पाब्लो नेरूदा की कुल एक कविता पुस्तक मेरे पास है – उनकी हिन्दी में दिनेश कुमार शुक्ल द्वारा अनुदित २३ कविताओं का संग्रह। उसमें से यह कविता मुझे प्रिय है।
शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग पर मेरा परिचय है – “हर विषय में प्रश्न करने – उत्तर मिले चाहे न मिले की आदत रखते हैं”। यह कविता उसी आदत के चलते पसंद है!
आखिरकार कब तक?
आखिरकार कितना जी पाता है आदमी?
हजार दिन कि एक दिन?
सिर्फ़ एक सप्ताह या कि सदियों तक?
मरते वख्त कितना समय लेता है आदमी?
’हमेशा के लिये’ आखिर इसके मानी क्या हैं?
इसी झंझट में डूबा हुआ मैं
जुट जाता हूं उलझन सुलझाने में
तलाशा मैने ज्ञानी पुरोहितों को
पूजा ऋचा के बाद मैने उनकी भी सेवा की
टुकुर टुकुर ताकता रहा उन्हें जब
वह जाते थे मिलने
खुदा और शैतान से
ऊब गये वह सब भी मेरी जिज्ञासा से
दरअस्ल खुद भी वह
जानते थे कितना कम
बहुत-बहुत ज्यादा बुढ़ाया हुआ
अब मैं किसी से कुछ नहीं पूछता
और दिन ब दिन
उनमें और तहसीलदार में फर्क ही क्या था?
दौरान तहकीकात मिला
डाक्टरों से भी मैं
डाक्टर जो हाथ में नश्तर संभाले
दवाओं की गंध में रचे बसे
किस कदर व्यस्त थे
किस्सा कोताह बातों से उनकी
निचोड़ यह निकला –
समस्या यह नहीं कि बीमारी
के कीटाणु नष्ट कैसे किये जायें –
वह तो मनों और टनों रोज
मरते ही रहते हैं – असल यह
समस्या है कि
दो चार जो
बच निकलते हैं उनमें
बच निकलने की खब्त
पैदा कैसे हो जाती है?
तो साहब मुझे
ऐसी अचकचाहट में छोड़ गये
बेटे धन्वन्तरि के
घबराकर मैने तलाश शुरू की
कब्र खोदने वालों की
मैं नदियों के तट पर
घूमा शमसानों में
जहां शाप ग्रस्त सम्राटों का
दाह-कर्म होता था
जहां हैजा हजम कर जाता था
पूरे के पूरे शहर
तो ऐसे क्रिया कर्मों के ’विशेषज्ञों’ से
पटे पड़े थे पूरे के पूरे समुद्र तट
पूरे के पूरे देश
मिलते ही मौका मैने छोड़ी
सवालों की झड़ी उनपर
प्रत्युत्तर में
वे मेरा ही दाहकर्म करने पर
आमादा हो उठे
और सच पूछो तो उन्हें बस यही
सिर्फ इतना ही, आता था
और मेरे अपने देश में
शराबनोशी के संजीदा दौर में
समझदार लोगों ने मुझको
जवाब दिया:
’कोई अच्छी सी औरत तलाश लो
आदमी बनो
और छोड़ो यह बचकानापन’
लोगों को इतना खुश
मैने कभी नहीं देखा था
जिन्दगी और मौत के नाम
जाम छलकाते हुये
गाते हुये
इतने
इतने विकराल व्याभिचारी!
पार कर दुनियां जहान घर लौटा मैं
बहुत-बहुत ज्यादा बुढ़ाया हुआ
अब मैं किसी से कुछ नहीं पूछता
और दिन ब दिन
मेरा ज्ञान छीजता जाता है।

डा० अरविंद मिश्र जी आपके ब्लॉग के बारे में सुना था। आज जब आपके ब्लॉग को देखा, तो अभिभूत हो गया। आपका टेस्ट, आपकी सोच लाजवाब है। मेरी ओर से बहुत-बहुत बधाई।
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