विक्तोर फ्रेंकल का साथी कैदियों को सम्बोधन – 1.


अपनी पुस्तक – MAN’S SEARCH FOR MEANING में विक्तोर फ्रेंकलसामुहिक साइकोथेरेपी की एक स्थिति का वर्णन करते हैं। यह उन्होने साथी 2500 नास्त्सी कंसंट्रेशन कैम्प के कैदियों को सम्बोधन में किया है। मैं पुस्तक के उस अंश के दो भाग कर उसका अनुवाद दो दिन में आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूं।

(आप कड़ी के लिये मेरी पिछली पोस्ट देखें)

यह है पहला भाग:


वह एक बुरा दिन था। परेड में यह घोषणा हुई थी कि अबसे हम कैदियों के कई काम विध्वंसक कार्रवाई माने जायेंगे। और विध्वंसक माने जाने के कारण उनके लिये तुरंत फांसी की सजा मिला करेगी। इन आपराधिक कामों में अपने कम्बल से छोटे छोटे टुकड़े काट लेना (जो हम अपने घुटनों के सपोर्ट के लिये करते थे) जैसे छोटे कृत्य भी शामिल थे। बहुत हल्की चोरियां भी इन विध्वंसक कामों की सीमा में ले आयी गयी थीं।

कुछ दिन पहले एक भूख से व्याकुल कैदी ने स्टोर से कुछ पाउण्ड आलू चुराये थे। इसे पता चलने पर बड़ी गम्भीरता से लिया जा रहा था। चुराने वाले को सेंधमार की संज्ञा दी जा रही थी। अधिकारियों ने हम कैदियों को आदेश दिया था कि हम उस “सेंधमार” को उनके हवाले कर दें, अन्यथा हम सभी 2500 कैदियों को एक दिन का भोजन नहीं मिलेगा। और हम सभी 2500 ने एक दिन का उपवास करना बेहतर समझा था।

जब भी नैराश्य मुझे घेरता है, विक्तोर फ्रेंकल (1905-1997) की याद हो आती है. नात्सी यातना शिविरों में, जहां भविष्य तो क्या, अगले एक घण्टे के बारे में कैदी को पता नहीं होता था कि वह जीवित रहेगा या नहीं, विक्तोर फ्रेंकल ने प्रचण्ड आशावाद दिखाया. अपने साथी कैदियों को भी उन्होने जीवन की प्रेरणा दी. उनकी पुस्तक “मैंस सर्च फॉर मीनिंग” उनके जीवन काल में ही 90 लाख से अधिक प्रतियों में विश्व भर में प्रसार पा चुकी थी. यह पुस्तक उन्होने मात्र 9 दिनों में लिखी थी.

इस दिन शाम को हम सभी भूखे अपनी झोंपड़ियों में लेटे थे। निश्चय ही हम बड़ी मायूसी में थे। बहुत कम बातें हो रही थीं। हर आदमी चिड़चिड़ा हो रहा था। ऐसे में बिजली भी चली गयी। हम लोगों की चिड़चिड़ाहट और बढ़ गयी। पर हमारे सीनियर ब्लॉक के वार्डन बुद्धिमान आदमी थे। उन्होने एक छोटी सी टॉक में उन बातों को बताया जो हम सब के मन में चल रही थीं। उन्होने पिछले दिनों बीमारी या भूख से मरे साथियों की चर्चा भी की। लेकिन वे यह बताना नहीं भूले कि मौतों का असली कारण क्या था – वह था – जीने की आशा छोड़ बैठना। सीनियर ब्लॉक वार्डन ने कहा कि कोई न कोई तरीका होना चाहिये जिससे साथी लोग इस चरम अवस्था तक न पंहुंच जायें। और उन्होने इस बारे में मुझे कुछ सलाह देने का आग्रह किया।

भगवान जानता है कि मैं अपने साथियों को उनके आत्मिक स्वास्थ्य के लिए किसी मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण या उपदेश युक्त सलाह देने हेतु कतई मूड में नहीं था। मैं सर्दी और भूख से परेशान था। मुझमें थकान और चिड़चिड़ाहट थी। पर मुझे अपने को इस अभूतपूर्व स्थिति के लिये तैयार करना ही था। आज उत्साह संचार की जितनी आवश्यकता थी, उतनी शायद पहले कभी नहीं थी।

अत: मैने छोटी छोटी सुविधाओं की चर्चा से अपनी बात प्रारम्भ की। मैने बताया कि योरोप की द्वितीय विश्वयुद्ध की छठी सर्दियों में भी हमारी दशा उतनी खराब नहीं थी, जितनी हम कल्पना कर सकते हैं। मैने कहा कि हम सब सोचने का यत्न करें कि अब तक हमें कौन कौन सी क्षति हुई है, जिसे भविष्य में रिकवर न किया जा सके। मैने यह अटकल लगाई कि बहुत से लोगों के मामले में यह बहुत कम होगी। हममें से जो भी जिन्दा थे, उनके पास आशा के बहुत से कारण थे। स्वास्थ्य, परिवार, खुशियां, व्यवसायिक योग्यता, सौभाग्य, समाज में स्थान – ये सब या तो अभी भी पाये जा सकते हैं या रिस्टोर किये जा सकते हैं। आखिर अभी हमारी हड्डियां सलामत हैं। और हम जो झेल चुके हैं, वह किसी न किसी रूप में हमारे लिये भविष्य में सम्पदा (एसेट) बन सकता है। फिर मैने नीत्शे को उधृत किया – “वह जो मुझे मार नहीं डालता, मुझे सक्षमतर बनाता है”।

आगे मैने भविष्य की बात की। मैने यह कहा कि निरपेक्ष रूप से देखें तो भविष्य निराशापूर्ण ही लगता है। हममें से हर एक अपने बच निकलने की न्यून सम्भावना का अन्दाज लगा सकता है। मेरे अनुसार, यद्यपि हमारे कैम्प में क्षय रोग की महामारी नहीं फैली थी, मैं अपने बच निकलने की सम्भावना बीस में से एक की मानता हूं। पर इसके बावजूद मैं आशा छोड़ कर हाथ खड़े कर देने की नहीं सोचता। क्योंकि कोई आदमी नहीं जानता कि भविष्य उसके लिये क्या लेकर आयेगा। वह यह भी नहीं जानता कि अगले घण्टे में क्या होगा। भले ही हम अगले महीनों में किसी सनसनीखेज सामरिक घटना की उम्मीद नहीं करते, पर (कैम्प के पुराने अनुभव के आधार पर) हमसे बेहतर कौन जानता है कि व्यक्ति (इण्डीवीजुअल) के स्तर पर बड़ी सम्भावनायें अचानक प्रकटित हो जाती हैं। उदाहरण के लिये हममें से कोई किसी अच्छे ग्रुप के साथ अचानक जोड़ दिया जा सकता है, जहां काम की स्थितियां कहीं बेहतर हों। और किसी कैदी के लिये तो यह सौभाग्य ही है।…..

(शेष भाग 2 में, कल)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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