‘बना रहे बनारस’ – श्री विश्वनाथ मुखर्जी


श्री विश्वनाथ मुखर्जी की यह पुस्तक – बना रहे बनारस सन 1958 में भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ने छापी थी. उस समय पुस्तक की छपी कीमत है ढ़ाई रुपया. अब भी शायद 30-40 रुपये के आस-पास होगी. इस 188 पेज की पुस्तक में कुल 24 लेख हैं. अर्थात प्रत्येक लेख 7-8 पृष्ठ का है. सभी लेख बनारस से बड़ी सहज और हास्य युक्त शैली में परिचय कराते हैं. मेरे पास तो 1958 की छपी पुस्तक की फोटो कॉपी है.

मैं यहां पुस्तक की लेखक द्वारा लिखी प्रस्तावना प्रस्तुत कर रहा हूं, और फिर पुस्तक के कुछ फुटकर अंश.

बना रहे बनारस की प्रस्तावना:


मैने कहा —

खुदा को हाज़िर-नज़िर जान कर मैं इस बात को कबूल करता हूं कि बनारस को मैने जितना जाना और समझा है, उसका सही-सही चित्रण पूरी ईमानदारी से किया है. प्रस्तुत पुस्तक जिस शैली में लिखी गयी है, आप स्वयम ही देखेंगे. जहां तक मेरा विश्वास है,किसी नगर के बारे में इस प्रकार की व्यंगात्मक शैली में वास्तविक परिचय देने का यह प्रथम प्रयास है. इस संग्रह के जब कुछ लेख प्रकाशित हुये तब उनकी चर्चा वह रंग लायी कि लेखक केवल हल्दी-चूने के सेवन से वंचित रह गया. दूसरी ओर प्रसंशा के इतने इतने पत्र प्राप्त हुये हैं कि अगर समझ ने साथ दिया होता तो उन्हें रद्दी में बेंच कर कम से कम एक रियायती दर का सिनेमा शो तो देखा ही जा सकता था.

इन लेखों में कहीं-कहीं जन श्रुतियों का सहारा मजबूरन लेना पड़ा है. प्रार्थना है कि इन श्रुतियों और स्मृतियों को ऐतिहासिक तथ्य न समझा जाये. हां, जहां सामाजिक और ऐतिहासिक प्रश्न आया है, वहां मैने धर्मराज बन कर लिखने की कोशिश की है. पुसतक में किसी विशेष व्यक्ति, संस्था या सम्प्रदाय ठेस पंहुचाने क प्रयास नहीं किया गया है, बशर्ते आप उसमें जबरन यह बात न खोजें. अगर कहीं ऐसी बात हो गयी हो या छूट गयी हो तो कृपया पांच पैसे से पन्द्रह नये पैसे के सम्पत्ति दान की सनद मेरे पास भेज दें ताकि अगले संस्करण में अपने आभार का भार आपपर लाद कर हल्का हो सकूं. गालिब के शैरों के लिये आदरणीय बेढबजी का, जयनारायण घोषाल जी की कविताओं के लिये प. शिव प्रसाद मिश्र रुद्र जी का, संगीत सम्बन्धी जानकारी के लिये पारसनाथ सिंह जी का, पाण्डुलिपि संशोधन, धार्मिक-सांस्कृतिक जानकारी के लिये तथा प्रूफ संशोधन के लिये केशर और भाई प्रदीप जी का आभारी हूं.

अंत में इस बात का इकबाल करता हूं, कि मैने जो कुछ लिखा है, होश-हवाश में लिखा है, किसी के दबाव से नहीं. ये चन्द अल्फाज़ इस लिये लिख दिये हैं कि मेरी यह सनद रहे और वक्त ज़रूरत पर आपके काम आये. बस फ़कत —

बकलमखुद
विश्वनाथ मुखर्जी
सिद्धगिरि बाग
बुद्ध पूर्णिमा, 2015 वि.


पुस्तक के कुछ अंश:


सफाई पसन्द शहर –

...तीर्थ स्थान होने की वजह से यहां गन्दगी काफी होती है. लिहाजा सफाई खर्च (बनाम जुर्माना ) तीर्थयात्री कर के रूप में लिया जाता है. बनारस कितना साफ सुथरा शहर है इसका नमूना गली सड़कें तो पेश करती ही हैं, अखबारों में सम्पादक के नाम पत्र वाले कालम भी “प्रसंशा शब्दों” से रंगे रहते हैं. माननीय पण्डित नेहरू और स्वच्छ-काशी आन्दोलन के जन्मदाता आचार्य विनोबा भावे इस बात के कंफर्म्ड गवाह हैं.
खुदा आबाद रखें देश के मंत्रियों को जो गाहे-बगाहे कनछेदन, मूंडन, शादी और उद्घाटन के सिलसिले में बनारस चले आते हैं जिससे कुछ सफाई हो जाती है; नालियों में पानी और चूने का छिड़काव हो जाता है.

बनारस की सड़कें –

… जब कोई बैलगाड़ी, ट्रक, जीप या टेक्सी इन सड़कों पर से गुजरती है तब हर रंग की हर ढ़ंग की समांतर रेखायें, त्रिभुज और षटकोण जैसे अजीब गरीब नक्शे बन जाते हैं कि जिसका अंश बिना परकाल की सहायता के ही बताया जा सकता है. नगरपालिका को चाहिये कि वह यहां के अध्यापकों को इस बात का आदेश दे दे कि वे अपने छात्रों को यहां की सड़क पर बने हुये इस ज्योमेट्रीका परिचय अवश्य करा दें. सुना है कि काशी के कुछ माडर्न आर्टिस्ट इन नक्शों के सहयोग से प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं.
यहां की सड़कें डाक्टरों की आमदनी भी बढ़ाती हैं. यही वजह है कि अन्य शहरों से कहीं अधिक डाक्टर बनारस में हैं. … यहां हर 5 कदम पर गढ़्ढ़े हैं. जब इन गढ़्ढ़ों में पहिया फंसेगा तब पेटका सारा भोजन कण्ठ तक आ जायेगा. दूसरे दिन बदनमें इतना दर्द हो जायेगा कि आपको डाक्टर का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा.

बनारसी निपटान –

सुबह के समय लोगा प्रात: क्रिया से निवृत्त होते हैं, इस क्रिया को बनारसी शब्द में ‘निपटान’ कहते हैं. बनारस में नगरपालिका की कृपा से अभी तक भारत की सांस्कृतिक राजधानी और अनादिकाल की बनी नगरी में सभी जगह ‘सीवर’ नहीं गया है. भीतरी महाल में जाने पर वहां भरी गर्मी की दोपहर को लाइट की जरूरत महसूस होती है. फलस्वरूप अधिकांश लोगों को बाहर जा कर निपटना पड़ता है. निपटान एक ऐसी क्रिया है जिसे बनारसी अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य समझता है. बनारस के बाहर जाने पर उसे इसकी शिकायत बनी रहती है. एक बार काशी के एक प्रकाण्ड पण्डित सख्खर गये. वहां से लौटने पर सख्खर-यात्रा पर लेख लिखते हुये लिखा – ‘हवाई जहाज पर निपटान का दिव्य प्रबन्ध था.’ कहने का मतलब है कि हर बनारसी निपटान का काफी शौक रखता है.

असली बनारसी –

एक बनारसी सही माने में बनारसी है, जिसके सीने में एक धड़कता हुआ दिल है और उस सीने में बनारसी होने का गर्व है, वह कभी भी बनारस के विरुद्ध कुछ सुनना या कहना पसन्द नहीं करेगा. यदि वह आपसे तगड़ा हुआ तो जरूर इसका जवाब देगा, अगर कमजोर हुआ तो गालियों से सत्कार करने में पीछे न रहेगा. बनारस के नाम पर धब्बा लगे ऐसा कार्य कोई भी बनारसी स्वप्न में भी नहीं कर सकता. … बनारसी अगर घर के भीतर गावटी का गमछा पहन कर नंगे बदन रहता है तो वह उसी तरह गंगास्नान या विश्वनाथ दर्शन भी कर सकता है. उसके लिये यह जरूरी नहीं कि घर के अन्दर फटी लुंगी या निकर पहन कर रहे और बाहर निकले तो कोट-पतलून में. दिखावा तो उसे पसन्द नहीं. … आजकल बड़े शहरों में मेहमान आ जाने पर लोग चिढ़ जाते हैं, पर बनारसी चिढ़ता नहीं. … मस्त रहना बनारसियों का सबसे बड़ा गुण होता है. ….


चलते-चलते: भारतीय सहित्य संग्रह के इस वेब-पेज पर है कि श्री विश्वनाथ मुखर्जी अब स्वर्गीय हैं. उन्होनें शरत चद्र की जीवनी भी लिखी थी. श्री विश्वनाथ मुखर्जी को सादर श्रद्धांजलि.


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

12 thoughts on “‘बना रहे बनारस’ – श्री विश्वनाथ मुखर्जी

  1. सुकेतु मेहता की ’द मैक्सिमम सिटी’ पढने की इच्छा है। इसलिये भी क्यूकि ये मुम्बई पर लिखी गयी है और एक किताब मे अपनी देखी हुयी जगहे देखना/पढना कैसा होगा। लखनऊ के एक काफ़ीशाप के बारे मे कुछ कहानियो मे पढा था.. वहा जाकर वैसा हि लगता है कि उन लोगो के साथ बैठा हू..कुछ खोज रहा था.. खोजते खोजते गूगल बाबा ने यहा भेज दिया। काफ़ी दिन से आपको मेल करने की सोच रहा था। बात करने की भी ख्वाहिश थी..आपकी तबियत अभी कैसी है?

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