जीवन एक उत्सव


लाना जी बड़े कुटिल हैं। उका दिमाग बड़ा पेचीदा है। यानी कि के सिर में एक ओर से कील ठोंको तो दूसरी ओर से पेंच बन कर निकलेगी। कोई भी विचार सरल सरल सा नहीं बह सकता उनके मन में। हर बात में एक्यूट एंगल की सोच। और जो सोचता है वह बुद्धिजीवी होता है। बड़ा सीधा लॉजिक है फलाना जी बुद्धिजीवी हैं


फलाना जानते भी हैं कि वह बुद्धिजीवी हैं। आस पड़ोस के लोगों, उनके अपने प्रभामण्डल, और सबसे ज्यादा उनके अपने मन में यह पुख्ता विश्वास है कि वह बुद्धिजीवी हैं। वह हैं असुरों के वृहस्पति; वक्राचार्य।


पर उनका जीवन भी कील और पेंच की तरह नुकीला और वक्र है। उससे जो जीवन सिद्धांत भी निकलते हैं वे फिकल होते हैं। आप जिस भी बात को तर्क की कसौटी पर सिद्ध करना चाहो, आपको केवल बैकवर्ड लॉजिक बनाना पड़ता है। उसमें फलानाजी को महारत है। और फलाना जी रीयर व्यू मिरर में देख कर अपनी गाड़ी फास्ट लेन में चला रहे हैं।


फलाना जी पूर्व जन्मों के पुण्य से तीक्ष्ण बुद्धि पाये हैं। पर इस जन्म में वे वह पुण्य मटियामेट कर रहे हैं। जीवन जनक सा होना चाहिये। नलिनीदलगतजलमतितरलम। कमल पर से पानी की बून्द ढरक जाये बिना प्रभाव डाले वैसा। पर वह गुड़ के चोटे जैसा हो रहा है। खिसिर-खिसिर करती मिठास का दलदल वाला। और उस मिठास का जब फरमण्टेशन हो जाता है तो और विकट हो जाता है जीवन।


मित्रों; हम सब में किसी न किसी मात्रा में फलाना जी हैं।


जीवन उत्सव होना चाहिये मित्र। मेरे बचपन में मैं जोधपुर में था। घर के पीछे घुमन्तू आदिवासी अपनी बस्ती बनाये हुये थे। दिन भर काम करते और शाम को पता नहीं कहां से अपने वाद्य निकाल कर उत्सव मनाते थे। दुख सुख उनके जीवन में भी रहे होंगे। अपने मन-समझ से जीवन का मतलब और उसमें निहित कार्य-कारण सिद्धांत वे भी समझते बूझते होंगे। पर वे जो मस्ती छान ले रहे थे; वह मेरे लिये अब तक हसरत ही है। कैसे बने जीवन उत्सव? कैसे हम सरल बनें। कैसे मानापमान की उहापोह और प्वॉइण्ट स्कोर करने की आसुरिक इच्छा के परे तुकाराम की तरह अभंग गायें? कैसे इस जीवन में; यहीं स्वर्गीय आनन्द मिल सके?


कल की तरह शायद अरविन्द मिश्र जी कहें कि मैं लिखते लिखते टप्प से बन्द कर देता हूं। लेकिन करें क्या? फुलटाइमर की तरह लिख-पढ़-सोच नहीं रहे। ले दे कर एक डेढ़ पेज जो लिख पाते हैं, उसमें अटपटी सी बात ही बन पाती है। तभी तो ब्लॉग का नाम भी मानसिक हलचल है – सुस्पष्टता होती तो एक विषयक ब्लॉग होता और उसमें सशक्त तरीके से विचार प्रतिपादन होता। यह भी होता कि उठाई गयी समस्या का सुस्पष्ट समाधान होता। पंकज अवधिया जी ने पूछ ही लिया है कि समाधान क्या है? जरूरी है कि मैं अपनी सोच बताऊं – आदर्श कैसे आयें। समस्यायें कैसे टेकल हों। जीवन अगर उत्सव बनना हो तो कैसे बने? पर मित्रों, जब सोच किसी मुकाम पर पंहुची हो तो बताऊं भी। सोच तो चलती रहेगी। इन सवालों के भी जवाब निकलेंगे। और निकलेंगे नहीं वे तो हैं। उनका प्रगटन होना है।


बस, तब तक आप भी सोचें कि वक्राचार्य की दशा पार कर “जीवन उत्सव” की ओर कैसे मुड़ें।


««« आप यह चित्र देखें – बया घोंसला बना रही है।

वह पूर्णत: तन्मय है। उसके अंग-अंग में स्फूर्ति है। और घोंसला तो अद्भुत कृति है। बया किसी का घोंसला उजाड़ कर अपना नहीं बना रही होगी। वह यह भी नहीं सोच रही होगी कि पड़ोसी बया से उसका घोंसला बेहतर या कमतर है। वह पूरी तरह जुटी है घोंसला बनाने में। जब मैं एक अच्छी पोस्ट लिख रहा होता हूं तो इस बया की तरह एक एक मात्रा, एक एक शब्द को संवारने का प्रयास करता हूं। वही जीवन उत्सव है। पर वह उत्सव कितने समय मनता है?

दुख की बात है – बहुत कम समय बया की स्पिरिट मुझमें रहती है।



समीर लाल तो कल अवतरित हुये। अनूप सुकुल न जाने कब तक इण्टरनेट खराब होने को भुनायेंगे। पता नहीं रायपुर में ईनाम-सीनाम  गठिया रहे हों। :-)


         

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

19 thoughts on “जीवन एक उत्सव

  1. दूसरों का तो पता नहीं पर हमारा अनुभव ये है कि जब से हम ने अपने अहम को साध लिया हैं जीवन के कई मसले सुलझ गये है और हर दिन इक उत्सव है। अहम साध लें तो मान अपमान और पॉइंट स्कोर करना औछा लगने लगता है,और कहीं साथ में गौतम बुद्ध को याद करते हुए इच्छाओं को भी साध लें तो सोने पर सुहागा…हम तो ये दोनों करके बहुत खुश हैं और जीवन को एक उत्सव की तरह जी रहे हैं…॥:)

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  2. कमल पर से पानी की बून्द ढरक जाये बिना प्रभाव डाले…..sundar baat

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  3. जीवन तो उत्सव ही है ,ये हम मनुष्य ही उसे इतना पेंचीदा बना देते है । हमे बस अपने-आप को ही बदलने की जरुरत है।

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  4. सुखिया सब संसार है, खावै और सोवेदुखिया दास कबीर है, जागै और रोवेअर्थात सुखी रहना है तो सिर्फ खाईये और सोइये। जो रोता है अर्थात दूसरों के फटे में टांग अड़ाकर दुखी होता है और रात में उन दुखों पर विचार करके जगता है, वो दुखी ही रहता है। अर्थात सिर्फ खाना और सोना ही जीवन का अभीष्ट है।

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  5. हम उत्सवधर्मी तो हैं ही स्वभाव से, हर बात में उत्सव मनाने के कारण ढूंढ ही लेते हैं।

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  6. इतने लोगो का ब्लाग पर आना और बेबाकी से टिपियाना किसे उत्सव से कम नही। हर पल खुश होना मुश्किल है पर सच माने तो खुशी हर पल मे है। हम पशुओ को देखकर उनकी लगन को देखकर अभिभूत होते है। यकीन मानिये उनका ब्लागर भी मनुष्य को देखकर ऐसा ही कहता होगा। :)

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  7. ज्ञान जी जीवन तो हर पल उत्सव है। अबोध खिलखिलाहट को सुनिये। चिडिया की चहचहाट को सुनिये बेसाख्ता जब मुस्कुरा पडते है वो ही लम्हा उत्सव है।

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  8. बलि जाऊं आपकी निबंधात्मक शैली पर -यह तो विद्यानिवास जी के ललित निबंधों की याद दिला देता है …उत्सव प्रियाह मानवाः -यह हमारी जानी पहचानी बात है -बया की उपमा देकर भी आपने अपनी बात स्पष्ट कर दी है -यह भी मुझे सालिम अली की याद दिला गया जो बया की बयार मे ऐसे बहे कि दुनिया मे एक महान पक्षी विद होने का गौरव पा गए ,भारत को भी गौरव दिला गए -आप के इस पोस्ट ने दो महापुरुषों की याद दिलाई आप मे बहुत उर्जा है निश्चित ही भारतीय रेल को भी इसका अंश मिल रहा होगा ….चरैवेति चरैवेति ………

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