देखिये, हमें पूरा यकीन है कि हमें हिन्दी में कोई जगह अपने लिये कार्व-आउट (carve-out) नहीं करनी है। बतौर ब्लॉगर या चिठेरा ही रहना है – चिठ्ठाकार के रूप में ब्लॉगरी की स्नातकी भी नहीं करनी है। इसलिये अण्ट को शण्ट के साथ जोड़ कर पोस्ट बनाने में हमारे सामने कोई वर्जना नहीं है।
सो अब जुड़ेंगे भर्तृहरी समृद्धि-प्रबन्धन के साथ। जरा अटेंशनियायें।
भर्तृहरि को सन्यासी मिला। (उज्जैन में दो दशक भर आते जाते हमें ही सैंकड़ों सन्यासी मिले थे तो भतृहरी को तो मिला ही होगा!)
उज्जैन का स्मरण होते ही कृष्ण, सान्दीपनि, सुदामा, सान्दीपनि आश्रम में खड़े नन्दी वाला शिवाला, भर्तृहरि की गुफा, भगवान कालभैरव पर तांत्रिकों का अड्डा, मंगलनाथ, सिद्धपीठ, पिंगलेश्वर, पंचक्रोशी यात्रा, दत्त का अखाड़ा, सिन्हस्थ और महाकाल का मन्दिर आदि सबकी याद हो आती है। — सब का प्रचण्ड विरह है मुझमें। सबका नाम ले ले रहा हूं – अन्यथा कथा आगे बढ़ा ही नहीं पाऊंगा।
हां, वह सन्यासी महायोगी था। राजा भर्तृहरि को एक फल दिया उसने अकेले में। फल के बारे में बता दिया कि राजा सुपात्र हैं, अच्छे प्रजापालक हैं, वे उसका सेवन करें। वह फल अभिमंत्रित है उस योगी की साधना से। उसके सेवन से राजा चिरयुवा रहेंगे, दीर्घायु होंगे।
भर्तृहरि ने फल ले लिया पर उनकी आसक्ति अपनी छोटी रानी में थी। वह फल उन इंस्ट्रक्शंस के साथ उन्होने छोटी रानी को दे दिया। छोटी रानी को एक युवक प्रिय था। फल युवक के हाथ आ गया। युवक को एक वैश्या प्रिय थी। फल वहां पंहुचा। वैश्या को लगा कि वह तो पतिता है; फल के लिये सुपात्र तो राजा भर्तृहरी हैं जो दीर्घायु हों तो सर्वकाल्याण हो। उस वैश्या ने फल वेश बदल कर राजा को दिया।
भर्तृहरि फल देख आश्चर्य में पड़ गये। फल की ट्रेवल-चेन उनके गुप्तचरों ने स्पष्ट की। वह सुन कर राजा को वैराज्ञ हो गया। राजपाट अपने छोटे भाई विक्रम को दे दिया और स्वयम नाथ सम्प्रदाय के गुरु गोरक्षनाथ का शिष्यत्व ले लिया।
यह तो कथा हुई। अब आया जाय समृद्धि पर। भर्तृहरि के फल की तरह अर्थ (धन) भी अभिमंत्रित फल है। उसे लोग सम्भाल नहीं पाते। अपने मोह-लोभ-कुटैव-अक्षमता के कारण आगे सरकाते रहते हैं। मजे की बात है वे जानते नहीं कि सरका रहे हैं! बोनस मिलते ही बड़ा टीवी खरीदना – यह सरकाना ही है।
अंतत: वह जाता सुपात्र के पास ही है। जैसे अवंतिका के राज्य के सुपात्र विक्रमादित्य ही थे – जिन्हे वह मिला।1 आज आप विश्व की सारी सम्पदा बराबर बांट दें – कुछ समय बाद वह पात्रता के आधार पर फिर उसी प्रकार से हो जायेगी। धन वहीं जाता है जहां उसके सुपात्र हों। जहां वे उसमें वृद्धि करें। धन का ईश्वरीय कोष असीमित है। उस कोष को धरती पर जो बढ़ा सके वह सुपात्र है। धन गरीबों को चूसने से नहीं बढ़ता। धन समग्र रूप से बढ़ाने से बढ़ता है।
1. यह पता नहीं चलता कि उस फल का भर्तृहरि ने अंतत: क्या किया। राज्य जरूर विक्रमादित्य को सौप दिया था। यह सब आपको मिथकीय लगता होगा। पर क्षिप्रा के पुल पर से जब भी गुजरती थी मेरी ट्रेन; भर्तृहरि, विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त, कालिदास और वाराहमिहिर मुझे उसकी क्षीण जलधारा में झिलमिलाते लगते थे। अब वे दिन नहीं रहे – यह कसकता है।
मेरी पत्नी कह रही हैं – “यह पोस्ट शुरू तो लाफ्टर शो के अन्दाज में हुई पर बाद में आस्था चैनल हो गयी। इसे लोग कतई पढ़ने वाले नहीं!”
कल की पोस्टें जो शायद आपने न देखी हों –

बहुत अच्छे..
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भर्तहरि की कथा के उक्त प्रसंग का इतना व्यापक सामान्यीकरण करके जो निष्कर्ष आपने निकाला है, उससे सहमत नहीं हो पा रहा हूं:”धन वहीं जाता है जहां उसके सुपात्र हों। जहां वे उसमें वृद्धि करें। धन का ईश्वरीय कोष असीमित है। उस कोष को धरती पर जो बढ़ा सके वह सुपात्र है। धन गरीबों को चूसने से नहीं बढ़ता। धन समग्र रूप से बढ़ाने से बढ़ता है।”क्या धन के इस प्रवाह की गतिशीलता स्वाभाविक होती है? आधुनिक अर्थशास्त्र भी “समृद्धि के रिसाव” की बात करता है और यह कहा जाता है कि यह रिसाव अपने आप होता रहेगा, इसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं। जबकि धन का ऊर्ध्वमुखी प्रवाह भ्रष्टाचार, नियमों के अनैतिक उल्लंघन और लूट के सुदृढ़ प्रबंधन के कारण गतिशील होता है। इस समय एक तरफ भारत की आधी से अधिक आबादी की रोजाना की आमदनी बीस रुपये से अधिक नहीं है और दूसरी तरफ देश में गिनती के अरबपतियों-खरबपतियों की आय में रोज करोड़ों का इजाफा हो रहा है। यह गैर-बराबरी, आय का असमान वितरण क्या इसलिए है कि देश के तीन चौथाई नागरिक सुपात्र नहीं हैं?सुपात्रता की जो परिभाषा और सोच आप सामने रख रहे हैं, उसने समूची दुनिया में अन्याय और लूट को बहुत बढ़ावा दिया है। उपनिवेशवाद और नव-उपनिवेशवाद के मूल में यही सोच है।
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वाह! वाह!वाह!लाफ्टर शो वाली बात से में सहमत नहीं हूँ. बहुत ही शिक्षाप्रद पोस्ट है. मैंने बहुत कुछ सिखा.
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धन वहीं जाता है जहां उसके सुपात्र हों। जहां वे उसमें वृद्धि करें…इस सूत्र की अलग से व्याख्या की ज़रूरत है। वैसे कहानी बड़ी मस्त और रोचक है।
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इस कहानी से हमें ये शिक्षाएं मिलती हैं-1-कभी भी, कभी भी फल किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहिए, जो मिले खुद हीं चांप लेना चाहिए। 2-फल-वल पारिवारिक जीवन का नाश कर देते हैं। पश्चिम के जो डाक्टर यह कहावत बताते हैं-एन एपल ए डे कीप्स डाक्टर अवे, यह फंडा फेल जाता है। एन एपल ए डे, कीप्स हजबैंड अवे लाइक भरथरी।
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पोस्ट के कन्टेन्ट पर अब्स्टेन किया जाता है.. यह टिप्पणी सिर्फ़ नमस्कार के लिए..
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इस कथा के पहले विक्रमादित्य रानी पिंगला को सुधारने में असफल रहे थे और भर्तृहरि ने उन्हें पिंगला के कपने पर राज्य निकाला दे रखा था। पिंगला की सच्चाई उजागर होने के बाद राज्य बिकरमा भइया को मिला और सारंगी भरथरी को….अच्छी कहानी की सार्थक प्रस्तुति…है यह
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यह पोस्ट धन भी सुपात्र को मिल गया।
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यह पोस्ट शुरू तो लाफ्टर शो के अन्दाज में हुई पर बाद में आस्था चैनल हो गयी। –भाभी जी इतनी बात तो सच कह रही हैं. आगे का तो चिट्ठाकार तय कर ही देंगे. हम तो पूरी कथा बांचने में मजा आया और अब सोच भी रहा हूँ. :)
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आप कुशल चिठेरे बन चुके हैं इसमे& कोई दो राय नहीं है.
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