दिन गुजर गया। अच्छा ही था। एक घण्टे से ज्यादा शारीरिक गतिविधि थी। या तो इसी परिसर में चक्कर लगा लगा कर साइकिल चलाई या फिर 100 कदम प्रति मिनट से ज्यादा तेज चलते हुये पैदल चहलकदमी की। कहीँ बाहर नहीं गया। कुल नौ पुस्तकों का सार संक्षेप सुना। इनमें से एक या दो पुस्तकें पूरी पढ़नी हो सकती हैं। बाकी तो पढ़ी मानी जा सकती हैं।
शाम ढलते ढलते दोनो तरह के, विपरीत भाव मन में आ रहे हैं। एक और दिन के यूं ही गुजर जाने का भाव – कुछ नैराश्य भी; और दूसरे जीवन में कुछ सार्थकता का भाव। जीवन इन दो भावों के बीच झूलता है।
गांव की शाम अलग ही होती है। शहर में दिन अठारह घण्टे का होता है पर गांव में बारह घण्टे भर का। सूर्योदय से सूर्यास्त तक का। अंधेरा होने के घंटे भर में घर के आजू बाजू सियारों की हुआं हुआं की एकल और फिर समवेत ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। कभी कभी उससे अलग प्रकार की ध्वनियाँ भी आती हैं। शायद एक दो लोमड़ी भी हैं आसपास। उनके अचानक दिखने पर गांव के कुकुर भी सक्रिय हो जाते हैं। और उल्लू तो हैं ही बड़े घने वृक्षों पर। पोर्टिको में खड़े होने पर चमगादड़ों के आसपास उड़ने का आभास भी होने लगता है।
ये सभी जल्द ही सक्रिय हो जाते हैं और रात बड़ी तेजी से पूरे परिवेश को ढ़ंक लेती है।
सात साल पहले जब यहां आया था तो रात में कुछ भी नहीं दीखता था। अमूमन बिजली नहीं आया करती थी और आती भी थी तो स्ट्रीट लाइट नहीं होती थीं। फिर कुछ सोलर लाइटें बंटीं। उनसे साल भर रोशनी बढ़ी। पर जल्दी ही उनकी बैटरी बैठ गयी या चोरी चली गयी। सोलर पैनल भी गायब हो गये। उसके बाद विकास हुआ। हाईवे पर सतत बिजली जलने लगी। पास का रेलवे स्टेशन भी जगमग होने लगा और गांव में भी पहले से बेहतर हुई बिजली की दशा।
अब उतनी दुर्दशा नहीं है कि सूरज ढलने पर कुछ दिखाई ही न पड़े। पर गांव की आदत तो गांव ही की है। वह सांझ होने पर पलक ढरकाने लगता है। उसकी प्रकृति में खास बदलाव नहीं हुआ है। बदलाव काहे हो और कितना हो? गांव और शहर में अंतर तो होना ही चाहिये।
सूरज सवा पांच बजे ढलता है और गांव अपने को एक घण्टा पहले से समेटने लगता है। पक्षियों के झुण्ड जो खेतों में पेट भर रहे होते हैं, पेड़ों की ओर आने लगते हैं। औरतें जो शाम की निराई कर अपनी गाय के लिये घास छीलने में व्यस्त थीं, अपने गट्ठर समेट पर उसमें हंसिया खोंस, बोझ सिर पर लिये सिंगल फाइल में पगडण्डी पर चलती हुई झुण्ड में घर लौटने लगती हैं। लड़कियाँ और लड़के बकरी चराने निकले होते हैं। वे बकरियों की रस्सी थामे घर का रास्ता नापने लगते हैं। समोसे पकौड़ी के गुमटी वाले दुकानदार अंतिम खेप बेच कर अपना गल्ला समेटने लगते हैं।
दो घण्टे बाद यह तेज गतिविधि समाप्त हो चुकी होगी। सब सिमट चुके होंगे। अपने घर की देहरी पर बैठे लोग धीमे धीमे बातचीत कर रहे होंगे कऊड़ा के इर्दगिर्द। वह भी रात आठ नौ बजे तक ही होता है। उसके बाद लोग अपनी मड़ई या कमरों में हो जाते हैं। कऊड़ा की जगह कुकुर ले लेते हैं।

खेती किसानी के काम में भी परिवर्तन आया है। यहाँ पराली नहीं जलती। यहां पुआल/भूसा भी वैसा ही महत्व रखता है जैसा अनाज। वजन के हिसाब से जितना धान होता है उतना पुआल भी। धान 18रु किलो का होता है तो पुआल भी 5-6रु किलो का।
धान तो अस्सी फीसदी कट चुका है। सटका भी जा चुका है काफी हद तक। पुआल के गट्ठर समेटे जा रहे हैं। शाम होते होते पुआल समेटने की गतिविधि पर भी विराम लग जाता है। रात में अगर अगली फसल के लिये खेत में पानी देने का इंतजाम करना हो तो अधियरा लोग अपने गर्म कपड़े (जितने भी उनके पास होते हैं), टॉर्च आदि सहेज कर ट्यूबवेल और खेत के आसपास लपेटा पाइप बिछाने लगते हैं। केवल वही कुछ लोग हैं जो रात की शिफ्ट में काम करते हैं। या फिर अरहर के खेत की नीलगाय से रखवाली करने वाले।
शेष गांव सो जाता है। मेरे हिसाब से अनिद्रा की समस्या अधिकतर लोगों को नहीं है। मेरे जैसे कुछ ही होंगे। रात के साढ़े ग्यारह बजे मैं बिस्तर से उठ कर की-बोर्ड पर कुछ पंक्तियाँ लिखने की कोशिश कर रहा हूं।
आज सर्दी कुछ कम है। सियारों की हुआँ हुआँ भी कम ही है। रेलवे स्टेशन पर लूप लाइन में खड़ी ट्रेन का डीजल इंजन ऑन है। हर थोड़ी थोड़ी देर में छींकता है। एक ट्रेन तेजी से गुजर जाती है। अब शायद लूप में खड़ी इस मालगाड़ी का नम्बर लगे। मैं पूरी कोशिश कर अपने मन को रेल की पटरियों से वापस गांव में खींचता हूं। अन्यथा अभी मन रेल के यादों के तीन दशक में कुछ न कुछ खंगालने लग जायेगा।
गांव की शाम कब की जा चुकी। आधी रात होने को है। नयी तारीख आने को है। … तारीख पर तारीख! साठोत्तर जिंदगी भी शिलिर शिलिर चलती अदालती केस सी लगती है कभी कभी। उस सोच से अपने को बचाने की जुगत में रहना चाहिये हमेशा। जीवन अदालती केस नहीं, नित्य त्यौहार होना चाहिये। नहीं?
एक नये दिन की प्रतीक्षा में कुछ घण्टे नींद लेने का प्रयास किया जाये!
जीवंत लेखन, शहर के यात्री को गाँव की राह पकड़ने में देर लगती ही है।
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बहुत बहुत धन्यवाद जी 🙏🏼
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Bahut Badhia tha.
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धन्यवाद जी 🙏🏼
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नमस्कार ज्ञान दत्त जी।
मेरा दिन भी खत्म हो चुका है, और सो जाने से पहले आपका लिखा यह लेख पढ़ा। बहुत सरल और सुंदर लिखा है जो जीवंत है और मन को छू लेता है। आपके घर की तस्वीर को बड़ा कर देखने समझने की कोशिश की। आशा है कभी इस प्रांगण में किसी शाम आपसे मिलने बातें करने का अवसर मिलेगा। शुभ रात्रि।
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गाँव की शाम का सजीव वर्णन किया है आपने। अपने इंजीनियरिंग के दिन में गाँव के आस-पास ही रहना होता था तो पहले वर्ष ऐसे ही अनुभव मुझे भी होते थे। फिर कॉलेज खुलने के दूसरे तीसरे वर्षों से बदलाव होने लगा था लेकिन फिर भी मेरे पास आउट होने तक वह माहौल काफी बचा हुआ था। अब तो काफी वर्ष हो गए तो शायद माहौल बिल्कुल बदल गया हो।
वैसे आखिरी बात क्या खूब कही, आपने। जीवन अदालती केस नहीं होना चाहिए बल्कि नित्य त्यौहार होना चाहिए। यही चीज हम समझ जाएँ तो बात बन जाए।
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धन्यवाद विकास जी कि आपको यह लेखन रूचिकर लगा! 🙏🏼
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