प्रसन्न खानाबदोशों का एक झुण्ड


बीस पुरुष-स्त्रियां-बच्चे। साथ में 5-6 गठरियां। कुछ एल्यूमीनियम के बर्तन और बांस की टोकरी। बस इतना भर। जितने वयस्क उतने बच्चे। करछना (इलाहाबाद के समीप) स्टेशन पर किसी गाड़ी की प्रतीक्षारत थे सभी। ऐसा लगता नहीं कि उनका कोई घर होगा कहीं पर। जो कुछ था, सब साथ था। बहुत वृद्ध साथ नहीं थे। सम्भवत उतनी उम्र तक जीते ही न हों।

सभी एक वृक्ष की छाया में इंतजार कर रहे थे। स्त्रियां देखने में सुन्दर थीं। पुरुष भी अपनी सभ्यता के हिसाब से फैशन किये हुये थे। कुछ चान्दी या गिलट के आभूषण भी पहने थे। किसी के चेहरे पर अभाव या अशक्तता का विषाद नहीं था। मेरे लिये यह ईर्ष्या और कौतूहल का विषय था। इतने कम और इतनी अनिश्चितता में कोई प्रसन्न कैसे रह सकता है? पर प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या!

Gyan(088)

करछना स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार करता खानाबदोशों का एक झुण्ड

(चित्र मैने अपनी ट्रेन की खिड़की से लिया था)

अपरिग्रह का सिद्धांत मुझे बहुत पहले से आकर्षित करता रहा है।

कभी कभी मैं कल्पना करता हूं कि किसी जन्म में मैं छोटा-मोटा ऋषि रहा होऊंगा और किसी पतन के कारण वर्तमान जीवन झेलना पड़ रहा है। इस जीवन में श्राप यह है कि जो दुष्कल्पना मैं औरों के लिये करता हूं वह किसी न किसी प्रकार से मेरे पर ही घटित होती है। दुर्वासा का जो भी अंश बाकी है – वह देर-सबेर स्वयम पर बीतता है। क्रोध सारे तप को खा जाता है।

पर जब अपरिग्रह का स्तर इन खानाबदोशों सा हो जाये; और भविष्य की चिंता ईश्वर (या जो भी कल्पना ये घुमंतू करते हों) के हाथ छोड़ दी जाये; दीर्घायु की न कामना हो न कोई योजना; तो क्या जीवन उनके सा प्रसन्न हो सकता है?

शायद नहीं। नहीं इसलिये कि चेतना का जो स्तर पूर्व जन्म के कर्मों ने दे रखा है – वह खानाबदोशों के स्तर पर शायद न उतरे। मैं चाह कर भी जो कुछ सीख लिया है या संस्कार में आ गया है – उसे विस्मृत नहीं कर सकता।

पर खानाबदोशों जैसी प्रसन्नता की चाह जायेगी नहीं। खानाबदोश जैसा बनना है। शायद एक खानाबदोश ऋषि।

अक्तूबर 20’2007


सवेरे के सवा चार बजे विन्ध्याचल स्टेशन पर मेरी गाड़ी के पास मेला की भीड़ का शोर सुनाई देता है। शक्तिपीठ के स्टेशन पर नवरात्रि पर्व की लौटती भीड़ के लोग हैं वे। गाड़ी दो मिनट के विराम के बाद चलने लगती है। मेरे कैरिज के बाहर आवाजें तेज होती हैं। एक स्वर तेज निकलता है – “भित्तर आवइ द हो!” (अन्दर आने दो भाई) गाड़ी तेज हो जाती है।

एक पूरा कोच मेरे व मेरे चन्द कर्मचारियों के पास है। सब सो रहे हैं। बाहर बहुत भीड़ है। मेरी नींद खुल गयी है। कोच की क्रिवाइसेज से अन्दर आती शीतल हवा की गलन (coolness) में मेरा अपरिग्रह गलता (melt होता) प्रतीत होता है। गाड़ी और तेज हो जाती है….

अक्तूबर 21’2007


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

12 thoughts on “प्रसन्न खानाबदोशों का एक झुण्ड

  1. खानाबदोश ऋषि की चाह ….मन भा गयी..याद आ गयी स्कूल की वो खिड़की जहां से बंजारो की बस्ती दिखती थी…कितने फ़्री पीरियड उन्हे देखने और समझने मे छू हो गये आजतक पता नही….ज्ञानदत्त जी ,पोस्ट बहुत अच्छी लगी……आभार

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  2. पोस्ट खत्म हुई लेकिन लगा जैसे कि विचार यात्रा प्रारंभ ही हुई है. कहाँ से आपने शुरु किया और किस मोड़ पर ले जाकर तेज रफ्तार गाड़ी मे गलते निकल गये-हम अवाक मुँह बाये खड़े हैं.आपकी लेखनी से प्रभावित मैं तो आपको आजतक भी इस जन्म में भी एक बड़ा ऋषि ही मानकर चल रहा था और उस पर मुहर लग गई- एक खानाबदोश ऋषि -मन से, दिल की गहराईयों से.बहुत सी सोच बड़ी तरलता से पेश हो गई. बधाई.

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  3. ये पोस्ट कुछ फिलॉसफिकल टाइप की हो गई है, अपन के बस में इस पर टिप्पणी करना नहीं, आलोक जी, फुरसतिया जी जैसे विचारक ही इस पर टिपिया सकते हैं। बस आए थे बता रहे हैं, हमारी हाजिरी लगा ली जाए।

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  4. जो हम नहीं है वो होना चाह्ते है. आकर्षक लगता है, दुसरों का जीवन.अमीर को गरीब की झोपड़ी पिकनीक का उपयुक्त स्थान लग सकती है, मगर इसका कष्ट एक झोपड़ी वाला ही जाने.खैर आपकी सोच सही है. आवश्यक्ताओं को सीमित कर सुखी हुआ जा सकता है.

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  5. हम तो आलोक जी से सहमत है. खानाबदोश होना दूर के ढोल जैसा है…आप आराम से हैं तो खानाबदोशी अच्छी लगती है…लेकिन अपने आराम को छोड़ कर खानाबदोश होना कठिन है.

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  6. दरारों से अन्दर आती शीतल हवा की गलन में मेरा अपरिग्रह गलता प्रतीत होता है। गाड़ी और तेज हो जाती है…लगा है जैसे किसी मार्मिक कथा का अंत हो। हां, खानबदोश ऋषि बनने की इच्छा तो अच्छी है लेकिन खानाबदोश की नहीं। अगर खानाबदोश खुश है तो जानवर तो सबसे ज्यादा खुश हैं!!

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  7. सपने देखते रहिये। दरअसल सिर्फ सपने ही तो अपने होते हैं।खानाबदोशी जेहन में तो है ही आपके। उतनी भर के मजे लीजिये। वैसे दूर के खानाबदोश सुहावने होते हैं। खुद फिजीकल किस्म की खानाबदोशी करनी पड़ जाये, तो कष्ट हो जाते हैं। जिस काम में कष्ट हो जाये, उन्हे करना मुश्किल हो जाता है। इस तरह के कामों में मैं बर्नार्ड शा का चेला हूं, उन्होने क्रांति के मामले में कहा था कि मैं चाहता तो हूं कि क्रांति हो जाये, पर एक टिपीकल कायर की तरह यह चाहता हूं कि यह आरामदेह तरीके से शांति से बिना खून खराबे के, बिना किसी परेशानी के हो जाये। ऐसा ही शांतिपूर्ण, सुसज्जित, कष्टहीन खानबदोशी का कोई कार्यक्रम अगर बने, तो हमें भी याद कीजिये।

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  8. खानाबदोश ऋषि की परिकल्पना को साकार करें ….और मुझे अपना प्रथम शिष्य बनाएँ। मैं भी खाना बदोश होने को तैयार हूँ..।आपकी रेल का हिंदी पर बहुत कर्ज है….हिंदी को लिखने बोलने लायक बनाने वाले पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी भी सालों साल रेलवे में काम करते थे।

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