अनिल रघुराज जी का कथन है कि गरीबी खतम होने से ही भ्रष्टाचार खतम होगा. अमीर देशों में भ्रष्टाचार कम है. पर गरीबी खतम करने के मिशन से अमीर देश अमीर बने हैं क्या? मुझे नहीं लगता कि गरीबी कम करना किसी राष्ट्र का सार्थक मिशन हो सकता है. वह तो श्रीमती गांधी का देश को दिया गया नारा मात्र हो सकता है – जो कोई प्रभाव न डाल पाया. जैसा कि बड़े व्यंग से कहा जाता है – नारे से गरीबी तो खतम नहीं हुई, गरीब जरूर खतम हो गया.
गरीबी खतम करने के मिशन में एक नेगेटिविज्म है. उसके उपाय में सरकारी योजनाओं छाप काम होते हैं. पर यदि आपका मिशन समृद्धि और विकास हो – त्वरित आर्थिक विकास तो आप फास्ट ट्रैक पर चलते हैं. देश की गरीबी पर रुदन करने में समय नहीं जाया करते. उन सभी उद्यमों और उपक्रमों को इज्जत बख्शते हैं जिनसे विकास दर बढ़ती है. फिर कुर्सी पर बैठे बुद्धिजीवी की तरह आप रिलायन्स वाले को सतत गली नहीं देते. फिर नक्सलवाद को आदर्श बता कर आप अपने ब्लॉग पर हिट काउण्ट नहीं गिनते. आप उन सभी प्रयत्नों को सार्थक मानने लगते हैं जिससे उत्पादन और आर्थिक विकास होता हो. तब आप अपने आप को “कलम की मजदूरी कर रहा हू” छाप आदर्श वाक्यों से गौरवान्वित नहीं करते. आप पूरी जागृत उद्यमशीलता से अपनी आर्थिक समृद्धि के स्वप्न देखते और साकार करते हैं. उसमें वृद्धि आपको भौतिक और बौद्धिक खुराक देती है. और यह कोई मध्यवर्ग – उच्च वर्ग की बपौती नहीं है. मैने गरीब व्यक्ति को भी जायज तरीके से समृद्धि पाते देखा है. और उत्तरोत्तर ये उदाहरण और दिखने को मिलेंगे.
मैं आपसे गरीबी और गरीब को हेय दृष्टि से देखने को कदापि नहीं कह रहा. मैं केवल उसके महिममण्डन से बचने को कह रहा हूं. गरीबी में वर्च्यू है और समृद्धि काइयां है – यह सोच उतनी ही विकृत है जितनी यह कि गरीब गन्दे, बेइमान और बददिमाग होते हैं. कई अमीरों में जब पैसा सिर चढ़ जाता है तब वे गरीब को पददलित करने और हेय मानने के घोर कर्म को सामान्य मानने लगते हैं. मैं उस निकृष्ट सोच की वकालत नहीं कर रहा. पर यह कहना चाहता हूं कि जब तक हमारी सोच गरीबी सेंट्रिक रहेगी तब तक उसका उन्मूलन नहीं हो सकता. जब यह सोच गरीबी हटाने से समृद्धि लाने में परिवर्तित होगी तब सबसिडी की बजाय माइक्रोफिनांस पर ध्यान जायेगा. हर व्यक्ति उत्पादन प्रक्रिया से सार्थकता के साथ जुड़ेगा. ऑंत्रेपिन्योर बनेगा. ….. जो कुछ होगा उसपर अलग से लेख/लेखमाला बन सकती है.
अत: गरीबी खतम होनी चाहिये – जरूर. उसके खतम होने में भ्रष्टाचार उन्मूलन भी निहित है. पर वह गरीबी खतम करने को मिशन बनाने से नहीं होगी. वह पैसे और समृद्धि के प्रति सोच बदलने से होगी.
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टाटा डकैत तो नहीं है

आदरणीय ग्यान जी, किसी हिंदी के ग़ज़लकार ने ठीक हीं कहा है कि-” राजपथ पर जब कभी जायघोष होता है, आदमी फूटपाथ का वेहोश होता है !”ग़रीबी नि:संदेह अभिशाप है हमारे समाज के लिए. मेरी ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ इस संदर्भ में प्रस्तुत है-” फूल के इस अंजुमन में ख़ार सी है ज़िंदगी, और ग़रीबों के लिए उपहार सी है ज़िंदगी !एक समंदर की तरह ठिठके हुए ख़ामोश ये-आदरणीय ग्यान जी, किसी हिंदी के ग़ज़लकार ने ठीक हीं कहा है कि-” राजपथ पर जब कभी जायघोष होता है, आदमी फूटपाथ का वेहोश होता है !”ग़रीबी नि:संदेह अभिशाप है हमारे समाज के लिए. मेरी ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ इस संदर्भ में प्रस्तुत है-” फूल के इस अंजुमन में ख़ार सी है ज़िंदगी, और ग़रीबों के लिए उपहार सी है ज़िंदगी !एक समंदर की तरह ठिठके हुए ख़ामोश ये-आप कहते हैं नदी की धार सी है ज़िंदगी ?”सच बड़ा हीं कड़वा होता है, इस आलेख मे आपने जो भी कहा है वह सोलह आने सच है. आपने सच कहा है इसलिए धन्यवाद.
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गरीबी एक अभारतीय अवधारणा है. इसकी वर्तमान जड़े विदेशी और अमानवीय तरीके की विकास की सोच में छिपी है. एनजीओ, सरकारी कार्यक्रम, गरीबी उन्मूलन आदि उसी से निकले हैं. हमें भारतीय तरीकों से सोचना होगा.
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तब आप अपने आप को “कलम की मजदूरी कर रहा हू” छाप आदर्श वाक्यों से गौरवान्वित नहीं करते.–सही है. अभी सोने जा रहा हूँ..हर आम भारतीय की तरह जब जागना जरुरी है/// समय बीत जाने पर कल सार्थक तथ्य रखूँगा जब उसकी कोई महत्ता नहीं होगी. :)
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ज्ञान जी, एकदम सही लिखा है। गरीबी और भ्रष्टाचार कैसे मिटे, इस पर एक राय बननी चाहिए। मैंने तो ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के आंकड़ों से यूं ही इनफरेंस निकाल लिया था। मेरा मतलब यह था कि व्यापक लोगों को इम्पावर कीजिए, भ्रष्टाचार मिटने लगेगा। अब यह इम्पावरमेंट कैसे होगा, आरटीई जैसे कानूनों से या जन आंदोलनों, इसे आजमा कर देखने की जरूरत है।
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पूरा तो नहीं पर काफी हद तक सहमति है.गरीबी हटाने के लिये क्या अमीर को गाली देना जरूरी है? क्या जो भी अमीर है वो भ्रष्ट ही है. क्या बिना भ्रष्ट हुए पैसा नहीं कमाया जा सकता?
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गरीबी बाकायदा एक कारोबार है। एनजीओ, लफ्फाजी, सेमिनार, बकड़म-टकरम, ये सब गरीबी पे चल रहे हैं।मनमोहन सिंह ने एकबार लेख में लिखा था-उनके मित्र ने एक किताब गरीबी पे लिखी और उनकी गरीबी दूर हो गयी। दिल्ली में कम से कम पांच परिचित अपने ऐसे हैं, जो गरीबी पर एनजीओ बनाकर काम करते हैं और इत्ते पैसे रखते हैं जेब में मंझोले लेवल के अमीरों को कर्ज दे सकें। उद्यमिता का विकास महत्वपूर्ण है। पूरी दुनिया की सारी संपदा को अगर बराबर-बराबर बांट दिया जाये, तो भी कुछेक साल में फिर कुछ लोग भौत गरीब हो जायेंगे और कुछ लोग फिर से अमीर हो जायेंगे। पर देखने की बात यह है कि अमीरी के प्रति भाव बदल रहा है। अमीरी अब उतनी बुरी नहीं मानी जाती है। एक दौर में था कि खराब आदमी विलेन टाइप आदमी फिल्मों में हमेशा अमीर होता था, बोले तो अमीर आदमी विलेन ही होता था, पर नब्बे की दशक की फिल्में देखें, अमीर आदमी हमेशा बुरा नहीं होता। फिल्में कहीं न कहीं समाज का आईना जरुर होती हैं। नारायण मूर्ति, प्रणव राय जैसे लोगों ने अमीर बनकर यह दिखाया है कि सारी अमीरी हमेशा दूसरों का हक मार कर नहीं आती। नारायण मूर्ति के ड्राइवर का घर नारायण मूर्ति के घर से बेहतर हो सकता है, और इसे देखकर नारायण मूर्ति खुश हो सकते हैं। इस देश को बहुत सारे नारायण मूर्ति और प्रणव राय चाहिए।
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