भूमिगत जल और उसका प्रदूषण


आज बुधवासरीय अतिथि पोस्ट में आप श्री पंकज अवधिया द्वारा भूमिगत जल और उसके प्रदूषण पर विस्तृत जानकारी उनके नीचे दिये गये लेख में पढ़ें। इस लेख में जल प्रदूषण पर और कोणों से भी चर्चा है। उनके पुराने लेख आप पंकज अवधिया के लेबल सर्च से देख सकते हैं।


भूमिगत जल क्या हमेशा प्रदूषण से बचा रहता है? क्या हम बिना किसी जाँच के इसका उपयोग कर सकते हैं ? बहुत वर्ष पहले मैने एक भू-जल विशेषज्ञ से यह प्रश्न किया था। उनका जवाब वही था जो हमने पाठ्य पुस्तको मे प ढ़ा था। मतलब भूमिगत जल प्रदूषण से मुक्त रहता है। इसी विश्वास के साथ हम पानी का उपयोग करते रहे पर आज जब छत्तीसगढ के शहरों मे भूमिगत जल मे तरह-तरह की अशुद्धियाँ मिल रही हैं और लोग बीमार प रहे है तो अचानक ही हमे अपनी ग लती का अहसास हो रहा है कि हमने एक अधूरे विज्ञान पर विश्वास किया। राज्य मे चूने पर आधारित भू-रचना है। वर्षा का जल कार्बन डाई-आक्साइड के साथ मिलकर तनु अम्ल बनाता है। यह अम्लीय पानी चूने मे जगह बनाता जाता है और नीचे एकत्र हो जाता है। भूमि के अन्दर छोटे-छोटे पोखर होते है जिन्हे एक्वीफर कहा जाता है। यह आपस मे जुड़े होते है। आप इस चित्र को देखे तो आप को पता चलेगा कि कैसे प्रदूषक आपके साफ-सुथरे जल को दूषित कर सकते हैं


««« आप संलग्न थम्बनेल पर क्लिक कर “Living on Karst – A reference guide” नामक वेब पन्ने पर जायें। वहां पृष्ठ 4 के अंत मे बने रेखाचित्र को देखे कि भूमिगत पानी का प्रदूषण कैसे होता है।


सघन बस्तियों मे प्रदूषण की समस्या कई गुना ब जाती है। छत्तीसगढ मे बते शहरीकरण के कारण हजारों बोरवेल अमृत की जगह जहर दे रहे हैं । पूरे देश मे कमोबेश यही स्थिति है। नाँन पाइंट पाँल्यूशन की बात दुनिया भर में हो रही है। इस लिंक पर क्लिक कर आप उस विषय पर एक इण्टरेक्टिव फ्लेशप्वाइण्ट प्रेजेण्टेशन को भी देख सकते हैं।


पिछले एक दशक से भी अधिक समय से मै जल से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहा हूँ। मानसून की पहली वर्षा की प्रतीक्षा पारम्परिक चिकित्सक बेसब्री से करते रहते हैं । अलग-अलग वनस्पति से एकत्र की गयी पहली वर्षा का जल नाना प्रकार के रोगों की चिकित्सा में प्रयोग होता है। विशेष पात्रो में इस जल को एकत्र कर लिया जाता है फिर साल भर विभिन्न तरीकों से इसका उपयोग होता रहता है। आप इस कड़ी पर जाकर यह जानकारी पा सकते हैं कि कैसे अलग-अलग वनस्पति से एकत्र किया गया जल रोगों से मुक्ति दिलवाता है।


भारत में पहली मानसूनी वर्षा मे नहाने की परम्परा सदा से रही है। इससे गर्मी मे होने वाले फोडे-फुंसी से निजात मिलती है। मेरे एक जापानी मित्र भारत के इस ज्ञान से अभिभूत हैं। वे कहते हैं कि जापान मे तो पहली वर्षा होते ही हम शरीर को ढ़ंक लेते हैं कि कही अम्लीय वर्षा से नाना-प्रकार के रोग न हो जायें । औद्योगिक प्रदूषण जो बढ गया है। अब धीरे-धीरे भारत मे भी यही हाल हो रहा है।


भारत मे नदियों का जाल फैला हुआ है। गंगा जल के औषधीय महत्व को तो हम सब जानते हैं । देश के पारम्परिक चिकित्सक प्रत्येक नदी के पानी के औषधीय गुणों के विषय मे जानते हैं वे रोग विशेष से प्रभावित रोगियों को विशेष नदी का पानी पीने की सलाह देते हैं । वे बताते हैं कि जिस प्रकार के वनो से बहकर नदी पहाड़ों से मैदानो मे आती है उसके औषधीय गुण भी वैसे ही हो जाते हैं । मुझे याद आता है कि बस्तर मे इन्द्रावती नदी के किनारे निर्मली नामक वृक्ष पहले बहुत होते थे। यह वही निर्मली है जिसका प्रयोग पी ढ़ि यों से आदिवासी गन्दे जल को साफ करने में करते रहे हैं। इस नदी के जल का उपयोग दवा के रुप मे होता था। आज निर्मली के वृक्ष काटे जा चुके हैं और नदी की स्थिति हम सभी जानते हैं । जैसा कि आप जानते हैं, मैं मधुमेह से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान पर एक रपट तैया र कर रहा हूँ। इस रपट मे बीस से अधिक छोटी-बडी नदियों के जल के औषधीय उपयोग का वर्णन मैने किया है। यह अपने आप मे अदभुत ज्ञान है। उदाहरण के लिये पैरी नामक नदी का जल उन वनस्पतियों के साथ दिया जाता है जो कि श्वाँस और मधुमेह रोगों से प्रभावितों के लिये उपयोगी हैं


देश के पारम्परिक चिकित्सक कुँओं के पास पीपल प्रजाति के वृक्षो की उपस्थिति को अच्छा मानते है। गूलर के साये मे स्थिति कुँ ए के जल का सबसे अच्छा माना जाता है। तालाबों के आस-पास इन वृक्षों की उपस्थिति देखी जा सकती है। यह विडम्बना ही है कि इनके महत्व मे बारे में नयी पीढ़ी को बताने हेतु बहुत कम प्रयास हो रहे हैं मुझे नही लगता कि अपने पूर्वजो की दूरदर्शिता के कारण जी रहे हमारी पीढी के लोग कभी पीपल और गूलर जैसे नये वृक्षों को लगाने का पुण्य कार्य करेंगे। इसका खामियाजा वर्तमान और आने वाली पीढी को भुगतना होगा।


जल संरक्षण के नाम पर देश भर मे करोड़ों फूँके जा रहे हैं। पंचतंत्र के रट्टू तोते की तरह सब चिल्ला रहे हैं। शिकारी आता है, जाल फैलाता है, जाल मे नही फंसना चाहिये पर कोई भी शिकारी को देखकर भाग नही रहा है। हम खूब व्याख्यान दे रहे हैं कि जल को बचाना चाहिये। बीच-बीच मे सूखे गले को तर करने हम सत्व विहिन बोतल बन्द पानी भी पी लेते हैं पर कभी अपनी दिनचर्या से समय निकालकर विशेष प्रयास नहीं करते हैं। जल के नाम पर असंख्य संगठन कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं। जितना पैसा आज तक इन्हे प्रचार के लिये दिया गया है उसका आधा भी जमीनी कार्य मे लगा दिया जाता तो आज देश की स्थिति कुछ बदली-बदली नजर आती।


निर्मली पर शोध आलेख

गूलर (डूमर) पर शोध आलेख


पंकज अवधिया

© लेख पर सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।


पंकज अवधिया जी की उक्त पोस्ट ने मुझे चिंता में डाल दिया हैं। मेरे घर में पानी की सप्लाई के दो सोर्स हैं। एक तो म्यूनिसिपालिटी की पाइप की सप्लाई है, जो लोगों द्वारा टुल्लू पम्प लगा कर पानी खींचने की वृत्ति के कारण बहुत कम काम आती है। दूसरा सोर्स बोरवेल का है। उससे पानी तो पर्याप्त मिलता है, पर उसके स्थान और एक छोटे सेप्टिक टेंक में दूरी बहुत ज्यादा नहीं है। यद्यपि कभी समस्या जल प्रदूषण के कारण पेट आदि की तकलीफ की नहीं हुई, पर सम्भावना तो बन ही जाती है कि प्रदूषक जमीन के नीचे के जल तक पंहुच जायें।

हमारे घर में तो सेप्टिक टेंक को री-लोकेट करने के लिये स्थान उपलब्ध है; और एक योजना भी हम लोगों के मन में है। लेकिन शहरी रिहायश में बहुधा लोगों की जल-मल निकासी उनके पानी के सोर्स से गड्डमड्ड होती ही है और जल प्रदूषण से हैजा जैसी समस्यायें आम सुनने में आती हैं।
पता नहीं समाधान क्या है?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

10 thoughts on “भूमिगत जल और उसका प्रदूषण

  1. पंकज जी आप ने आज की पोस्ट पर सच में बहुत ही बड़ी समस्या की ओर ध्यान खीचा है। बम्बई में ये समस्या और भी विकट है जहां पीने का पानी झीलों में स्टोर किया जाता है और फ़िर पाइप से सब जगह पहुचाया जाता है। उन पाइपों के दोनों तरफ़ झोपड़पट्टी जो अपनी जरुरत के लिए पाइप में छेद कर देते हैं। न सिर्फ़ पानी बर्बाद होता है सब तरह की गंदगी भी पीने के पानी में मिलती रहती है।

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  2. बचपन में जैसी मानसूनी वर्षा देखते थे, उसका पच्चीस प्रतिशत भी अब नहीं होती. भू-जल का दोहन भयावह रफ्तार से हो रहा है. आने वाले कल की कल्पना करना कठिन नहीं पर समस्या का उपचार कैसे हो?

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  3. पानी की समस्या तो दिन पर दिन विकट ही होती जा रही है।पानी और वो भी शुद्ध पानी का मिलना तो धीरे-धीरे समाप्त ही होता लग रहा है।वृक्षों और जंगलों को काटते जाना भी इस समस्या का बहुत बड़ा कारण है।

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  4. समस्याएं सभी विकराल होती जा रही हैं। लगता है उन्हीं में से समाधान जन्म लेगा। मनुष्य अपनी ही संख्या से छोटा होता जा रहा है।

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  5. सचमुच अपने पारंपरिक ज्ञान को छोड़कर हवा-हवाई बातें और खर्च से कुछ नहीं मिलनेवाला। पंकज जी सही कहते हैं कि जितना पैसा आज पानी के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह उगे संगठनों को दिया गया है उसका आधा भी जमीनी काम मे लगा दिया जाता तो देश की स्थिति बदल जाती। बहुत काम की पोस्ट।

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  6. समस्या विकट है। सोल्यूशन दिखायी नहीं पड़ रहा है। बाजार इसे अपनी तरीके से साल्व कर रहा है। जो अफोर्ड कर सकते हैं, वो बिसलेरी का इस्तेमाल नहाने तक के लिए कर सकते हैं। पर बाकी कहां जायें। यह सवाल है। पानी को लेकर जैसी अर्जैंसी इमर्जैंसी होनी चाहिए थी। वैसे दिखती नहीं है। पानी बहुत जल्दी शेयर, सोने की तरह एक एसेट क्लास की शक्ल लेने वाला है। यह बेहूदा ख्याल बहुत जल्दी सचाई में भी बदल सकता है।

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  7. पानी कीउपलब्धता और शुद्धता दोनों ही विकराल समस्या का रूप ले रहे हैं -इस ऑर ध्यान दिलाने के लिए पंकज जी और आप को धन्यवाद !

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  8. सुबह की चाय के लिये यह पोस्ट थोड़ा भारी है..दोपहर में खाने के बाद पढ़कर टिप्पणी करेंगे. बस, यही बताने आये थे. :)

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