‘हिंदी एक बीमार भाषा है। क्योंकि इसका मुल्क बीमार है। अस्सी फीसदी नौजवान हाथ बेकार हैं। प्रोफेसर और दूसरे कमाने वालों को बैंक का ब्याज चुकाना है, वे ट्यूशन पढ़ा रहे हैं, कमाई का अतिरिक्त ज़रिया खोज रहे हैं। वे क्यों पढ़ेंगे किताब? आपकी किताब उन्हें दुष्चक्र से बाहर निकलने का रास्ता नहीं दिखा रही।‘ मित्रों यह हमारी नहीं मुहल्ले की आवाज है.
मजा आ गया मुहल्ले की आज की पोस्ट पढ़ कर. मैं लिंक नहीं करूंगा. मैं तो बस देख रहा हूं हिन्दी पर जूतमपैजार. मैं नहीं चाहता कि मुहल्ले या विरोधी ठाकुर-बाभन मेरे पोस्ट को अपनी व्यायामशाला का एक्स्टेंशन मान लें.
पहले सुमित्रानन्दन पंत पर (या नामवर सिन्ह पर – जो भी हों क्या फरक पड़ता है) कूड़ा उछाला गया. किसपर गिरा पता नहीं. अब फिर चालू हो गया है.
हिन्दी है ही दुरुह! इसमें बकरी की लेंड़ी गिनने का मॉर्डन मेथमेटिक्स है. इसमें पंत पर कविता है. इसमें लम्बे-लम्बे खर्रों वाला नया ज्ञानोदय है. बड़े-बड़े नाम और किताबों की नेम ड्रापिंग है. पर इसमें नौकरी नहीं है!
लेकिन मेरा मानना है कि हिन्दी साहित्य के नाम पर दण्ड-बैठक लगाने वाले कहीं और लगायें तो हिन्दी रिवाइटल खिला कर तन्दुरुस्त की जा सकती है. अगर 100-200 बढ़िया वेब साइटें हिन्दी – समझ में आने वाली हिन्दी (बकरी की लेंड़ी वाली नही) – में बन जायें तो आगे बहुत से हाई-टेक जॉब हिन्दी में क्रियेट होने लगेंगे. इस हो रही जूतमपैजार के बावजूद मुझे पूरा यकीन है कि मेरी जिन्दगी में हिन्दी बाजार की भाषा (और आगे बाजार ही नौकरी देगा) बन कर उभरेगी.
नागार्जुन जी की तर्ज में कहें तो साहित्य-फाहित्य की ऐसी की तैसी.
पांडे जी,आप भी युटोपिया में ही रह्तेंहैं क्या?भारत के जितने भी हिन्दी चैनेल हैं वहां वाकई मुन्शी प्रेमचन्द जी का बायोडाटा मांगने वालों की भरमार है.ऐसे मनोरंजन चैनेल मे हिन्दीवालों को बडे़ हिकारत से देखा जाता है.जबकी ये सारे चैनल हिन्दी की ही खाता है और भारतीय बाज़ार मे इनकी हिस्सेदारी भी कम नही है.
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सत्य वचन सर, अब ये भी हमारी हिन्दी है और यकीन मानिये ऐसी हिन्दी ही बाजार की भाषा नही साहित्य कहलाने वाली है बकरी की लेडी हो सकता है भाई लोगों के चाहने से शदी की परसिद व्यंग बन जाये ।
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पुराणिक उवाच > …कल एक सीनियर हिंदी आलोचक से मैंने पूछा-बताइए मेरा हिंदी साहित्य में क्या स्थान है। उसने जवाब दिया -घंटा। आप ज्यादा शब्द क्यों प्रयोग करते हैं? कोई भी हिन्दी आलोचक हो, सीनियर ही होता है. अत: सीनियर हिंदी आलोचक लिखने का क्या तुक? श्रीश जी की टिप्पणी दो बार आ गयी थी. इसलिये एक बार की मैने डिलीट की है. उनसे कोई झगड़े के कारण नहीं! 🙂
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