आपको इस पोस्ट का शीर्षक अजीब सा लग सकता है। यह स्कूल मास्टर की आर्थिक दशा पर अवधी/भोजपुरी में कही एक कहावत है जो गुन्नीलाल पाण्डेय जी ने उद्धृत की। अभिप्राय यह कि, उनके युग में, (अनियंत्रित आदतों के कारण) स्कूल मास्टर दो का ही खर्च संभालने लायक होता था, बच्चे ननिहाल की कृपा से पलते थे। … आज भी कमोबेश वही हालत होगी, बावजूद इसके कि वेतन पहले की अपेक्षा बहुत सुधर गये हैं। बहुत बड़ी आबादी अपने खर्चे अपनी आय की सीमा में समेटने की आदतों को नहीं अपनाती… और यह इस प्रांत/देश की बात नहीं है – वैश्विक समस्या है। उपभोक्तावाद ने उत्तरोत्तर उसे और विकट बना दिया है।

गुन्नी लाल पाण्डेय मेरी जीवन की दूसरी पारी के प्रिय मित्र हैं। वे स्कूल मास्टर के पद से रिटायर हुये हैं। पहली पारी में उनसे मुलाकात तो सम्भव नहीं ही होती। दूसरी पारी में भी अगर मैं अगर एक कॉन्ट्रेरियन जिंदगी जीने की (विकट) इच्छा वाला व्यक्ति न होता और मेरी पत्नीजी मेरी इस खब्ती चाहत में साथ न देतीं तो गुन्नीलाल जी से मुलाकात न होती। उनसे मैत्री में बहुत और भी ‘अगर’ हैं, पर उनसे मैत्री शायद हाथ की रेखाओं में लिखी थी, तो हुई।
गुन्नीलाल मेरे देशज भाषा कोष में; जब भी उनसे मुलाकात होती है; कुछ न कुछ वृद्धि कर ही देते हैं। इस बार बताया कि “चाय त ठीक बा, नमकिनियाँ तनी मेहराइ गइ बा” (चाय तो ठीक है, पर नमकीन थोड़ी सील गयी है)।
उनसे मिलने के लिये उनके घर, अगियाबीर गया था। उनके घर बरसात के मौसम में जाने का अर्थ है, कम से कम 100 मीटर का पगडंडी का पतला रास्ता पैदल, साइकिल को घसीटते हुये पार करना। आप समझ सकते हैं कि उनसे मिलने की इच्छा कितनी तीव्र होती होगी। और पांड़े जी ने अपने सतसंग में मुझे कभी निराश नहीं किया।
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उनसे चर्चा हुई कि किस प्रकार स्कूल मास्टर की सीमित सेलरी में उन्होने न केवल अपने परिवार का भरण-पोषण किया, वरन एक सुरुचिपूर्ण घर का निर्माण किया; गांव के लिये आदर्श जीवन स्तर को बनाया और उसे अपने रिटायरमेण्ट के बाद कायम रखा।
उन्होने अपने संयमित जीवन की महत्वपूर्ण बातें मुझे बताईं।

उन्होने कहा – “यह बड़ी नियामत है कि पेंशन मिलती है। मैं तो यह मान कर चलता हूं कि सरकार रोज रात को मेरे तकिये के नीचे एक हजार का नोट रख देती है। मैं उठता हूं तो यह सुकून मिलता है कि दिन के खर्च के लिये सरकार ने एक हजार दिये हैं। एक हजार बहुत होता है, जब अपनी जिंदगी अपनी नियत सीमा में काटी जाये। अन्यथा स्कूल मास्टरी के बारे में कहावत है – करें मास्टरी दुइ जन खाइँ, लरिका होइँ, ननियउरे जाइँ (स्कूल मास्टरी करें तो दो व्यक्ति (पति-पत्नी) का ही गुजारा होता है। बच्चे होते हैं तो वे ननिहाल भेज दिये जाते हैं, अपना खर्च बचाने के लिये)।”
गुन्नीलाल जी का मत है कि हमें 50-30-20 के नियम का पालन करना चाहिये। “जितनी आमदनी हो, उसके पचास प्रतिशत में घर का खर्च चलना चाहिये। तीस प्रतिशत को रचनात्मक खर्च या निर्माण के लिये नियत कर देना चाहिये। बचे बीस प्रतिशत की बचत करनी चाहिये। अन्यथा, बहुत मामले ऐसे आते हैं कि साठ साल से अधिक उम्र होने पर (रिटायर होने पर); फुटपाथ या ठेले पर दुकान लगाने की नौबत आती है।”
गुन्नीलाल जी ने जो कहा, उन्हें दोबारा मोबाइल के कैमरे के सामने दोहराने का मैंने अनुरोध किया। वह वीडियो नीचे प्रस्तुत है।
अपने घर वापस आ कर मैंने और मेरी पत्नीजी ने गुन्नीलाल जी के कहे पर विचार किया। हम लोगों की दशा इतनी खराब नहीं है। किसी भी प्रकार का कोई कर्ज या कोई व्यसन हममें नहीं है। पर खर्चे 50-30-20 के नियम के आधार पर तो नहीं होते। बहुधा खर्च बजट की सीमा पार कर जाता है। रचनात्मक खर्च या निर्माण का तो नम्बर ही नहीं लगता। वह खर्च अगर होता है तो अपने रिटायरमेण्ट कॉर्पस से निकाल कर ही हो पाता है। सामान्य खर्च ही तीस प्रतिशत की मद को लील जाता है। हमें यह भी लगा कि गुन्नी पांड़े की तरह हमें भी खर्च की दैनिक सीमा का पालन करना चाहिये, बनिस्पत महीने के प्रारम्भ में शाहखर्ची दिखाने के। … बहुत कुछ है जो एक सफल रिटायर्ड स्कूल अध्यापक से सीखा जा सकता है।
और हम गुन्नीलाल जी के कहे से प्रेरित हो अपनी खर्च करने की आदतों में परिवर्तन करने भी जा रहे हैं।
Bahoot sundar kahavat suni.
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