मुझे २३९७, महाबोधि एक्स्प्रेस से एक दिन के लिये दिल्ली जाना पड़ रहा है1. चलती ट्रेन में कागज पर कलम या पेन्सिल से लिखना कठिन काम है. पर जब आपके पास कम्प्यूटर की सुविधा और सैलून का एकान्त हो – तब लेखन सम्भव है. साथ में आपके पास ऑफलाइन लिखने के लिये विण्डोज लाइवराइटर हो तो इण्टरनेट की अनुपलब्धता भी नहीं खलती. कुल मिला कर एक नये प्रयोग का मसाला है आज मेरे पास. शायद भविष्य में कह सकूं – चलती ट्रेन में कम्प्यूटर पर लिखी और सम्पादित की (कम से कम हिन्दी की) ब्लॉग पोस्ट मेरे नाम है!
आज का दिन व्यस्त सा रहा है. दिमाग में नयी पोस्ट के विचार ही नहीं हैं. पर ट्रेन यात्रा अपने आप में एक विषय है. स्टेशन मैनेजर साहब ने ट्रेन (सैलून) में बिठा कर ट्रेन रवाना कर मेरे प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है. ट्रेन इलाहाबाद से रात आठ बज कर दस मिनट पर चली है. अब कल सवेरे नयी दिल्ली पंहुचने तक मेरे पास समय है लिखने और सोने का. बीच में अगर सैलून अटेण्डेण्ट की श्रद्धा हुयी तो कुछ भोजन मिल जायेगा. अन्यथा घर से चर कर चला हूं; और कुछ न भी मिला तो कोई कष्ट नहीं होगा.
अलीगढ़ के छात्र अपने अपने घर जा चुके. गाड़ियां कमोबेश ठीक ठीक चल रही हैं. मेरी यह महाबोधि एक्स्प्रेस भी समय पर चल रही है. रेलवे वाले के लिये यह सांस लेने का समय है.
रेलवे वाले के लिये ट्रेन दूसरे घर समान होता है. जब मैने रेलवे ज्वाइन की थी तो मुझे कोई मकान या कमरा नहीं मिला था. रतलाम स्टेशन पर एक मीटर गेज का पुराना सैलून रखा था जो चलने के अनुपयुक्त था. मुझे उस कैरिज में लगभग २०-२५ दिन रहना पड़ा था. तभी से आदत है रेल के डिब्बे में रुकने-चलने की. हां, अधिक दिन होने पर कुछ हाइजीन की दिक्कत महसूस होती है. एक बार तो बरसात के मौसम में त्वचा-रोग भी हो गया था ४-५ दिन एक साथ सैलून में व्यतीत करने पर.
पर तब भी काम चल जाता है. मेरे एक मित्र को तो बम्बई में लगभग साल भर के लिये मकान नहीं मिला था और वह बम्बई सेण्ट्रल स्टेशन पर एक चार पहिये के पुराने सैलून में रहे थे. बाद में मकान मिलने पर उन्हें अटपटा लग रहा था – डिब्बे में रहने के आदी जो हो गये थे!
मेरे पास कहने को विशेष नहीं है. मैं अपने मोबाइल के माध्यम से अपने इस चलते फ़िरते कमरे की कुछ तस्वीरें आप को दिखाता हूं (वह भी इसलिये कि यह पुराने सैलून की अपेक्षा बहुत बेहतर अवस्था में है, तथा इससे रेलवे की छवि बदरंग नहीं नजर आती).
१. मेरे मोबाइल दफ़्तर की मेज जिसपर लैपटॉप चल रहा है:
२. मेरा बेडरूम:
ऊपर सब खाली-खाली लग रहा है. असल में मैं अकेले यात्रा कर रहा हूं. जब मैं ही फोटो ले रहा हूं तो कोई अन्य दिखेगा कैसे? खैर, मैने अपनी फोटो लेने का तरीका भी ढ़ूंढ़ लिया.
३. यह रही बाथ रूम के शीशे में खींची अपनी फोटो! :
पचास वर्ष से अधिक की अवस्था में यह सब खुराफात करते बड़ा अच्छा लग रहा है. कम्प्यूटर और मोबाइल के युग में न होते तो यह सम्भव न था.
बस परसों सवेरे तक यह मेरा घर है. सौ किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से चलता फिरता घर!
1. यह पोस्ट सितम्बर १९’२००७ की रात्रि में चलती ट्रेन में लिखी गयी. यह आज वापस इलाहाबाद आने पर पब्लिश की जा रही है.
बहुत महत्वपूर्ण – शिवकुमार मिश्र ने आपका परिचय श्री नीरज गोस्वामी से कराया था, जिनकी कविताओं की उपस्थिति सहित्यकुंज और अनुभूति पर है. आज नीरज जी को शिवकुमार मिश्र ब्लॉग जगत में लाने पर सफल रहे हैं. आप कृपया नीरज जी का ब्लॉग जरूर देखें और टिप्पणी जरूर करें. यह इस पोस्ट पर टिप्पणी करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है!

अहोभाग्य, जो हमको भारतीय रेल के सैलून के दूर-दर्शन हो गये। हमारा एक सहपाठी तो था सैलून वाला, पर उसने कदाचित रेलवे की नौकरी ही छोड़ दी 1-2 वर्ष पहले ही! नव-नियुक्तों की ट्रेनिंग के लिये रेलवे कुछ मकान भी बनवाये सैलून जैसे। उसमें सैलून में रहने का प्रशिक्षण भी दिया जाय तो असुविधा कम हो शायद। ;)
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ज्ञानजी,तत्कालीन रेल मन्त्री श्री माधवराव सिन्धिया के साथ, उनके सैलून में, शामगढ से रतलाम तक की यात्रा करने का अवसर मिला था । अवध एक्सप्रेस को कोटा से रतलाम तक बढाया गया था – उस दिन । लेकिन आपका सैलून तो उनके सैलून को भी मात करता नजर आ रहा है । शायद समय के हिसाब से आज, आपके पद वालों का सैलून, उस समय के रेल मन्त्री के सैलून जैसा कर दिया गया होगा । ऐसे में आज, रेल मन्त्री का सैलून कैसा होगा, कल्पना की जा सकती है ।आप चलती ट्रेन से पोस्ट कर देते तो मजा आ जाता । लेकिन अभी भी सम्भावनाएं तो बनी हुई हैं ही और आपको भी सैलून की यात्राएं करनी ही पडेंगी । सो, शुभ-कामनाएं और अग्रिम बधाइयां ।श्रीश की अधूरी सूचना को पूरी कर रहा हूं । रविजी ने चलती ट्रेन से चित्र पोस्ट किया था, हिन्दी पोस्ट नहीं कर पाए थे ।
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क्या सलून है । पता नहीं क्यों चलती ट्रेन में हमें लिखने के अनगिनत आयडियाज़ आते हैं । विविध भारती में आने के पहले ये सब दिखाया होता तो हम एम एस सी फिजिक्स करते और रेलवे में ही आते । कम से कम सलून में लिखने को मिलता । सबसे अच्छा लगा आपको खुद की तस्वीर खींचते देखकर । हर इंसान के भीतर एक शरारती जीव छिपा होता है । तस्वीरें खिंचवाने का शौक़ भला किसे नहीं होगा । आपने देखा तस्वीर खींचते या खिंचाते वक्त हम कितने असहज हो जाते हैं । थोड़े तन जाते हैं । वगैरह वगैरह । तस्वीर खिंचाई पर एक पोस्ट हो जाए ।
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वाह ज्ञान जी,चलती में तो नसीब नहीं, स्टेशन पर खड़ी सेलून ही दिखलवा दिजियेगा. क्या आजकल भी यह पहले जैसा ही फूल साईज डिब्बा रहता है कि साईज कुछ कम कर दिया गया है?लग तो एकदम ५ स्टार रहा है और आपकी तस्वीर भी धांसू आई है. :)
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आप की यह पोस्ट सैलून से ताजी-ताजी निकली और चमकदार है। एक दम झकास। और पचास के तो नहीं दिख रहे। अगर हों तो स्वर्ण जयंती का कुछ सोचा जाए।
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बंधुवर पचास से अधिक की उमर मैं खुराफात वाली बात बहुत पसंद आयी. इसका आनंद वो ही समझ सकता है जिसने पचास वसंत देख डाले हों और किसी भी ढंग की खुराफात से अभी तक वंचित रहा हो. आप की कृपा से बन्दा भी खुराफाती हो चुका है ! ब्लॉग लेखन खुराफात करने की और बढाया गया पहला कदम है ये अब समझ मैं आ रहा है !ब्लॉगर समुदाय का प्रेम देख के हतप्रभ हूँ ! पहले ही दिन इतने लोगों का आशीर्वाद मिला है की सोचने को मजबूर हो गया हूँ की देश मैं कितने लोगों के पास एक अजनबी के भी कितना समय है ! वाह ! इसके पीछे आप द्वारा दिया गया दिशा निर्देश भी तो है ! मेरे ब्लॉग पर आने वाले बिना शक आप के घनघोर प्रेमी हैं ! नीरज
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“शायद भविष्य में कह सकूं – चलती ट्रेन में कम्प्यूटर पर लिखी और सम्पादित की (कम से कम हिन्दी की) ब्लॉग पोस्ट मेरे नाम है!”सर जी चलती रेलगाड़ी से पहली पोस्ट करने का रिकॉर्ड तो रविरतलामी जी के नाम है। :)
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वाह! वाह!बहुत सही मेन्टेन्ड सैलून है भाई। कभी सभी चिट्ठाकारों को लेकर सैलून मे यात्रा कराइए ना। हम सब भी इस जीवन मे सैलून का मजा लेकर कृतार्थ हो लेंगे।हमने कभी सैलून मे यात्रा तो नही की, अलबत्ता एक बार अपने एक रिश्तेदार (अब रेलवे से रिटायर हो चुके है) को मिलने उनके सैलून मे अवश्य गए थे, अच्छा खासा घर समान होता है। एक बार सैलून मे यात्रा करने की इच्छा अवश्य है।
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ज्ञानदत्त जीहमारे घरवाले कहते थे कि रेलवे की नौकरी बहुत अच्छी होती है, अगर यह फोटु दिखा देते तो उनको इतना सर खपाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. रेलवे ने अपनी कोलिनियल ठाठ कायम रखी है. एक बार रेल मंत्री से मुलाक़ात के चक्कर में सैलून के दर्शन हुए थे. आप उसमें लिखकर आए हैं, अब आप जल्द से सभी रेलों में वाईफाई लगवाने की योजना रेल मंत्रालय को प्रस्तुत करिए.
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यह सुखद अनूभूति है कि अभी भी आपके पैर जमीन पर है। ऐसे ही धरतीपकड बने रहे।चित्र मे आप-आप काफी थके दिख रहे है। थोडा आराम भी करिये रेल काका। प्रियंकर जी आपके चुटीले व्यंग्य ने खूब लोट-पोट किया। यदि रेल्वे चाहे तो डिस्पोसेबल लोटा कम कीमत पर उपलब्ध करवा सकती है। सभी को बडी सुविधा हो जायेगी।
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