च न होता हो। बीड़ी-खैनी का सेवन करते मैने उसे नहीं देखा – पर यह भी हो सकता है कि ज्यादा ध्यान से या ज्यादा देर तक उसे नहीं देखा।
मेरे घर के बगल से वह आगे जाता है। एक बार फिर सर्दी बढ़ने और ‘सुर्रा हवा’ चेहरे पर लगने की बात कहते हुये। वह आगे बढ़ने के पहले अपना मफलर एक बार कसता है। मैं घर में आ कर अलाव या ब्लोअर की शरण में जाने वाला हूं। वह दिन भर काम करने जा रहा है। मैं फिर भी शायद असंतुष्ट जीव हूं और वह दस हजार महीना कमाने पर आत्मन्येवात्मनातुष्ट!
बहुत फर्क है मुझमें और जैप्रकाश में। फिर भी मील दो मील साथ चलने के कारण वह सखा है! :-)


मुझे 15 वर्ष हो गए भारत से बाहर रहते हुए, बाकि सब बढ़िया है बस एक चीज़ जिसकी कमी खलती है वो है रिश्तों की आत्मीयता। एक बात जो मैं सबसे कहता हूँ वो ये की हमारा देश आर्थिक रूप से शायद उतना सम्पन्न नहीं है पर सामाजिक रिश्तों के मामले में हम कहीं समृद्ध हैं। शायद यही वजह है की मेरे जैसे अनगिनत लोग अपने रिटायरमेंट के दिन भारत में बिताने की इच्छा रखते हैं। अभी कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र, जिनके बच्चे अमेरिका में पढ़ते हैं, उनके परिवार ने छुट्टियाँ अपने पैतृक गाँव में बितायीं अपनी एक्सटेंडेड फॅमिली के साथ। अब मित्र का कहना है की बच्चोँ का मन अमेरिका में नहीं लग रहा। ये कहानी घर घर की है।
आप किताब लिखिए, अगर कोई ड्राफ्ट को पढ़ने वाला चाहिए तो हम हाज़िर हैं। हिंदी भी ऐसी है की प्रूफ़रीड भी कर देंगे।
आपके लेखन के लिए धन्यवाद। हिंदी में वैसे तो बहुत कुछ है पढ़ने को पर आपके ब्लॉग में आत्मीयता पाता हूँ इसलिए इंतज़ार रहता है।
R
LikeLiked by 1 person
आपका बहुत बहुत धन्यवाद! पुस्तक लिखने के लिये प्रेरित करने हेतु आपने जो कहा, वह मुझे शायद काम पर लगा दे! आपकी टिप्पणी में मुझे आत्मीयता भरपूर दिखती है! जय हो!
LikeLike
Sir gaon m bahut se sathi anayas hi mil jate h
LikeLiked by 1 person
हां जी। शहर में अपरिचय की बर्फ पिघलने में कहीं ज्यादा समय लगता है। ज्यादा मशक्कत करनी होती है।
LikeLike
दिलचस्प ! गाँव में किसी से भी सहज मिलना हो जाता है लेकिन शहर के मामले अलग हैं। शहरों के बारे में बहुत खूबसूरती से एक बात कही है बशीर बद्र ने-
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो।
——
– Satish Pancham
LikeLiked by 1 person
नरेंद्र मोदी एक बार ट्रम्प जी से गले मिले थे। ट्रम्प की शकल देखने लायक थी! :-)
LikeLike