अपने गांव के चमरऊट को मैं गरीब समझता था। पर इनकी दशा तो उनसे कहीं नीचे की है। उनके पास तो घर की जमीन है। सरकार से मिली बिजली, चांपाकल, सड़क और वोट बैंक की ठसक है। इन विस्थापितों के पास वह सब है? शायद नहीं।
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आज की सुबह
घर पर आते आते थक जाता हूं मैं। एक कप चाय की तलब है। पत्नीजी डिजाइनर कुल्हड़ में आज चाय देती हैं। लम्बोतरा, ग्लास जैसा कुल्हड़ पर उसमें 70 मिली लीटर से ज्यादा नहीं आती होगी चाय। दो तीन बार ढालनी पड़ती है।
गांव में छ दशकों में अखबार
चौबे जी, शायद पास के गांव चौबेपुर के निवासी थे। बनारस से माधोसिंह के बीच अखबार पंहुचाया करते थे। सफेद धोती-कुरता-जाकिट और टोपी पहने कांग्रेसी थे वे। अस्सी के आसपास उनकी मृत्यु हुई।
