एक घायल पिल्ले की पांय-पांय


परसों एक पिल्ला एक कार से टकरा गया. बहुत छोटा नहीं था. कुत्ते और पिल्ले के बीच की अवस्था में था. कार रुकी नहीं. पिल्ला मरा नहीं. जख्मी होकर पांय-पांय करता रहा. शायद अपंग हो जाये. अपंग होने पर मानव का जीवन दुरूह हो जाता है, जानवर के लिये तो और भी कठिन होगा. मेरी भी गाड़ी वहां रुकी नहीं थी. इसलिये पता नहीं पिल्ले को कितनी चोट लगी. पर मन जरूर लगा है.

पिल्ला अचानक गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ा था. गलती ड्राइवर की नहीं थी. पर शायद मानव का बच्चा होता तो वह आपात तरीके से ब्रेक लगा कर दुर्घटना बचा लेता.

भारत में सड़कें सभी प्रयोग करते हैं. पैदल, साइकल सवार, वाहन वाले और जानवर – सभी बिना लेन के उसी पर चलते हैं. फुटपाथ की जगह पार्किंग, बिजली के ट्रांसफार्मर, हनुमान जी के मन्दिर और पटरी/ठेले पर दुकान लगाने वाले छेंक लेते हैं. चलने और वाहनों के लिये सड़क ही बचती है. बेतरतीब यातायात में आदमी फिर भी बच जाता है; जानवर मरता या अपंग होता है.

इसी तरह ट्रेनों से कट कर जानवर मरते हैं. पिल्ले की याद तो अब तक है. पर वे जानवर तो हमारे आंकड़े भर बन जाते हैं. फिर यह पता किया जाता है कि कितने पालतू थे और कितने जंगली. आंकड़ों में जंगली जानवर बढ़ रहे हैं. शायद नीलगायों की आबादी बढ़ रही है. एक नीलगाय या पालतू जनवर कट जाने पर कमसे कम आधा घण्टा ट्रेन लेट होती है. आधे से ज्यादा मामलों में इंजन फेल हो जाता है और ट्रेन 2 से ढ़ाई घण्टे लेट हो जाती है. हमारा सारा ध्यान रेलगाड़ी के व्यवधान की तरफ रहता है. जानवर के प्रति सोच या करुणा का भाव तो रहता ही नहीं. साल भर मे एक-आध मामला तो हो ही जाता है जब नीलगाय या भैंसे के कट जाने से गाड़ी पटरी से उतर जाये.

जमीन पर दबाव इतना है कि चरागाह बचे ही नहीं. लोग तालाबों तक को पाट कर खेती कर रहे हैं या मकान बना रहे हैं. जानवर रेल की पटरी के किनारों पर चरने को विवश हैं. चाहे जंगली हों या पालतू. जब ट्रेनों की गति और बढ़ेगी तो शायद पटरी को बाड़ लगा सुरक्षित किया जाये. तब जानवर भी सुरक्षित हो जायेंगे. अभी तो जानवर कट ही जाते है. इसके अलावा पटरी के किनारे कई अपंग जानवर भी दिख जाते हैं जो घायल हो कर बचे रहते हैं जीवन का अभिशाप झेलने को.

जहां आदमी जीने को जद्दोजहद करता हो, जानवर को कौन पूछे? पिल्ले की पांय-पांय की आवाज अभी भी मन में गूंज रही है. कोई और दुख या सुख जब तक उसका स्थान नहीं ले लेता, तब तक गूंजेगी.


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

9 thoughts on “एक घायल पिल्ले की पांय-पांय

  1. ऐसी आपबीती लिखते रहिए ताकि हम अपने मनुष्‍य होने को याद करते रह सकें । हममें से हर कोई, जल्‍दी से जल्‍दी भूल जाना चाहता है कि वह मनुष्‍य है । ‘एलपीजी’ ने हमें यन्‍त्र बना ही दिया है ।

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  2. दुनिया भी क्या अजीब चीज है. जिन्हे मार दिया जाना चाहिए छूटते घूम रहे हैं. और निर्दोष बेवजह मारे जाते हैं. हम हर दूसरे-तीसरे दिन ऎसी हृदयविदारक घटनाएँ देखते हैं. दुःखी होते हैं. अफ़सोस यह कि कर कुछ नहीं पाते.

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  3. @ अनूप शुक्ल – जब गाड़ियों की गति >१५० कि.मी.प्र.घ. से अधिक होने लगेगी तब बिना ट्रैक को सुरक्षित किये यह सम्भव नहीं हो सकेगा.

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  4. बहुत सही, खासतौर से अंतिम पंक्तियां, अक्सर ऐसे दृश्य देखने के बाद यही होता है!!

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  5. आपकी संवेदनशीलता आपसे ऐसी बातें सोचवाती है। क्या सही में रेलवे लाइन के किनारे बाड़् लगाने की योजना प्रस्तावित है!

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  6. दुखद, सच में यह डाइमेंशन दिमाग से निकल जाता है। सरवाइवल फार दि फिटेस्ट का फंडा है सारे इंसान भी कहां बच पाते हैं। सलमान या दिल्ली में हथियारों के कारोबारी नंदाजी की बीएमडब्लू के नीचे इंसान कुचले जाते हैं। मारने वाले बच जाते हैं। बैड, सैड।

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  7. यह लेख आपके अति संवेदनशील और भावुक हृदय की भावनाओं को दिखाता है. पिल्ले की पांय-पांय की आवाज अभी भी मन में गूंज रही है. कोई और दुख या सुख जब तक उसका स्थान नहीं ले लेता, तब तक गूंजेगी.-सच है, समय हर घाव भर देता है, यह भी समय के साथ ही भरेगा.

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  8. “जहां आदमी जीने को जद्दोजहद करता हो, जानवर को कौन पूछे? पिल्ले की पांय-पांय की आवाज अभी भी मन में गूंज रही है. कोई और दुख या सुख जब तक उसका स्थान नहीं ले लेता, तब तक गूंजेगी.”

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