हर एक के जीवन में अवसर आते हैं जब नयी अपेक्षायें होती हैं व्यक्ति से। नेतृत्व की विविधता की आवश्यकता बनती है। पर लोग उसे फेस करने या उस पर खरा उतरने से बचते हैं। बहुत कुछ अर्जुन विषाद की दशा होती है। जब कर्म की अपेक्षा होती है तो मन उच्चाटन की दिशा में चल रहा होता है। लगता है जैसे विगत में काम करने का जो माद्दा था, वह नहीं रहा। आत्म विश्वास क्षीण सा होता लगता है।
बहुत से लोग इस अवस्था से गुजर चुके होंगे। बहुत से टूट जाते हैं। बहुत से अर्जुन बन कर निकलते हैं। मैं सोचता हूं कि कई ऐसे हैं – सरकारी तन्त्र में, और उसके बाहर भी, जो बिना काम किये जी रहे हैं। उनके पास पद और पैसा दोनो है। वैसे तो जिया जा सकता है। शायद आराम से चल भी जाये। पर उस प्रकार से जीने के बारे में कृष्ण कहते हैं – “अर्जुन जब लोग कहेंगे कि अर्जुन तो कायर था; तब क्या वह तुम्हारी वृत्ति के अनुरूप होगा? क्या तुम उसे झेल पाओगे?” गीता के प्रारम्भ की उनकी लताड़ मुझे याद आती है – “क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वयुपपपद्यते क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोक्तिष्ठ परंतप।”
और हम दो भिन्न भावों के बीच अपने को पाते हैं। क्लीवता से उबरने की इच्छा और असफलता के भय के बीच। यह तनाव बढ़ाती है।
मैं अपने में यह स्थिति महसूस करता हूं और काम करने के तरीके खोजता हूं। मैं अपने में नेतृत्व की सम्भावनायें टटोलता हूं।
सभी ऐसा करते होंगे। सभी अपने अपने समाधान पाते होंगे। 
हम सभी असफलता की आशंका और सफलता के प्रति विश्वासहीनता से ग्रस्त रहते हैं। पर क्या सफलता में विश्वास सम्भव है? स्वामी जगदात्मानन्द के अनुसार – “साधक को दिन-रात ईश्वर का चिन्तन करते हुये, पथ की सफलता-विफलता को नजर अन्दाज करते हुये, सभी सुख सुविधाओं को त्याग कर, ज्ञान-विनय का आश्रय ले कर प्रयत्नशील रहना होगा। जैसे तैराकी सीखने के लिये जल सिन्धु में कूदना पड़ता है, वैसे ही विश्वास की प्राप्ति के लिये साधक को साधना सिन्धु में कूदना पड़ेगा।”
“हमारा मन सदैव ही भय घृणा, निन्दा, तथा कष्ट की भावना का विरोध करता है। बार-बार विफल होने की वजह से उत्पन्न कष्ट, घृणा तथा भय की भावना, तथा यह भावना कि “मैं यह कार्य नहीं कर सकता”, ही लोगों को आलसी बनाती है।”
“भय दरवाजे पर दस्तक देता है। विश्वास दरवाजा खोल कर पूछता है, ’कौन है?’ वहां तो कोई भी नहीं है। विश्वास की आवाज सुन कर भय सिर पर पांव रख कर भाग जाता है।
मुझे समझ में आता है – अपने आप में और ईश्वर में विश्वास ही सफल होने की कुंजियां हैं।
दिनकर रचित कुरुक्षेत्र में भीष्म का धर्मराज को उपदेश:
धर्मराज, सन्यास खोजना कायरता है मन की,
दुर्लभ नहीं मनुज के हित, निज वैयक्तिक सुख पाना,
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जिस तप से तुम चाह रहे पाना केवल निज सुख को,
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स्यात, दु:ख से तुम्हें कहीं निर्जन में मिले किनारा,
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धर्मराज क्या यती भागता कभी गेह या वन से?
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जीवन उनका नहीं, युधिष्ठिर, जो उससे डरते हैं,
यह पयोधि सबका मुंह करता विरत लवण कटु जल से,
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धर्मराज, कर्मठ मनुष्य का पथ सन्यास नहीं है,
शनिवार के दिन मैं अस्पताल में अपनी इन्सोम्निया की समस्या के विषय में रेलवे अस्पताल में चक्कर लगा रहा था। अचानक मेरा एक ट्रेन कण्ट्रोलर मनोज दिखा। मनोज हमारा एक दक्ष और कर्तव्यपारायण ट्रेन कण्ट्रोलर है।
दो दिन पहले मनोज की पत्नी ने सीजेरियन के जरीये एक बालक को जन्म दिया है। वह बच्चे को रोग-प्रतिरोधक टीके लगवा रहा था।
मैने बालक का फोटो मोबाइल में कैद किया और मेरी पत्नी ने बच्चे की मुंहदिखाई में पर्स ढ़ीला किया। अगर रीताजी साथ न होती तो हमें यह ध्यान भी न रहता कि शगुन में कुछ दिया भी जाता है। भगवान सही समय पर साथ रहने के लिये पत्नी की (कोई झन्झट न खड़ा हो, इस लिये “पत्नियां” इस स्थान पर “पुरुष” पढ़ें) रचना करते हैं।
मनोज का बालक बहुत सुन्दर लग रहा है। आप भी देखें।

भईयाजीवन में अपेक्षाएं हर मोड़ पर होती हैं…बचपन से लेकर बुढापे तक…ये अपेक्षाएं कभी जीवन को संबल देती हैं तो कभी तोड़ के रख देती हैं…पूरे जीवन में हम परीक्षाएं ही देते रहते हैं…ये ऐसा कुरुक्षेत्र का युद्ध है जो हमारे साथ ही समाप्त होता है…उस से पहले नहीं…अर्जुन हम से अधिक भाग्यशाली रहा है इस मामले में…बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं ये सच नज़र आया मनोज जी के बालक की फोटो में…..वाह…नीरज
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very well written—khaas kar aap ka yah title ki yah blog mere hone ka dastavegi praman …….bahut bahut badiya laga!sadar,alpana
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– “साधक को दिन-रात ईश्वर का चिन्तन करते हुये, पथ की सफलता-विफलता को नजर अन्दाज करते हुये, सभी सुख सुविधाओं को त्याग कर, ज्ञान-विनय का आश्रय ले कर प्रयत्नशील रहना होगा।”कोशिश तो रहती है पर हर बार ऐसा करना सम्भव नही हो पाता है।
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कुछ असमंजस की स्थिति मे आप लग रहे है। पर जिंदगी मे ये सब चलता ही रहता है।मनोज को बेटा होने की बधाई।बच्चे की फोटो अच्छी आई है।
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एक सवाल ऑफ़ द रिकॉर्ड–आदमी जैसे जैसे उम्र और अनुभव मे बढ़ता जाता है अधिकतर उपदेशात्मक मोड में क्यों आने लगता है? ;)
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विश्वास बड़े होते हैं या डरसारा कुछ इस पर निर्भर होता है। विश्वास आम तौर पर बड़े नही होते, डर बड़े होते हैं। महामानव और साधारण मानव का यही फर्क है कि महामानव विश्वास से नहीं डरता और साधारण मानव डर में ही विश्वास करता है। पूरी जिंदगी इसी की जंग है। जो जितना लड़ ले। जमाये रहिये।
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बुलंद हौसला और दृढ विश्वास ही सफलता का मूल मन्त्र / कुंजी है. आपके विचारों से मैं सहमत हूँ . बहुत बढ़िया आलेख आभार
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सरकारी तंत्र में खरा उतरना, वहां एक नया नेतृत्व देना – बिरले ही कर पाते हैं।
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आपके संदेश सदैव स्फूर्ति और आशा का संचार करते हैं -यह बहुत ही आश्वस्तिदायक है -मानव शिशु का चेहरा कितने सुकोमल भावों का संचार करता है ,इससे अच्छा भला इस संदेश का समापन क्या होता -आदरणीय रीता जी का पर्स भी इसी जैवीव ट्रैप[केयर सोलिसितिंग रिस्पांस ] के चलते खाली हुआ है ,जो सहज ही है- आख़िर आप लोग कोई मखीचूस तो हैं नहीं की जैवीय भावों तक को मठेस लें .
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पुरुषों की सामाजिकता उन की पत्नियों का प्रतिबिंब है?
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