छत्तीस का प्रयोग देवनागरी आकड़ों में तब होता है जब तनातनी हो. अंग्रेजी और हिन्दी में झगड़ा होने का कोई कारण नहीं होना चाहिये. दोनो अपने अपने प्रकार से समृद्ध भाषायें हैं. अंग्रेजी के नाम से बिदकना शायद इसलिये होता है कि कुछ लोग अंग्रेजी को शासन तंत्र की भाषा मानते हैं. पर अब शासन नहीं, उत्तरोत्तर बाजार मजबूत हो रहा है. चलेगा वह जिसे जनता वापरेगी. चाहे वह हिन्दी हो या अंग्रेजी.
मैने पहले परिचर्चा में अंग्रेजी का प्रयोग सम्प्रेषण की सहूलियत के लिये किया था.तब हिन्दी में टाइप करना मेरे लिये बहुत झंझट का काम था. पर पिछले कुछ दिनों से इस ब्लॉग पर अंग्रेजी का प्रयोग बतौर टीज़र कर रहा था. तभी कल अमित और श्रीश का नाम लेकर लिखा.
श्रीश – मैं ऑन रिकार्ड कहना चाहूंगा – निहायत शरीफ इंसान हैं. वे टीज़र पर छैलाये नहीं. लाल-पीले नहीं हुये. उनकी जगह मैं खुद होता, जिसे (अगर) हिन्दी का जुनून होता तो, ताल ठोंक मैदान में आ गया होता. मैं अंग्रेजी-हिन्दी में फ्लिप-फ्लॉप न करने का निर्णय इसलिये लेता हूं कि मैं श्रीश को प्रोवोक नहीं कर पाया!
खालिस हिन्दी में लिखने की और सोचने की अपनी लिमिटेशन हैं. मेरे पास केवल कामिल बुल्के की डिक्शनरी है, जो सटीक हिन्दी शब्द सुझाने में कई बार गच्चा दे चुकी है. लिहाजा अंग्रेजी को सीधे देवनागरी में लिखने के और कोई चारा नहीं बचता.
कल जो महानुभावों ने चलेबल (चल सकने योग्य) माना है – वह शायद यह है कि अंग्रेजी की संज्ञा-सर्वनाम-क्रिया भले हो, पर व्याकरण/वाक्य विन्यास और लिपि हिन्दी की अवश्य हो. अगर हिन्दी ब्लॉगरी पंचायत इसे रेटीफाई करती है तो मेरे जैसा जन्मजात रेबल अपने आप को रबल नहीं सफल मानेगा!
प्रियंकर जी बता सकते हैं कि “कामिल बुल्के” के बाद उससे बेहतर अंग्रेजी-हिन्दी कोश कौन सा आया है. सरकारी प्रयास तो मक्षिका स्थाने मक्षिका वाले अनुवाद के होते हैं. उनके अनुसार लिखें तो लगता है कि एकादशी व्रत के दिन अलोना (बिना नमक-मिर्च-मसाले का) भोजन बना रहे हैं. लिहजा हिन्दी बरास्ते अंग्रेजी लिखने वालों की मजबूरी धुर-हिन्दी वाले ब्लॉगर समझने की कृपा करें.
असल में हिन्दी-अंग्रेजी में लाग-डांट होने का कारण सिर्फ यह है कि अंग्रेजों ने यहां राज किया. अन्यथा, अगर फ्रेंच में लिखा होता तो फ्रेंच पर व्यंग न होता; मात्र अनुरोध होता कि जरा साथ में हिन्दी अनुवाद भी लिख दिया करें!
कल की टिप्पणियां पढ़ने पर एक विचार मन में आया है – जो सम्भव है नितांत व्यक्तिगत असुरक्षा की भावना का प्रगटीकरण हो. बहुत से ऐसे लोग होंगे जो गाली वाले चिठ्ठे को निकाले जाने पर अभिव्यक्ति की आजादी के आधार उसे गलत निर्णय बताने और वापस लेने के लिये शायद लामबन्द हो जायें (या हैं), पर वे हमारे रोज के चार लाइन अंग्रेजी में ठूंसने के मुद्देपर हमें हिन्दी ब्लॉगरी से बाहर करने को सात-आठ दिन में ही धर्मयुद्ध/जिहाद बोलने से गुरेज नहीं करेंगे. और निकाल बाहर करने की दशा में, बावजूद इसके कि अभी शतकवीर होने की बधाई टिप्पणियां मिल रही हैं, किसी कोने से कोई सपोर्ट मिलने वाला नहीं है. हिन्दी ब्लॉगरी में कुनबापंथी का बड़ा स्थान है पर किसी की पर्सनल इडियोसिंक्रेसी के प्रति टॉलरेंस जरा कम ही है!
भाइयों, हिन्दी मस्त भाषा है. अंग्रेजी भी मस्त भाषा है. हिन्दी में दूध पिया है. अंग्रेजी में सूप पिया है. ऑलमण्ड सूप-सैण्डविच में भी पौष्टिकता और दिव्य अनुभूति होती है. अत: मुझे हिन्दी-अंग्रेजी में छत्तीस नहीं तिरसठ का आंकड़ा लगता है. दोनों साथ-साथ जियें. बल्कि दोनो के फ्यूज़न से ब्लॉग-हिन्दी (ब्लिन्दी) बने. यही कामना है!
ब्लॉग पर लिखने में न मुझे लेखक कहलाने की चाह है न अपने को हिन्दी/अंग्रेजी फेनॉटिक साबित करना है. जब तक मन चाहे ब्लॉग पर मडल थ्रू (muddle through) करना है!
इति हिन्दी-अंग्रेजी टण्टा पुराण. भूल-चूक माफ. सफेद झण्डा फहराया जाये!
विष्णु बैरागी उवाच> … ये परोसने वाले आप-हम ही हैं । इसलिए अपने आप से आंखें चुराने के बजाय अपनी जिम्मेदारी समझें और हिन्दी का कर्ज उतारने की चेष्टा करें । बैरागी जी हिन्दी मां है. और मां का कर्जा नहीं, विरासत होती है. और पॉपुलर सोच के विपरीत मेरे पास भी विरासत का पट्टा है. एक अच्छे बेटे की तरह उस विरासत की जमीन में कुछ बना-उगा कर ही जाऊंगा. कपूत की तरह विरासत बेच, खा पी कर मटियामेट नहीं करूंगा. यह हो सकता है कि बनाने-उगाने का तरीका थोड़ा भिन्न हो. आपने टिप्पणी कस के की, उसके लिये धन्यवाद.
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सवाल न तो छत्तीस के आंकडे का है और न ही लाग-डांट का । भाषा तो कोई भी बुरी नहीं होती । सवाल श्रेष्ठत थोपने का है ।मानव मनोविज्ञान में केवल ‘हीनता बोध’ (याने ‘इन्फीरीयरिटी काम्पलेक्स’) का उल्लेख है, ‘श्रेष्ठता बोध’ (याने ‘सुपरीयरिटी काम्पलेक्स’) का नहीं । जो भी इस श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त होता है, मानव मनोविज्ञान के अनुसार वह अन्तत: अपना हीनता बोध ही उजागर कर रहा होता है ।कष्टदायक और आपत्तिजनक बात कवल यह है कि हिन्दी को को गंवारों, जाहिलों, उजड्रडों की भाषा साबित करने की कोशिशें लगातार की जाती हैं । शासक या राजा कभी भी अपने नागरिकों या प्रजा से नजदीकी नहीं बनाता । इसीलिए षासक या राजा की भाषा कभी नागरिकों की या प्रजा की भाषा नहीं होती । वह ऐसी भाषा होती है जिसे आम आदमी समझ न सके या उसे समझने के लिए बिचौलियों की जरूरत पडे । यही सबसे बडा षडयन्त्र है ।अंग्रेजी से कोई बैर नहीं । दुनिया की अनेक श्रेष्ठ क्रतियां जिस भाषा में उपलब्ध हों वह भला खराब भाषा कैसे हो सकती है । लेकिन इसके अकारण प्रभुत्व और इसके जरिये हिन्दी को हीन साबित करने की साम्राज्यवादी मानसिकता पर आपत्ति भी है और विरोध भी ।मजे की बात यह है कि अफसर और नेता, रोटी तो हिन्दी की खाते हैं लेकिन चाकरी करते हैं अंग्रेजी की । आपको पता होगा ही कि जब इंगलैण्ड पर फ्रांस का आधिपत्य था तब अंग्रेजी को भी जाहिलों, गंवारों, उजड्रडों की भाषा माना जाता था और इसे बोलन अपमानजनक । लेकिन अंग्रेजी मात़रभाषियों ने अंग्रेजी को शासन की भाषा बनाने के लिए वैसा ही आन्दोलन शुरू किया था जैसा कि आज हिन्दी वाले कर रहे हैं । बरसों के संघर्ष के बाद उन्हें सफलता मिल पाई और अन्तत: ब्रिटेन पर ‘अंग्रेजी लादनी पडी ।’हिन्दी की शब्द सम्पदा उथली नहीं है । यह गरीब भाषा बिलकुल ही नहीं है । अलबत्ता यह ‘अमीर बेटों की गरीब मां’ जरूर है ।यह बिलकलु ही सही है कि ‘चलेगा वही जिसे जनता वापरेगी’ लेकिन सवाल यही है कि चलाएगा कौन । भाषा के अपने पांव नहीं होते । वह तो लोगों की जबान से रास्ता बनाती है और लोग वही तथा वैसा ही बोलते हैं जो उनके सामने परोसा जाता है ।ये परोसने वाले आप-हम ही हैं । इसलिए अपने आप से आंखें चुराने के बजाय अपनी जिम्मेदारी समझें और हिन्दी का कर्ज उतारने की चेष्टा करें ।
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बच के रहना रे उवाच >… सही लिखा है, बहुत हद तक यह सही भी है। अब हुआ न कोरम पूरा! आपको भी हम सादर शरीफत्व का श्रीफल-दुशाला भेंट करते हैं बन्धु. आप और श्रीश तो हमारे गाढ़े समय के दोस्त हैं.
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अब यह तो गलत बात है जी। प्रोवोक न होने से श्रीश बाबू शरीफ़ हो गए, और हम भी तो प्रोवोक नहीं हुआ, तो हमका काहे नहीं शरीफ़ की उपाधि से सम्मानित किए!! ;)असल में हिन्दी-अंग्रेजी में लाग-डांट होने का कारण सिर्फ यह है कि अंग्रेजों ने यहां राज किया. अन्यथा, अगर फ्रेंच में लिखा होता तो फ्रेंच पर व्यंग न होता; मात्र अनुरोध होता कि जरा साथ में हिन्दी अनुवाद भी लिख दिया करें!सही लिखा है, बहुत हद तक यह सही भी है। कुछ इसी विषय पर मैंने एक अरसा पहले लिखा था।
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जो मन आये सो कर गुजरिये, ताकि गुजरने के वक्त टेंशन न हो कि हाय कुछ रह गया।होरजी, कापीराइट का मतलब होंदा है-राइट टू कापीआलोक पुराणिक
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