ऐसी स्थिति में कैसे आ जाते हैं लोग?


एक अच्छी कद काठी का नौजवान सड़क के किनारे लेटा था. अर्ध जागृत. गौर-वर्ण. बलिष्ठ देह. शरीर पर कहीं मांस न कम न ज्यादा. चौड़ा ललाट. कुल मिला कर हमारी फिल्मों में या मॉडलिंग में लुभावने हीरो जैसे होते हैं, उनसे किसी भी प्रकार उन्नीस नहीं.

पर मैले कुचैले वस्त्र. कहीं कहीं से फटे हुये भी. बालों में लट बनी हुई. एक बांह में पट्टी भी बन्धी थी शायद चोट से. पट्टी भी बदरंग हो गयी थी. वह कभी कभी आंखें खोल कर देख लेता था. कुछ बुदबुदाता था. फिर तन्द्रा में हो जाता था. कष्ट में नहीं केवल नशे में प्रतीत होता था.

मुझे उस स्त्री मॉडल की याद हो आई जो भीख मांगते पायी गयी थी. अखबारों ने पन्ने रंग दिये थे. अब शायद कहीं इलाज चल रहा है उसका.

इस नशे में पड़े जवान की देहयष्टि से मुझे ईर्ष्या हुई. तब तक ट्रैफिक जाम में फंसा मेरा वाहन चल पड़ा. वह माइकल एंजेलो की कृति सा सुन्दर नौजवान पीछे छूट गया. मुझे सोचने का विषय दे गया. ऐसी स्थिति में कैसे आ जाते हैं लोग? अष्टावक्रों के लिये यह दुनियां जरूर निर्दयी है. फिजिकली/मेण्टली चैलेंज्ड लोगों के साथ कम से कम अपने देश में मानवीय व्यवहार में कमी देखने में आती है. पर इस प्रकार के व्यक्ति जो अपनी उपस्थिति मात्र से आपको प्रभावित कर दें कैसे पशुवत/पतित हो जाते हैं?

जीवन में तनाव और जीवन से अपेक्षायें शायद बढ़ती जा रही हैं. मैं बार-बार यह गणना करने का यत्न करता हूं कि कम से कम कितने पैसे में एक व्यक्ति सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर सकता है? बार-बार गणना करने पर भी वह रकम बहुत अधिक नहीं बनती. पैसा महत्वपूर्ण है. पर उसका प्रबन्धन (इस मंहगाई के जमाने में भी) बहुत कठिन नहीं है. हां; आपकी वासनायें अगर गगनचुंबी हो जायें तो भगवान भी कुछ नहीं कर सकते. नारकीय अवस्था में आने के लिये व्यक्ति स्वयम भी उतना ही जिम्मेदार है जितना प्रारब्ध, समाज या व्यवस्था.

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा। वाले प्रसंग में राम, विभीषण की अधीरता देख कर, विजय के लिये जिस रथ की आवश्यकता होती है, उसका वर्णन करते हैं. जरा उसका अवलोकन करें:

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।

बहुत समय पहले मैं बेंजामिन फ्रेंकलिन की आटो-बायोग्राफी का अध्ययन कर रहा था. वे एक समय में एक गुण अपने में विकसित करने का अभियान ले कर चलते हैं. हम भी एक गुण एक समय में विकसित करने का प्रयास करें तो बाकी सभी गुण स्वत: आयेंगे. बस प्रारम्भ तो करें!

मेरे सामने उस सड़क के किनारे पड़े नौजवान की छवि बार बार आ जाती है और मैं नहीं चाहता कि कोई उस पतित अवस्था में पड़े. उसके लिये सतत सद्गुणों का विकास मात्र ही रास्ता नजर आता है…

आप क्या सोचते हैं?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

11 thoughts on “ऐसी स्थिति में कैसे आ जाते हैं लोग?

  1. त्रिपाठी जी ने शायद लगाया, आलोक जी ने हवा मे उडाया किन्तु इससे मुद्दा तो मरा नही. शायद कभी मरेगा भी नही .इसके पीछे केवल एक ही मानसिकता इसे जन्म देती है ,” उसकी कमीज मेरे से सफ़ेद क्यो ?”अपना कद बडा दिखाने की एक आदम सोच, तब मादा हथियाना लक्ष्य रहता था, अब हैसियत दिखलाना .कही न कही थोडा बहुत हम आप भी इसके शिकार है, भले ही न माने.एक लेबर सुस्ताता हुआ बहुत भोलेपन से पूछ बैठा,” भैइया आखिर ई पन्चे का खात होइहै ? ” मुड कर देखा वह एक अखबार के टुकडे को सीधा करता हुआ अम्बानी बन्धु मे से किसी एक पर ऊगली रखे था. मैने गौर से देखा शायद चौथे – छ्ठे तक पढने के बाद मैदान से हट गया होगा लेकिन कुछ सामयिक जानकारी जरूर रही होगी वरना ऎसा न पूछता. मेरे पास जवाब नही था लिहाजा एक बुद्धिमतापूर्ण मुस्कान बिखेरता हुआ आगे बढ गया.बाद मे सोचा, सही बात, वही दाल-रोटी तो उसके हिस्से भी आती होगी, फिर आज ११० मिलियन कल १२५ मिलियन के दावे क्या जाहिर करते है ? तुम्हारे पास ताला ब्रान्ड साबुन है तो मेरे पास सर्फ़ एक्सेल का जुगाड ! कमीज मेरी ही सफ़ेद रहेगी .एक आम आदमी जब अपनी जमीन से एकदम ऊपर के लिये टेक आफ़ करता है तो…धडाम .यथार्थ से फ़न्तासी की दुनिया मे जाने का एकदम शार्टकट लगता है नशा ! फिर एक अन्तहीन सिलसिला .लोग भले ही हसे ,लेकिन उसकी मस्ती इसकी परवाह रत्ती भर नही करती. अमीर बाप की ऊपर और ऊपर जाने की ललक बूमरैन्ग हो कर बिगडी औलादे देती है. प्रत्यक्षा जी से सहमत हू प्रायोरिटी सेट करने की जरूरत है लेकिन जो अपनी प्राथमिकता “हर फ़िक्र को धुये उडाता चलाता गया” सेट कर चुका होउसे धरातल पर उतार कर वही बनाये रखना क्या इतना आसान है प्रत्यक्षा जी ?

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