सीखना प्रक्रिया नहीं है. सीखना घटना भी नहीं है. सीखना जीवंत आदत है. सीखना यक्ष प्रश्नों के उत्तरों की तलाश है. वह उत्तर कोई प्रकाण्ड विद्वान बनने की चाह से प्रेरित हो नहीं तलाशे जा रहे. वह बनने की न तो क्षमता है और न ईश्वर ने इस जन्म में उस युधिष्ठिरीय प्रतिभा का प्राकट्य किया है मुझमें (कम से कम अब तक तो नहीं).
जीवन के यक्ष प्रश्न वे प्रश्न हैं जो अत्यंत जटिल हैं. लेकिन मन में एक वैचारिक अंतर्धारा है कि इन सभी प्रश्नों के उत्तर अत्यंत सरल हैं. वे जटिल इसलिये लग सकते हैं कि उनका प्राकट्य अभी होना है. जब हो जायेगा तो ऐसे लगेगा कि अरे, यह इतना सरल था और हम कितना फड़फड़ाते रहे उसकी खोज में!
(यह कुत्ता भी कौतूहल रखता है!)
इक्यावन+ की उम्र में भी मन में एक शिशु, एक किशोर; जागृत प्रौढ़ की नींद न आने की समस्या को धता बता कर लगा रहता है समस्याओं के उत्तर खोजने में.
सीखना तकनीक का भी हो सकता है. वह नये उपकरणों के प्रयोग का भी हो सकता है. सीखना पहले के सड़ी हुई सीख को अन-लर्न करने का भी हो सकता है.
सीखना वह है – जो प्रमाण है कि मैं जीवित हूं. मेरा एक एक कण जीवित है. और उसके जीवित रहने को कोई नकार नहीं सकता. तब तक – जब तक सीखना चलता रहेगा.
मुझे प्रसन्नता है कि सीखना कम नहीं हो रहा है. वह बढ़ रहा है!

आपने बहुत ही सही कहा है, सीखने की कोई उम्र नहीं होती है.. कल यही बात मैं अपने पापाजी को समझा रहा था जो ये मानते हैं कि कम्प्यूटर उनके बस का नहीं है.. और मैं उन्हें समझा रहा था की मेरा कुछ ठीक नहीं है, क्या पता कल ही आफ़िस में ये फ़रमान जारी हो जाये की तुम्हें भारत से बाहर जाना है, और तब ये अंतर्जाल ही हमारे संपर्क का सबसे बड़ा जरिया होगा.. और दूसरी बात ये की मेरे पापाजी काफ़ी अच्छा लिखते भी हैं पर सिर्फ अपने लिये, और उसे भी कहीं छपने-छपाने का समय नहीं होता है उनके पास.. सो रिटायर होने के बाद वो भी ब्लौग की दुनिया में रम जायें.. अब आप ही कुछ कहिये जिसे मैं अपने पापाजी को पढा कर अपनी बात से सहमत करा सकूं… :)
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सीखने के साथ-साथ उसका नियमित प्रयोग भी जरूरी है। यदि इस प्रयोग का कुछ हिस्सा जन-कल्याण मे लग सके तो फिर यह सोने मे सुहागा वाली बात होगी।
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सही कहा आपने। उत्सुकता और जिज्ञासा ही है जो हममें उम्र बढ़ने के बावजूद जिजीविषा को बनाये रखती है। हमारे भीतर का बालक तब तक जीवंत रहता है जब तक हम कुछ सीखते रहते हैं। वैसे, इन दिनों आप क्या-क्या सीखने में जुटे हुए हैं?मैंने पहले ड्राइविंग नहीं सीखी थी, अब सीख रहा हूं, और इन दिनों बहुत मजा आ रहा है। ब्लॉगिंग से भी ज्यादा। इसलिए कुछ अरसे से ब्लॉगिंग से समय चुराकर ड्राइविंग में लगा रहा हूं।
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सिखने सिखाने की कोई उम्र होती है? यह ललक अच्छी है. पुरानिक साहब को नियमीत टिप्पीये रहें वरना ऐसी उलटी सलाहें ही देते रहेंगे. :)
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ये आलोक जी हैं ना अगड़म बग़ड़म वाले ना जाने कैसे कैसे भरमाते रहते हैं.सही बात है मास्साब होते ही इसलिये हैं.खुद तो ना जाने कितनी जगह स्मार्ट निवेश कर रहे हैं और लोगों को कह रहे हैं कि लगे रहो मुन्ना भाई ..वैसे किसी एक चीज को यदि पर्फैक्ट कर लें तो ही आप कुछ पा सकते हैं.लेकिन मन है कि एक जगह पर टिकता कहां है.
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मेरी अनसिखी समझ में आदमी सीख तभी सकता है जब उसका अहम कंट्रोल में हो. शीश उतारे भूं धरे, तापर राखे पाँव. कई मामलों में जब कोई तथाकथित छोटा मुझे कुछ सिखाने की कोशिश करता है तो बड़ा ग़ुस्सा आता है. मन कहता है की सीखने सिखाने के लिए मेरी अपनी इन्द्रियां काफी हैं. पर कोई नया मोबाइल सैट या अन्य गैजेत मिल जाए फ़िर देखिये- मेसेज कैसे लिखना है से लेकर रिंग टोन तक- हर चीज़ बच्चों से सीखनी पड़ती है. माँ के पेट से ही दारी उगा के आते हैं ये सब.अंत तक सीखते ही रहना पड़ेगा. आख़री चीज़ शायद यह भी सीखनी पडे की कफ़न के लिए लाईन कहाँ लगानी है.
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सत्य वचन महाराज !हम जब ५१ के होंगे तो पता नहीं क्या हाल होगा, नया सीखने की ख्वाहिश अभी तक तो है आगे का पता नहीं | कभी कभी तो लगता है की एक के बाद एक नये नये क्षेत्रों में पी. एच. डी. करते रहें | घरवालों को अभी तक अपने नेक विचार नहीं बतायें हैं. माताजी कहते हैं औरों के लड़के कब से नौकरी कर रहे हैं और पता नहीं तुम्हारी पढ़ाई कब ख़त्म होगी, आस-पड़ोस वालों को शक है की बुरी संगति के चलते लड़का घर से दूर रहता है :-)
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ये बहकाने वाली पोस्ट ना लिखें किये भी कर लो, वो भी कर लो। ये सीखो, वो सीखो। ज्ञान के अपने संकट होते हैं, अरसा पहले मैंने ज्योतिष सीखा, मुहल्ले,बिल्डिंग के लोग मुहुर्त वगैरह निकलवाने आने लगे। फिर हुआ यूं कि कुछ यूं कहने लगे क लड़की की शादी में पंडित भी आप बन जाओ, कम पैसे पे मान जाना। और फिर बाद में यह हुआ कि कुछ लोग कहने लगे कि यार पंडितजी को बुलाया था, नहीं आये, श्राद्ध की तिथि तुमसे बंचवायी थी, सो भोजन भी तुम्ही खा जाओ। बाद में मैंने यह सब एकदम बंद कर दिया। लोग नाराज हो गये कि देखो कि कितना बनते है। आदमी को काम भऱ का सीख लेना चाहिए, बाकी टाइम में कुछ और करना चाहिए, जैसे मेरे ब्लाग को पढ़ना चाहिए, उसके बाद टाइम बचे, तो आप के ब्लाग पर जाना चाहिए। सच यह है कि किसी भी नये काम में घुसो, तो वो इत्ता टाइम मांगता है कि फिर सिर धुनने की इच्छा होती है कि काहे को नये पचड़े में पड़ें। एक ही विषय के इत्ते आयाम हैं कि उन्हे ही समझना मुश्किल होता है। कभी कभी लगता है कि कायदे से एक जन्म काफी नहीं है। सात-आठ जन्म मिलें, हर जन्म एक खास हुनर पर लगाया जाये। मेरा सिर्फ इतना मानना है कि बहुत चीजें सीखने के चक्कर में बंदा कुछ नहीं सीखता। किन्ही एक या दो या अधिक से अधिक तीन चीजों को पकड़ लो, और उन्ही मे लग लो, तो रिजल्ट आते हैं।
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यही सबसे आवश्यक है कि एक ललक जिंदा रहे सीख लेने की.आपमें है, इस बात की ग्रेट प्रसन्नता है.हम इसके घोर समर्थक हैं और इसलिये फील्ड भी बदलते चलते हैं, हमेशा जवानी का अहसास बरकरार रहता है. जिस दिन भी आपको याने किसी को भी, लगे कि आप को परम ज्ञान हो गया है, और अब कुछ सीखने को बचा नहीं..उस दिन मित्रों को खबर जरुर कर दिजियेगा..सच मानिये..तैहरवें दिन दावत जो खाने मिलेगी. :)
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क्या बात है! सीखने की ये बाल-सुलभ ललक सराहनीय है। इसके बिना तो जिंदगी ठस हो जाती है। वैसे बड़ा मुश्किल होता है इस ललक को आखिरी पल तक बनाए रखना।
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