यह शोध परक पोस्ट नहीं है। विशुद्ध मन और मोबाइल फोन के कैमरे के संयोग से बनी है। मैं शाम होने के बाद दफ्तर से निकला तो प्रांगण में ४० मीटर ऊंचे टावरों से हो रही बिजली की जगमगाहट ने मन मोह लिया। इलाहाबाद जैसे छोटे शहर में यह जगमगाहट! रेलवे “टच एण्ड फील” अवधारणा के अनुसार अपने कई स्टेशनों पर जो सुधार करने जा रही है; उसमें मुख्य अंग बिजली की जगमगाहट के माध्यम से होने जा रहा है।
मुझे याद है कि डढ़ साल पहले हम लोग छपरा स्टेशन के आधुनिकीकरण की योजना बना रहे थे। उस समय जगमगाहट करने के लिये स्टेशन परिसर में ये टावर लगाने जा रहे थे। मुझे लगता था कि इससे बिजली का बिल बहुत बढ़ जायेगा। पर आकलन से पता चला कि जितना बिजली खपत उस समय थी, उससे बहुत अंतर नहीं आने वाला था; पर जगमगाहट से जो प्रभाव पड़ने वाला था, वह उस समय की दशा से कई गुणा बेहतर था। छपरा में
रेल कर्मी मजाक करते थे कि जहां शहर में बहुधा बिजली नहीं रहती, वहां स्टेशन इतना भव्य लगे तो अटपटा लगेगा। पर जब तक मैं बनारस की अपनी पिछली पोस्ट से निवृत्त हुआ (छपरा बनारस मण्डल का अंग था) तब तक छपरा में स्टेशन पर जगमगाहट आ चुकी थी। और दूर दूर से लोग स्टेशन देखने आने लगे थे।
तरह तरह के उपकरण आ गये हैं प्रकाश करने के क्षेत्र में। और बिजली की खपत में बहुत कमी कर बहुत ज्यादा ल्यूमिनॉसिटी वाले हैं। हम लोग अपनी एक्सीडेण्ट रिलीफ ट्रेनों के साथ जो बिजली के इन्फ्लेटेबल टॉवर रखते हैं, उन्हे देख कर तो एक समय अजूबा लगता था। इन इन्फ्लेटेबल टॉवरों को लपेट कर रखा जा सकता है। दुर्घटना स्थल पर छोटे होण्डा जेनरेटर से ऐसी जगमगाहट देते हैं, मानो दिन हो गया हो। क्रेन और हाइड्रोलिक जैक्स से काम कर रहे रेल कर्मियों का आत्मविश्वास और कार्य क्षमता कई गुणा बढ़ जाते हैं ऐसी रोशनी में। रेलवे ट्रेक पर कई ऐसे काम जो संरक्षा के दृष्टिकोण से केवल दिन में किये जाते थे, इस प्रकार की बिजली व्यवस्था में अब रात में होने लगे हैं। कई तरह के सोचने-करने के बैरियर टूट रहे हैं बेहतर प्रकाश में।
यही बात तकनीकी स्तर पर लिखने में मुझे ज्यादा मेहनत करनी होगी। पर लब्बोलुआब यही है कि अब रोज दीपावली की जगमगाहट का युग है – छोटे शहरों में भी।
और यह देखें पोर्टेबल इन्फ्लेटेबल लाइट टावर्स के चित्र (इण्टरनेट से लिये गये)-
इन्फ्लेटेबल लाइट टावर। बांई ओर का लपेट कर रखा झोला फूल कर रॉड जैसा हो जाता है – प्रकाश का बड़ा ट्यूब बन जाता है। |
![]() 80 फिट ऊंचा मूवेबल लाइट टावर मोड़ कर कहीं भी ले जाया जा सकता है यह टॉवर
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1. कल आलोक पुराणिक जी ने कहा कि ब्लॉग में मैं भी खूब खिचड़ी परोसता हूं। खिचड़ी लगता है देशज ब्लॉगरी का प्रतीक बन जायेगी! अगर मैं खिचड़ी परोसता हूं तो उसमें देसी घी की बघार आलोक पुराणिक जी की टिप्पणियां लगाती हैं।
शायद ही कोई दिन गया होगा कि देसी घी का बघार न लगा हो या देसी घी कंजूसी से लगा हो!
2. कल दिनेशराय जी ने एक दक्ष वकील की क्षमताओं का परिचय देते हुये हमारे पक्ष में एक पोस्ट लिखी – “मुहब्बत बनी रहे तो झगड़े में भी आनन्द है”। पर दिन में यह पोस्ट ब्लॉगस्पॉट के एडिट पोस्ट की फॉण्ट साइज की गड़बड़ में डीरेल रही। शाम के समय उन्होंने फॉण्ट सुधार दिया था। हो सके तो देखियेगा।



@ संजय बेंगाणी > रेल्वे के इंजन वातानुकूलित कब हो रहें है?अभी तो ड्राइंग बोर्ड स्टेज पर हैं। रेलवे डिजाइन और मानक संस्थान उनके स्पेसीफिकेशन बना रहा है शायद। ज्यादा जानकारी मिली तो बताऊंगा।
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जी ये ब्बात है। यहां आप पूछते हैं कि राखी सावंत कौन हैं। उधर ब्रूनी के फोटू के लिए गूगल सर्च मारते हैं। ये अच्छी बात नहीं है। स्वदेश प्रेम अच्छी बात है। बचपन के स्कूल में संगमरमर के पत्थरों पर कुछ पंक्तियां लिखी रहती थीं, उनमें कुछ ये थींजो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहींवह हृदय नहीं पत्थर है जिसमें स्वदेश से प्यार नहीं। स्वदेश से प्यार कीजिये सरजी। राग दरबारी में आदरणीय श्रीलाल शुक्लजी ने एक प्रसंग में विदेशी अभिनेत्री और सायराबानू के कंपेरीजन में लिखा है कि अगर मन लग जाये तो स्वदेश प्रेम में भी बहुत मजा है।हमरी ना सुनिये ना सहीश्रीलाल जी की तो सुनिये।
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आपकी खिचड़ी में थोड़ा सा घी डाल रहा हूँ. :)रोशनी पर अच्छी पोस्ट. रोशनी अच्छी हो त कार्य कुशला बढ़ जाती है. (विषयांतर) रेल्वे के इंजन वातानुकूलित कब हो रहें है? ड्रायवर ज्यादा कुशलता से काम कर सकेंगे.
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आपने फोटो-वोटो का अच्छा इंतजाम कर रखा है. काकेश जी को खिचडी पसंद है और मधुशाला के बारे में लिखने से एक बार फिर से पता चल गया कि वे किताबें भी पढ़ते हैं. वाह!
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पहली बात हम डेली टिप्पणी नहीं करेंगे और अच्छी तो बिलकुल ही नहीं करेंगे नहीं तो अनूप जी कहेंगे लिखने की बजाय टिप्पणी करना ही चालू कर दो… कौन सा अच्छा लिख ही पातो हो…दूसरी बात : इमेज सर्च का ज्ञान लिया. तीसरी बात : बच्चन जी ने इसी इलाहाबाद में लिखा था. एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला। आज वो जिन्दा होते तो अपनी मधुशाला रेलवे स्टेशन शिफ्ट जरूर कर देते.चौथी बात : खिचड़ी मुझे भी बहुत पसन्द है क्योंकि जब भी खाना मैं बनाता हूँ खिचड़ी ही बनाता हूँ.
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“कई तरह के सोचने-करने के बैरियर टूट रहे हैं बेहतर प्रकाश में।” ऐसे ही प्रकाश की जरूरत है। बस पाल्हा चूम लिया। अब भगना है। बेटी को पढ़ाना है और दफ्तर भी जल्दी जाना है।
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UP jaaney waqt saal me teen -chaar baar hum ALLHABAD gangaa bridge ke uper se guzratey hain..train se dikhney vaali sangam ke kinaarey lagi lights dekhtey hi banti hain….ab is baar station bhi dhyaan se nihaarengey…
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ये रोशनी देखी। कल दिनेशजी ने अपनी पोस्ट में जो रोशनी दिखाई वह भी देखी। अच्छा लगा। आलोक पुराणिक की टिप्पणियां इनके लेखों से बेहतर होती हैं। बहुत कहा कि लिखना छोड़कर टिपियाना शुरू कर सकते हैं। लेकिन उनको हमारे कहे के अनुसार चलने का मन नहीं करता भाई!
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इलाहाबाद में 2000-2001 के महाकुंभ में ऊंचे-ऊंचे टावरों वाली लाइट पूरे शहर में लगाई गई थी। चौराहों पर इसकी रोशनी अद्भुत छटा बिखेरती थी। लेकिन, निरंतर इसका इंतजाम नहीं हो सका। खैर, आपन इलाहाबाद स्टेशन अइसे चमकी तो, बहुत नीक लागी।
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आप ने रोज दीपावली उत्पन्न करने वाले उपकरणों से परिचित कराया। निश्चित ही ये काम के लिये अत्योपयोगी हैं। हालांकि मेरे एक मित्र का यह भी कथन है कि ये कभी कभी हिंसा की सृष्टि करते हैं। मेरे यहां आज कल किसानों को सिंचाई के लिए अतिरिक्त बिजली उपलब्ध कराने के लिये सुबह आठ से ग्यारह तक पॉवर कट है। कल अनवरत की पोस्ट पर चित्र डालते ही एचटीएमएल गड़बड़ हो गया। उसे ठीक कर पाता उस के पहले ही बिजली गुल। शाम को अदालत से घर पहुँचने तक गड़बड़ दूर करना तो दूर पोस्ट को अस्थाई तौर पर हटाने का जुगाड़ तक करना संभव नहीं हो पाया।
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