उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ में रिलायंस फ्रेश के दस स्टोर बन्द किये तो किसान सड़कों पर उतर आये. वे इन स्टोरों को पुन: खोलने की मांग कर रहे थे. लोग किस व्यवस्था से किस प्रकार त्रस्त हैं और किस उपाय का पक्ष लेंगे – कहना कठिन है. किसान बिचौलियों से त्रस्त है. मण्डी पहुंच कर वह समय बरबाद करता है. सब जगह कट देता फिरता है. फिर पैसा पाने को मण्डी के चक्कर मारता रहता है. उसके लिये आईटीसी या रिलायंस की खरीद – ऑन द स्पॉट और नगद; तो “स्वप्न में बज रहा संगीत” है.
मैं भी त्रस्त हूं नगर की म्युनिसिपालिटी की व्यवस्था से. सड़कों के किनारे फुटपाथ चोक हैं रेड़ी-ठेले और फुटपाथिया दुकानों से. मेरा घर जिस इलाके में है, वहां तो फुटपाथ है ही नहीं. ऑमलेट, चाय, सब्जी आदि के ठेले, रिक्शा, टेम्पो सभी सड़क छेंक कर परमानेण्ट वहीं रहते हैं. सिर्फ यही नहीं, इनपर खरीद करने वालों की भीड़ भी सड़क को हृदय रोग के मरीज की कोलेस्ट्रॉल से संकरी हुई धमनी/शिरा जैसा बनाने में योगदान करती है. नगरपालिका, फ़ूड इन्स्पेक्टर, पुलीस और सरकार के दर्जनों महकमे इस मामले में कुछ नहीं करते.
मुझे भी एक रिलायंस की दरकार है.
हे रिलायंस आओ! अपने वातानुकूलित स्टोर खोल कर उसमें ऑमलेट, भेलपूरी, चाय, समोसा, फलों का रस, दोसा बेचो. ठेले वाले से एक आना सस्ता बेचो. महीने के बन्धे ग्राहक को दो चम्मच-प्लेट बतौर उपहार में दो. अपने इस उपक्रम से सड़कें खाली करवा दो. सड़कें यातायात के लिये उपयोग होने लगें बनिस्पत हाट-बाजार, सामुहिक मिलन स्थल, मूत्रालय आदि के लिये.
हे रिलायंस आओ! जरा चमचमाती नगरीय सेवा की बसें चला दो इलाहाबाद में. किराया टेम्पू वाले से एक आना कम रखो. हर जगह हर लेम्प-पोस्ट पर पेशाब करने वाले कुत्ते की माफिक खड़े होने वाले इन विक्रम टेम्पो वालों से सड़क को निजात दिलाओ. सड़क को पार्किंग स्थल बनने से बचाओ.
हे रिलायंस, मेरे दफ्तर के बाबुओं के लिये भी व्यवस्था करो – जो सबेरे दफ्तर आते ही अपना बस्ता पटक चाय की दुकान पर चल देते हैं. अगर तुम्हारा चाय का कियोस्क दूरी पर हो तो सवेरे दस बजे इन कर्मठ कर्मचारियों को अपनी दुकान तक ले जाने के लिये एक बस भी खड़ी रखो हमारे दफ्तर के सामने. हो सके तो रेलवे फोन भी लगवा लो अपनी चाय की दुकान में – जिससे अगर फलाने बाबू से बात करनी हो तो हम उस फोन पर कर सकें. मेरे दफ़्तर के पास चाय की दुकान की झुग्गियों से निजात दिलाओ.
हे रिलायंसाधिपति, जैसे किसान मुक्त हो रहे हैं बिचौलियों से… वैसे हमें मुक्ति दो!!! नगर की सड़ान्ध भरी व्यवस्था से हमें मुक्ति दो!!!!
मैं जानता हूं कि यह आवाहन बहुतों के गले नहीं उतरेगा. इसे ले कर मेरे घर में ही दो गुट हो गये हैं. पर लचर म्युनिसिपल और स्थानीय प्रशासन व्यवस्था, सड़क और सार्वजनिक स्थानों का जबरन दोहन और व्यापक कार्य-अकुशलता का आपके पास और कोई समाधान है?

गहरा चिंतन, उत्तम चित्रण –चरमराई व्यवस्था से आक्रोशित स्वभाविक मनःस्थिती का. उपाय कितना सफल होगा, क्या पता मगर बदलाव से एक उम्मीद हमेशा ही रहती है भले ही कुछ भुगतान करना पड़े. सो तो अभी भी कर रहे हैं किसी न किसी रुप में. एक सहज साहसिक अभिव्यक्ति के लिये साधुवाद और यह तो आपने पहले ही अपने ज्ञान से भांप लिया था कि यह आव्हान बहुतों के गले नहीं उतरेगा. :)
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आपके मौलिक चिंतन की एक और शानदार प्रस्तुति..
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पंडित जी लिखे तो सही हो, लेकिन रुदन कुछ ज्यादा हो गया है, इसलिए घर वाले बमक गए।रिलायंस आए या कोई और एमएनसी, बदलाव तो होके रहेगा। उनकी समस्याएं या उनसे उपजी समस्याएं वो बाद का विषय है, लेकिन बदलाव तो अब होना ही है। ज्यादा दिनो तक रोक नही लग सकती।
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व्यवस्था के प्रति आक्रोश से उपजी यह पोस्ट एक आशा लेकर है कि शायद प्राईवेटाइजेशन से सब कुछ व्यवस्थित हो जाएगा!!पर क्या हमारी मानसिकता व्यवस्थित हो पाएगी जिसमे सरकारी या आम सड़क, आम व्यवस्था के प्रति एक लापरवाही है। सरकारी मतलब घर का, आम जन का मतलब घर का, यह सोच तो प्राईवेटाइजेशन से नही बदलेगा ना!
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मुक्ति की यह चाह भारी पड़ेगी, आपको नहीं हमारी पीढ़ी को…
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